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लघुकथा : इंटरव्यू

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प्रज्ञा पाठक

यह लघुकथा किसी अंधविश्वास को प्रोत्साहित नहीं करती। ये केवल एक विसंगति की ओर इंगित करती है। आज की एक त्रासद स्थिति को अपनी समग्रता में चित्रित करने के प्रयास में लोक प्रचलित मान्यताओं का अवलंब ग्रहण किया गया है। विश्वास है कि सुधीजन इसे अन्यथा न लेते हुए लघुकथाकार के उद्देश्य को समझकर क्षमा करेंगे।
 
आज सुबह से ही उसकी दांयी आंख फड़क रही थी।
 
मां ने कहा-"यह तो शुभ शगुन है।लगता है,आज कुछ शुभ घटेगा।"
 
कुछ देर बाद ही उसका अधनंगा चार वर्ष का बेटा दौड़ता हुआ आया और उसे बाहर की ओर खींचते हुए बोला-"बापू,डाक बाबू आया है।"
 
वह तीर की तरह तेजी से दरवाज़े पर आया और डाकिये से लिफ़ाफ़ा लिया।लिफ़ाफ़ा खोलते ही वह ख़ुशी से चिल्लाया-"मां,मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया है।"
 
मां के साथ उसकी पत्नी और युवा बहन भी लगभग दौड़ते हुए बाहर आये। मां उसकी बलाएं लेने लगीं। पत्नी की आंखें भर आईं और बहन ने उसे गले लगा लिया। मां रुंधे गले से बोल उठीं-"भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं।"
 
इंटरव्यू वाले दिन उसने पड़ोस के धोबी से अनुनय-विनय कर एक अच्छा शर्ट मांगकर पहना और जूते दोस्त से उधार लिए। 
 
तैयार हुआ,तो बहन ने गुड़ खिलाकर शुभकामना दी।चलते समय मन में यह आशंका उठ आई-'कहीं ऐसा न हो कि यह नौकरी भी सिफारिश वालों को मिल जाये।' फिर इस आशंका को झटककर मां को प्रणाम कर भगवान का स्मरण करता हुआ घर से निकला।
 
बाहर आते ही मेहतरानी तो दिखी,किन्तु गली के मोड़ पर बिल्ली रास्ता काट गई।
 
सिफारिश एक बार फिर योग्यता पर जीत हासिल कर चुकी थी।

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