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जब स्त्रियों ने उठाई बंदूकें

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jitendra

उन्‍नीसवीं सदी हिंदुस्‍तान में आजादी की लड़ाई के साथ-साथ नवजागरण का भी दौर था। महाराष्‍ट्र, बंगाल समेत पूरे भारत में सामंती जकड़नें टूट रही थीं और नव आधुनिक विचारों का उजास फैल रहा था। इस सांस्‍कृतिक पुनर्निर्माण में पितृसत्‍ता के बंधन भी ढीले पड़ रहे थे। स्त्रियाँ घर की चारदीवारी से बाहर आ रही थीं और जंग-ए-आजादी में पुरुषों के साथ कदम मिलाकर चल रही थीं। फिरंगियों की लाठी-गोली खाने से लेकर जेल जाने और जुलूस-धरने-प्रदर्शन किसी में भी स्त्रियाँ पुरुषों से कमतर नहीं थीं

गाँधीजी सदियों से चली आ रही उस मान्‍यता के सख्‍त खिलाफ थे, जो स्त्रियों को पुरुषों से कमतर मानती थी। उन्‍होंने कहा, ‘यदि शारीरिक बल को छोड़ दें तो नैतिक और आत्मिक शक्ति में स्त्रियाँ पुरुषों से कहीं श्रेष्‍ठ हैं’ महात्‍मा गाँधी समेत ज्‍योतिबा फुले, ईश्‍वरचंद विद्यासागर और राजा राममोहन राय आदि समाज सुधारक स्त्रियों की गुलामी और उन्‍हें घर की सीमाओं में कैद किए जाने के पक्षधर नहीं थे

साहित्‍य में प्रेमचंद स्त्रियों की आजादी के पक्ष में लिख रहे थे, ‘हमें घर की इज्‍जत बचाने के नाम पर औरतों को घर की दीवारों में कैद कर देने का कोई हक नहीं है’ स्त्रियों की मुक्ति और चूल्‍हे-चौके से इतर सामाजिक जीवन में उनकी भूमिका को मजबूत करने में आजादी की लड़ाई का बहुत बड़ा योगदान रहा।

उस दौर के इतिहास ने एक बार फिर सदियों से चली आ रही इन प्रस्‍थापनाओं को झुठलाया कि स्‍त्री अन्‍या है, कमजोर है और गृहस्‍थी और मातृत्‍व ही उसका एकमात्र कर्त्‍तव्‍य है। हिंदुस्‍तानी स्त्रियों का साहस और बलिदान देखकर फिरंगियों की भी रूहें काँप उठीं। जिस तरह उन्‍नत भाल माएँ अपने बेटों को फाँसी के तख्‍ते पर चढ़ने के लिए विदा कर रही थीं, नन्‍ही लड़कियाँ अपने सीने पर अँग्रेजों की गोली खा रही थीं, उसने गोरे फिरंगियों को भी एकबारगी हैरान कर दिया

हिंदुस्‍तान की पहली महिला शहीद :
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प्रीतिलता वड्डेदार आजादी की लड़ाई की कुछ ऐसी जुझारू और साहसी युवतियों में से थी, बहुत कम उम्र में ही तमाम सुख-आराम से परे अँग्रेजों से देश की मुक्ति ही जिसके जीवन का लक्ष्‍य बन गया था। फिरंगियों के लिखे इतिहास में प्रीतिलता वड्डेदार का नाम कहीं दर्ज नहीं है। उनका नाम इतिहास में वह स्‍थान न पा सका, जिसकी वह सचमुच हकदार थी।

प्रीतिलता चटगाँव के बालिका विद्यालय में अध्‍यापिका थी। चारों ओर अँग्रेज हुकूमत के खिलाफ आजादी का बिगुल बज रहा था। प्रीतिलता भी हृदय से उस जंग में शामिल थी और खुद भी इसमें योगदान करना चाहती थी। देशभक्ति का जज्‍बा तो भीतर था ही, अपने एक परिचित नेता सूर्यसेन के साथ मिलकर वह क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्‍सा लेने लगी।

स्‍कूल के बाद का पूरा समय इन्‍हीं सपनों और योजनाओं को समर्पित था। 24 सितंबर, 1932 को प्रीतिलता एक क्रांतिकारी अभियान पर निकलीं। क्रांतिकारी दल के सदस्‍यों ने मिलकर एक यूरोपियन क्‍लब को उड़ाने की योजना बनाई थी, जिससे गोरों की अय्याशियों को एक झटका लगता। इस अभियान के लिए प्रीतिलता को चुना गया। 24 सितंबर की रात कुछ लोगों को साथ लेकर प्रीतिलता इस अभियान पर निकली। रात के अँधेरे में, जब गोरे नाचने-गाने में मगन थे, क्रांतिकारियों ने हमला कर दिया। बम के धमाकों से गोरे भयभीत हो गए। लेकिन जीत अँग्रेजों की ही हुई। अभियान सफल न हो सका। बचकर भागने के बजाय प्रीतिलता ने साइनाइड खाकर आत्‍महत्‍या कर ली। वह हिंदुस्‍तान की पहली महिला शहीद थी। मृत्‍यु के बाद उनके पास एक पर्चा मिला, जिस पर लिखा था, ‘स्‍त्री और पुरुष, दोनों एक ही लक्ष्‍य के लिए संघर्ष कर रहे हैं। फिर दोनों में फर्क क्‍या’ प्रीतिलता का जीवन ज्‍यादा लंबा न था। होता तो ऐसे जाने कितने अय्याश हुक्‍मरानों की नींदें हराम हुई होतीं

