Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

लघुकथा : लोकतंत्र का सच

हमें फॉलो करें लघुकथा : लोकतंत्र का सच
webdunia

प्रज्ञा पाठक

राष्ट्र पर 'राजनीति' का एकछत्र राज चल रहा था। उसके राज में 'तंत्र' सतत् प्रगतिशील और 'लोक' निरंतर पतनशील था।फिर भी 'लोक' उसे सिर-आँखों पर बैठाये हुए था।'धर्म' से 'लोक' की यह दुर्दशा देखी नहीं गई। समझाईश देने के अपने युगों पुराने कर्तव्य-बोध से प्रेरित हो धर्म, राजनीति को भी समझाईश देने गया।

उसे 'लोक' के हित का वास्ता देते हुए धर्म ने स्वयं के अनुसार अर्थात् धर्मानुसार चलने की सलाह दी।

तब राजनीति ने अपनी चिरपरिचित विनम्रता से कहा-"प्रभु! मैं तो युग के अनुकूल ही स्वधर्म का निर्वाह कर रही हूं। यदि ऐसा ना होता,तो 'लोक' जिसके वोट से ही मैं शासक बनी हूँ,कब का मुझे उखाड़ फेंकता। वह तो मुझे सदा ही अपने कन्धों पर बैठाकर जिताता आया है। हां,एक बात अवश्य है भगवन्! लोक पर आपका प्रभाव मेरी तुलना में अधिक है। अतः आप उचित समझें,तो मेरे साथ आ जाएं। हम दोनों को साथ देखकर 'लोक' निश्चित ही बहुत खुश होगा और मेरे राजदंड तथा आपके धर्मदंड के तले निरंतर उन्नति करता रहेगा।"
 
राजनीति की यह 'पलट समझाईश' धर्म को जंच गई।
 
तभी से धर्म और राजनीति मिलकर 'तंत्र' को चला रहे हैं और वयस्क व विवेकशील 'लोक' ने अपनी आदतानुसार ही अब इन दोनों के सम्मिलित स्वरुप को सच्चा लोकतंत्र मानकर सिर-आंखों पर बैठा लिया है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

नहीं आना मुझे इतने बुरे संसार में अम्मा...