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कहानी : वह खास दिन

हमें फॉलो करें कहानी : वह खास दिन

डॉ. साधना सुनील विवरेकर

अनिकेतजी रोज की तरह सुबह की सैर से लौटे। अखबार को गेट से निकाला व तारीख पर नजर पड़ते ही आंखों में जो नमी उतरी, उसने हर अक्षर को धुंधला दिया। 10 दिसंबर यह तारीख वो बरसों से याद रखने की कोशिश करते, पर हर साल मात खा जाते। दिसंबर का महीना प्रारंभ होते ही वे मन ही मन कई बार दोहराते कि 10 तारीख याद रखना है। सुबह ही अनु को विश करना है, रात में ही गजरा लाकर रखना है, नहीं-नहीं कोई खूबसूरत-सा गुलाब का पौधा अनु को भेंट दूंगा। कभी सोचते शाम को होटल में या किसी ढाबे पर डिनर पर ले जाऊंगा। कभी सोचते कोई साड़ी गिफ्ट करूंगा।
 
लेकिन कुछ न कुछ ऐसा होता कि काम की व्यस्तता में अधिक जतन से याद रखने की कोशिश में वह 'खास' दिन अक्सर आम दिनों की तरह ही गुजर जाता या देर रात याद आती भी तो तब तक अनु का मूड पूरी तरह उखड़ा रहता व बात संभालने की कोशिश, रूठने-मनाने के प्रयास में इतनी लंबी खींचती कि 11 दिसंबर के सूरज के साथ भी कड़वाहट खत्म नहीं होती। हर बार अनु से व उससे भी ज्यादा स्वयं से वादा करते कि अगले साल वे खास दिन बहुत खास अंदाज में मनाएंगे व अनु को शिकायत का मौका नहीं देंगे।
 
40 वर्षों के वैवाहिक जीवन की नींव का वह प्रथम दिन अनु के लिए स्वर्णिम दिन था। वैसे भी अनु आंकड़े याद रखने में मास्टर थी। गणित की प्राध्यापिका, खास लोगों के जन्मदिन, शादी की सालगिरह, उनके बच्चों के जन्मदिन यहां तक कि कई रिश्तेदारों के फोन व मोबाइल नंबर भी उसे कंठस्थ रहते। रिश्तेदार हो या सहकर्मी या पड़ोसी, याद से विशिष्ट अवसरों पर उन्हें स्नेह से 'विश' करने की उसकी आदत ने उसे दुनिया-जहान से जोड़ रखा था, वहीं अनिकेतजी को तारीखों और आंकड़ों से सख्त बैर।
 
अपनी खुद की तनख्वाह का 'एक्झेक्ट फिगर' तक उन्हें याद नहीं रहता, न ही वेतनवृद्धि का महीना। इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट हासिल करने के बावजूद अनु के मन की छोटी-छोटी अपेक्षाओं को न वे कभी समझ पाए, न ही उन्हें उनकी अहमियत लगी। अनु चाहती थी कि वे बिना कहे उसे कब क्या चाहिए, यह समझें व उनका तर्क होता कि 'साफ-साफ कह दो, यह लेना है और ले आओ'।
 
सारी जिंदगी इसी बहस में निकल गई। बेटियां अपने पप्पा का पक्ष ले समझातीं कि 'आई, पप्पा का स्वभाव ही ऐसा है। वे जान-बूझकर ऐसा नहीं करते फिर मना भी कहां करते हैं? तुम पसंद की कोई महंगी साड़ी लो या गहना।'
 
अनु का तर्क होता, 'मुझे किसी चीज की कमी नहीं, पर तुम्हारे पप्पा कभी खुद होकर कुछ गिफ्ट करने की, गिफ्ट न भी दे तो विशेष अवसरों को याद रखने की भी कोशिश तक क्यों नहीं करते?'
 