जब गोरों के छाती को छील गई गोलियाँ :
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शांति घोष और सुनीति चौधरी दो साहसी बालिकाएँ थीं, जो कम उम्र में ही क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गई थीं। इतिहास में 18 अप्रैल, 1930 को चटगाँव के शस्‍त्रागार पर पड़े छापे का जिक्र मिलता है। उस छापे का नेतृत्‍व यही दोनों बालिकाएँ कर रही थीं। उस समय वह नौवीं कक्षा की छात्रा थीं। स्‍कूल के बाद दोनों एक क्रांतिकारी संगठन के लिए काम करती थीं। इस संगठन का उद्देश्‍य देश को गुलामी से आजाद कराना था।

पढ़ाई के दौरान ही उन्‍होंने तलवारबाजी और बंदूक चलाने का प्रशिक्षण लिया था। क्रांतिकारी संगठन ने एक अँग्रेज जिलाधिकारी स्‍टीवेंस कउड़ाने की योजना बनाई और इसकी जिम्‍मेदारी सौंपी सुनीति और शांति को। सुबह-सुबह जब स्‍टीवेंस सैर के लिए अपने घर से बाहर निकला दो गोलियाँ दनादन उसकी छाती को भेदती आरपार हो गईं। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता, स्‍टीवेंस ढेर हो चुका था। उसके सामने साहस से मुस्‍कुराती हाथों में पिस्‍तौल थामे सुनीति और शांति खड़ी थीं

इस हत्‍या के खिलाफ गोरी अदालत में मुकदमा चला। अँग्रेजों की रूह काँप उठी। यह कैसा देश है, जहाँ नन्‍ही-नन्‍ही लड़कियों में भी बंदूउठाने और खुद अपने सीने पर गोली खाने का जज्‍बा है। स्‍टीवेंस की हत्‍या के आरोप में दोनों को उम्र कैद की सजा मिली। पूरे मुकदमे के दौरान जिस हिम्‍मत और गौरव से मस्‍तक उठाए दोनों खड़ी थीं, उसने पूरे देश का माथा गर्व से ऊँचा कर दिया।

महान क्रांतिकारी लीला नाग :
हिंदुस्‍तान की क्रांतिकारी महिलाओं में एक और नाम बहुत शिद्दत के साथ याद किया जाता है, लीला नाग का।
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लीला ढाका के मुक्ति संघ के साथ काम करती थीं। उन्‍होंने महिलाओं के लिए दीपाली स्‍कूल और नारी शिक्षा मंदिर आदि नामों से स्‍कूल खोले। ऊपर से यह सामान्‍य विद्यालय नजर आते, पर वास्‍तव में इनका काम स्त्रियों के बीच क्रांतिकारी विचारों और गतिविधियों का प्रसार करना था। लीला नाग और उनके पति अनिल राय ने मिलकर ढाका के पुलिस महानिरीक्षक लोमैन की हत्‍या की योजना बनाई थी

बंगाल के घर-घर में सुनी एक कहानी :
ऐसी ही एक और क्रांतिकारी महिला थी, बीना, जो बंगाल के अत्‍यंत संभ्रांत परिवार से आती थी। देश की तमाम वीरांगनाओं की तरह कम उम्र में हिंदुस्‍तान की आजादी से उन्‍होंने विवाह कर लिया और अब यही उनके जीवन का मकसद था। 6 फरवरी, 1932, बंगाल का एक गोरा गवर्नर किसी कॉलेज के दीक्षांत समारोह में आने वाला था। क्रांतिकारियों ने उसे खत्‍म करने की योजना बनाई और इसका दायित्‍व सौंपा गया, बीना को। गवर्नर जैसे ही भाषण देने के लिए खड़ा हुआ, भीड़ के बीच से दो हाथ आगे बढ़े और दनादन गोली दागी गई। हाथ कच्‍चे थे, निशाना चूक गया। फिरंगी अदालत ने लीला नाग को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। बंगाल के घर-घर में आज भी बीना के किस्‍से सुनाए जाते हैं

ऐसे और भी बहुत से नाम है, जो इतिहास के पन्‍नों पर दर्ज नहीं हो पाए, पर जो हिंदुस्‍तान की तारीख में अहम स्‍थान रखते हैं। गोरों क
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लिखे इतिहास में इनका जिक्र नहीं मिलता, क्‍योंकि खुद उनकी आत्‍माएँ वीरता के ऐसे प्रदर्शन से काँप उठी थीं। पर कुछ बातें होती हैं, जो पन्‍नों पर दर्ज न भी हों तो भी उन्‍हें मिटाया नहीं जा सकता। इन वीरांगनाओं की कथा भी कुछ ऐसी ही है।

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