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नई कहानी : सुनयना

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अंजू निगम

-अंजु श्रीवास्तव निगम
 
सुनयना के कदम जल्दी-जल्दी बढ़ चले थे देवांश बाबू की हवेली की तरफ।
 
देवांश बाबू के पिता जमींदार थे। आसपास के कई गांवों के सबसे रईस लोगों में गिने जाते थे। करोड़ों की जमीन-जायदाद और दूर-दूर तक फैला व्यापार। पर अब समय ने अपना असर दिखाया था और देबाशीष बाबू पहले की तरह फुर्तीले नहीं रह गए थे।
 
हां, अपने समय में देबाशीष बाबू का बड़ा रौब हुआ करता था। अकूत संपत्ति होने से जो गुण आते हैं सब उनमें पाबस्ता थे। उनकी रंगीन तबीयत के किस्से मशहूर थे। जमींदार परिवार में आम मानी जाती थीं ये बातें।
 
देबाशीष बाबू के मुनीम दिवाकर बाबू। बड़े पुराने आदमी थे। वफ़ादारी की मिसालें दी जाती थीं। इस परिवार की सारी ऊंच-नीच के मूक गवाह।
 
दिवाकर बाबू की ही इकलौती बिटिया सुनयना। रूप का धन अथाह था। नाम के अनुसार उसकी चंचल गहरी आंखें किसी का भी मन मोह ले। अपने रूपसी होने का तनिक गुमान न था उस लड़की को। चंचर हिरनी सी सारे दिन कुलांचे भरती देवांश बाबू और अपने घर के बीच। 
 
देवांश बाबू की मां गौरी। जगत मां की तरह। जब ब्याहकर आई थी इस घर में तब मात्र चौदह बरस की थी। घर-गृहस्थी का काम तब से संभाल लिया था। काम करने वालों की कमी नहीं थी। भंडारे और घर की तमाम चाबियां उनकी साड़ी के पल्लू में बंधी रहतीं। पति ने घर की चाबी के साथ घर के अपने सारे कर्तव्यों से भी हाथ समेट लिया था।
 
गौरी मां का मायका भी उनकी ससुराल की टक्कर का था। मान-प्रतिष्ठा में। इस लिहाज से जो खानदानी ठसक उनमें होनी थी, वो मौजूद थी। बस पति के गुणों से हारी थी। अन्यथा उनकी बात का पूरा मान था। सुनयना से दिन-रात का साथ बना था। बेटी सा मान पाती थी सुनयना उनसे।
 
आज वही सुनयना जल्दी-जल्दी जा रही थी देवांश की हवेली की ओर।
 
सुनयना और देवांश बचपन के साथी थे। हर बात के साथी। खेलना-खाना, रूठना-मनाना, मान-मनुहार सबका साथ। बचपन का खिलंदड़ापन कब जवानी की सीढ़ियां लांघा, दोनों को रत्तीभर भान न हुआ।
 
सुनयना की मां को मगर इसका भान था। दोनों घरों के रुतबे के फासलों का भान था। तभी न उसकी पाबंदी और रोक-टोक बढ़ चली थी।
 
ढलती शाम घर से निकलती सुनयना मां की नजरों में आ गई।
 
'क्यों रे, तुझे कितनी बार मना किया यूं बावली सी यहां-वहां न फिरा कर। तेरे पैर टिकते क्यों नहीं एक जगह। इतनी बड़ी हो गई है, पर पहनने-ओढ़ने का जरा शऊर नहीं। शाम ढलने को हुई है।
 
सुनयना तो मां को अभी-तभी का कह फुदकती देवांश के घर हो ली। मां पीछे से आवाज देती रह गई। 
 
देवांश के घर की देहरी नापी ही थी कि मां की आवाज आ गई, 'कर आई दीया-बाती। यहां आकर यहां का भी दीया-बाती कर दे। जो तू अपने पिया के घर जाएगी तो कैसे सधेगा ये सब।' 
 
मुंह लाल हो उठा सुनयना का। 'मां आपको छोड़ कहीं नहीं जाने वाली। मैं तो यहीं जमी रहूंगी।'
 
'पगली, ऐसा कहां-देखा-सुना तूने। जो एक दिन पिया के घर गई तो वहीं की हो रहेगी। फिर न आएगी इधर की याद तुझे।'
 
'मां, कह अपनी बाहों का हार मां के गले में डाल उससे चिपट ली।' 
 
'पगली' कह मां भी हंस दी।
 
मां के कामों से निपट जो देवांश के कमरे की तरफ कदम बढ़ाए तो मां ने पीछे से हांक लगाई, 'ऐ री सुन, देवांश तो शहर गया है। कुछ काम आन पड़ा। कल तक ही आना होगा। तेरे घर तो गया था बताने। फिर क्या बिना बताए चल दिया। इसके मन का भी ठिकाना कहां। जाने तो कहां खोया रहता है।'
 
मां ने फिर जो कहा, सुनयना ने कान न दिए उसको सुनने के लिए। सुन सुनयना का मुंह एकदम उतर गया।
 
'ऐसे कैसे, देवांश बाबू तो हर बात बताकर ही हटते थे। आज कहां से आया ऐसा परायापन? कुछ बताए बिना क्यों उसकी देहरी छूकर ही जाना हुआ?'
 