बेटियां पप्पा को समझाने की औपचारिक कोशिश करतीं, पर अंत में अनु ही परिस्थितियों से समझौता कर गृहस्थी में मगन हो जाती।
 
अनिकेतजी बड़बड़ाते, 'फलां तारीख को शादी की सालगिरह, फलां को सगाई की सालगिरह, कभी अनघा का जन्मदिन, तो कभी अर्चना का। कभी आई-बाबा का जन्मदिन, तो कभी और कुछ। इंसान याद रखे भी तो कितना और न याद रहे तो तुम सुबह से या एक दिन पहले याद दिला दो, जो करने की इच्छा है कह दो, जो लाना है बता दो, पैसे चाहिए तो मांग लो, साथ चलना है तो कह दो, पर यह राह क्यों देखती हो कि मैं याद रखूं? हर बार मेरी परीक्षा क्यों? मैंने कई बार मान तो लिया है कि मुझे याद नहीं रहता सॉरी बाबा सॉरी'।
 
अनु इस 'सॉरी' के आगे झुक जाती। उसे अनिकेतजी का 'सॉरी' कहना भी मंजूर नहीं होता। फिर समझौता इसी शर्त पर होता कि 'मैं सब याद रखूंगी, याद दिलवाऊंगी भी, पर वह दिन आप कैसे भूल सकते हैं, जब आपने मुझे पहली बार देखकर पसंद किया था।' 10 दिसंबर' और वह अतीत में खो जाती।
 
अनिकेत को कभी उसकी भावुकता पर प्यार आता, तो कभी कोफ्त होती। 40 साल गुजर गए। जहां मंगनी व शादी की सालगिरह की तारीख प्रयत्नपूर्वक याद रखनी पड़ती, न याद रहे तो जबसे बेटियां समझदार हुई हैं, विवाद व लड़ाई न हो इसलिए चुपके से स्वयं केक या गिफ्ट लाकर रख देती है या फोन या एसएमएस से याद दिला देती है, वहां 10 दिसंबर याद रखना बहुत मुश्किल। फिर अनु भी इतनी शातिर है कि पकड़ ही लेती है कि गिफ्ट कौन लाया या किसने याद दिलाया, फिर अनु ने कभी नहीं चाहा कि इस खास दिन के बारे में उन दोनों के अलावा कोई और जाने। अनिकेत ने कभी-कभी लिखकर भी रखा लेकिन कहां रखा वही भूल गए, फिर साल-छह माह में वह पर्चा मिला भी तो किस काम का?
 
लेकिन पिछले 3 सालों से उन्हें हर दिन, हर पल याद रहने लगा है। 40 नहीं, 43 वर्ष पूर्व वे इंजीनियर के पद पर सरकारी नौकरी में नियुक्त हुए थे, तब कई जगह से रिश्ते भी आ रहे थे लेकिन 'फोटो पसंद आने व पत्रिका मिलान के बाद ही मैं किसी लड़की को देखने जाऊंगा', उनकी इस जिद के आगे आई परेशान थीं। आई, बाबा व छोटी बहन अनिता के साथ एम्बेसेडर कार करके शिर्डी दर्शन करने गए थे। वहीं मंदिर में आई की बचपन की सहेली से मुलाकात हुई और वह आग्रह करके 'येवला' अपने घर ले गई। साफ-सुथरा बड़ा-सा घर। उनकी बेटी सुमित्रा ने आग्रह से खाना खिलाया। अनिकेत को एमएससी फाइनल में पढ़ रही सुमित्रा दिल से भा गई थी। अनिता ने भैया के दिल की बात समझ ली व लौटते समय कार में रास्ते में ही सबने उनकी पसंद पर स्वीकृति की मोहर लगा दी। बड़ों ने आपस में चर्चा की व सब कुछ विधिलिखित-सा संपन्न हो गया।
 
गृहप्रवेश के बाद लक्ष्मीपूजन के समय थाली में रखे चावल में अनिकेत ने अंगूठी से लिखा 'अनुराधा' व फिर 'सुमित्रा जोशी', 'अनुराधा अनिकेत गंधे' बन गई। बाद में अनिकेत ने बारातियों को पेढ़ा बांटते हुए उसका नया नाम 'अनु' बताया व सुमित्रा अतीत में धीरे-धीरे कब गुम हो गई, उसे पता ही नहीं चला।
 
वह दिन, जब अनिकेत शिर्डी से लौटते उसके घर रुके थे, 10 दिसंबर का था, जो वे भुला बैठते लेकिन अनु के लिए वह स्वर्णिम यादगार था। हर साल अकेले में वह उस दिन के प्रत्येक पल को भावुकता से याद करती कि कितने बजकर कितने मिनट पर अनिकेत की कार उनके दरवाजे पर थी। अनिकेत ने उस दिन नीली चौकड़ी वाले हॉफ स्लीव्ज की शर्ट पर काली पेंट पहन रखी थी। आई ने आसमानी हरी पैठणी साड़ी व बाबा ने सफेद कुर्ता-पजामा आदि। फिर उसने उस दिन खाने में क्या-क्या बनाया था? यहां तक कि कौन सी सब्जी अनिकेत ने कितनी बार ली थी? पूरन पोली पर घी की धार जरूरत से ज्यादा पड़ते ही कैसे अनिकेत ने उसका हाथ पकड़कर रोक दिया था व बाद में बड़ी मासूमियत से शरमाकर 'सॉरी' कहा था।
 
अनु के साथ उनकी जिंदगी बड़ी सुखद गुजरी थी। दोनों ही कमाते। दोनों बेटियां पढ़ने में तेज व सुंदर थीं। आई-बाबा के साथ घर की हर जिम्मेदारी अनु ने अच्छी तरह ओढ़ रखी थी। उन्हें अपनी नौकरी व थोड़ी-बहुत बागवानी के अलावा दुनियादारी से कोई विशेष सरोकार न था। बेटियों के एडमिशन से लेकर होमवर्क तक व पैरेंट्स मीटिंग से लेकर गैदरिंग तक, आई-बाबा के हेल्थ चेकअप से लेकर सोशल फंक्शन्स की भागीदारी, फोन बिल हो या इंकम टैक्स रिटर्न, पैसे की एफडी बनाना हो या लोन की किस्त का भुगतान, अनु उनसे चेक पर हस्ताक्षर करवाती व जो कुछ बताती, वे एक कान से सुनते व दूसरे से निकालते हुए कहते 'हां-हां, ठीक है'।
 
रोज प्रेस के कपड़े देने-लाने जैसा छोटा काम हो या कहीं शिकायत कर अपने हक के लिए लड़ना हो, सबकुछ अनु ही करेगी। मानो यह उनके घर का अलिखित नियम बन गया था। घर के हर छोटे-बड़े काम का उत्तरदायित्व अनु का था, पर निर्णय उन्हीं के होते। उनको बिना बताए, बिना सुनाए उनकी 'हां' की मुहर के बिना अनु ने कभी कोई काम नहीं किया था।
 
पिछले 3 सालों से वे हर पल महसूस करते रहे थे कि अनु घर के लिए, खासकर उनके लिए क्या थी? अखबार हाथ में लिए वे अतीत में खो गए। 20 वर्ष पूर्व शहर से बाहर विकसित हो रही कॉलोनी में उन्होंने बड़ा-सा प्लॉट खरीद लिया था। अनु ने खुशी-खुशी वहां बड़े-बड़े कमरे, खासकर बड़े-से किचन, अलग स्टोर व बालकनी वाले मकान का सपना देखना शुरू कर दिया था। कभी बेटियों की पढ़ाई व शहर से दूर रहने की परेशानियों का डर दिखाकर, तो कभी क्या जरूरत है? बेटियां ससुराल चली जाएंगी तो हम इतने बड़े घर का क्या करेंगे? का तर्क देकर वे हर बार टालते रहे।
 
इस बीच जमा-पूंजी से एक-दो जगह और प्लॉट खरीद लिए। अनु का सदा विरोध रहता, 'एक प्लॉट पर तो मनमाफिक घर बनवाया नहीं, पता नहीं इन सब जमीनों का क्या करने वाले हैं? जिंदगी में हमने पैसे का उपभोग नहीं किया, तो ऐसे असेट्स किस काम के?' 
 
बेटियों की पढ़ाई पूरी हुई। अनघा की शादी का वक्त आया तो अनु ने एक प्लॉट बेचने की सलाह दी लेकिन अनिकेत ने दोनों के पीएफ व जमा-पूंजी से इंतजाम कर शादी निपटाई।
 
अनिकेत को याद आया कि चाहे उनके पास अनु के कॉलेज की बातें, परेशानियों या कोई छोटे-मोटे किस्से सुनने में न रुचि रही, न समय, पर अनु बताती जरूर। लेकिन अपने मन की हर बात, हर समस्या उसे बताने के लिए वे उसे अधिकार से रोक ही लेते और वह भी चाहे गैस पर पकती सब्जी को आधे में से बंद करना पड़े, चाहे कॉलेज जाने की जल्दी हो या बच्चियों का होमवर्क करवाते समय बीच में ही उन्हें खेलने की आज्ञा देनी पड़े, उनकी बात पूरे मन से सुनती आई थी। उन्हें हौसला दे समस्या का समाधान सुझाती आई थी।
 
अनिकेत को याद नहीं कि कभी उन्होंने कोई भी चीज बनाने की फरमाइश की हो और अनु ने वह 24 घंटे के अंदर न बनाई हो फिर वह पूरन पोली हो या बाकरवडी, चकली हो या करंजी। बेटियां हमेशा चिढ़ातीं, 'पप्पा ने कह दिया न, अब तो शाम या कल सुबह तक जरूर बन ही जाएगा।'
 
अनु कभी लोन की बढ़ती किस्त या खर्चों से परेशान हो प्लॉट बेचने को कहती लेकिन अनिकेत को जमीन की बढ़ती कीमतों के मोह ने जकड़ रखा था। आज अनिकेत को वही याद आ रहा था। अर्चना की शादी के समय अनु बहुत उत्साह में थी। अर्चू के गहनों के साथ स्वयं के लिए हीरे का मंगलसूत्र व टॉप्स खरीदना चाहती थी। अनिकेत ने हां भी कर ली, लेकिन शादी इतनी जल्दी के मुहुर्त पर थी कि प्लॉट बेचना संभव नहीं था। हारकर एरियर की रा‍शि, जमा-पूंजी व अनु के ही रखे हुए कड़े व हार से नए गहने बनाकर शादी धूमधाम से संपन्न हूई। अनु की अपनी चाह शादी की शहनाइयों व बैंड-बाजों की आवाज में फिर दब गई।
 
दोनों बेटियों के त्योहार कभी उनके व उनके बच्चों की खुशियां मनाते दिन पंख लगाकर उड़ने लगे व 5-7 साल कब गुजर गए, पता ही नहीं चला।
 
रिटायरमेंट नजदीक था। अनिकेत ने सोच रखा था कि मिलने वाली ग्रेच्युटी व अन्य राशि से अनु के लिए डायमंड का मंगलसूत्र व टॉप्स दोनों बनवाऊंगा। सिक्यूरिटी के लिए प्लॉट्स हैं, बाद में बेटियों के काम आएंगे। पेंशन से दोनों का खर्च मजे से चलेगा। अनु को लेकर कभी हिल स्टेशन, तो कभी विदेश हो ही आऊंगा, अनु के कड़े व हार फिर से बनवा दूंगा। न हो तो किसी प्लॉट पर अनु की मर्जी अनुसार घर बना वहीं शिफ्ट हो जाएंगे, बेटियां आती हैं तो घर छोटा ही पड़ता है।
 
लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन अनु शॉपिंग कर देर शाम घर लौट रही थी कि चौराहे पर ट्रक ने टक्कर मार दी और वह सदा के लिए अनिकेत को छोड़कर चल दी। उस दिन भी उसकी कार में महीनेभर का किराना, सभी जरूरत का सामान व प्रेस के कपड़े ज्यों के त्यों थे।
 
पिछले 3 साल से अनिकेतजी अकेले हैं अनु की यादों के सहारे। अब जमीन की बढ़ती कीमतें उनके लिए मायने नहीं रखतीं, पर अनिकेतजी तारीखें याद रखना सीख गए हैं। खासकर वह खास दिन उन्हें याद आ ही जाता है।
 
उन्होंने पेपर बिना पढ़े ही रख दिया। चश्मा उतारकर आंखों को रूमाल से पोंछा व बगीचे से फूल तोड़कर माला बनाने में व्यस्त हो गए। हर फूल को पिरोते समय उनके मन में अनु के साथ बिताए गए पलों की यादों का सैलाब उठ रहा था। सामने हॉल में बड़े से फोटो में अनु के मुस्कुराते चेहरे पर संतुष्टि का भाव उन्हें जीने की प्रेरणा दे रहा था!

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