देवांश के आने पर खूब रूठना-मनाना, सोचकर वापस हो ली सुनयना।
 
दूसरे दिन तक देवांश बाबू का आना न हुआ। सुनयना दो बार पूछा आई मां से। कोई ढंग का जवाब न मिलने से और बेचैन हो गई। हफ्तों तक बात न करने का ठाना।
 
तीसरे दिन घोड़ों की टापों की आवाज से जान पड़ा कि देवांश बाबू का आना हुआ होगा। मान की अधिकता से जानने का उत्साह भी न हुआ। 
 
'मुझे क्या, कल आते, परसों आते या वहीं बस जाते।' सुनयना काफी देर वैसी ही बनी रही। जो काफी देर गए देवांश के यहां से कोई संदेशा न आया तो सुनयना अपने को ही कोसने लगी।' जरा सा खिड़की से झांक भर तो लेना था। वो भी न हो पाया मुझसे। कैसी बांवरी हुई हूं मैं।'
 
सुनयना का मन फिर ज्यादा हो उठा। जो आ गए थे तो बुलावा देना भी जरूरी न समझा। सुबह का मान दोपहर ढलते-ढलते गुस्से, फिर चिंता में बदला।
 
'ठीक तो होना न सब', सुनयना की कुछ ऐसी सोच हो आई।'
 
'देवांश बाबू को तो फुरसत हुई हो ऐसा नहीं जान पड़ता। एक बार भी संदेशा देने की सोच न बनी।'
 
जो शाम ढलने तक कोई संदेशा न आया तो वो मान ही बैठी कि देवांश बाबू का शायद आज भी आना न हुआ। एक बार देख आऊं तो क्या कहानी हुई। ऐसा सोच सुनयना हवेली की ओर हो ली।
 
हवेली आ दबे कदमों से सीधा देवांश के कमरे का ही रुख हुआ। देवांश को अपने कमरे में ही बैठा देख उसका मन जाने कैसा-कैसा हो आया। देवांश की पीठ दरवाजे की तरफ थी, इस कारण से सुनयना का आना शायद भांप न पाया। सुनयना वापस चलने को हुई, मगर मन में खूब लड़ लेने का जो मन बना तो उसके बढ़ते कदम रुक गए। 
 
कमरे में आ देवांश की मेज का रास्ता लिया। झाड़न से साफ रखी मेज फिर से साफ करने लगी। 'जो किसी को फुरसत नहीं मुझे संदेशा तक भेजने की तो मुझे भी कहां फुरसत हुई है।'
 
जो देवांश चुप बना रहा तो सुनयना के लिए इतना काफी हुआ।
 
'क्या काम कुछ ज्यादा हुआ है। मुझसे दो बोल बोल लेने की भी सुध न हुई। इतना गुमान क्या आया आपको? दो दिन के गए दो बोल भी भारी हुए हैं आपको।' 
 
देवांश का वैसा ही शांत बैठा रहना सुनयना को बींध गया अंदर तक। 'क्या बिलकुल बात न करने का मान लिए बैठे हैं। मैं तो कल से...' आगे का सुनयना बोल न पाई।
 
'तो न करो मुझसे बात', देवांश बाबू की आवाज भीगी सी थी जिसे सुनयना रूठना ही समझी। अब तक यही बचपन वाला रूठना-मनाना ही तो चला था दोनों के बीच।
 
'जानू तो ऐसा क्या हुआ दो दिन में? परसों तो द्वार तक आकर मुझसे मिलना नहीं किया आपने? आए थे न मेरे घर?'
 
देवांश की चुप्पी रही थोड़ी देर तक फिर कह उठा, 'हां, आया था तुम्हारे घर, पर तुम्हें तो देखने कोई बाबू आए थे। बात पक्की हो गई क्या?'
 
सुनयना ठगी सी खड़ी ही तो रही।
 
सुनयना को इस बात की जरा खबर न थी।
 
'कब आना हुआ उन लोगों का? आपको कैसे खबर लगी?'
 
जो देवांश ने बताया कि 'उन लोगों ने जाते से उसी से रास्ता पूछा था दिवाकर बाबू के घर का', तो हंसकर दोहरी हो गई सुनयना।
 
'अरे! बाबू भाई, वो तो कुएं वाले दिवाकर बाबू का पता ले रहे होंगे जिनको आपने मेरे घर का रास्ता दिखा दिया। उनकी बेटी ब्याहने लायक जो हुई है।'
 
'तो क्या तुम ब्याहने लायक नहीं हुई?' देवांश ने गहरी नजरों से सुनयना को देख कहा।
 
देवांश का यूं कहना सुनयना के लिए नई बात थी। कभी तो देवांश ने इस तरह की बातें नहीं उठाई थीं।
 
'धत्' कह सुनयना जाने को जो पलटी तो देवांश ने उसकी कलाई थाम ली। 'जवाब देने की बात हुई है, उसके बिना तुम्हारा यहां से जाना न होगा।'
 
लाज से दोहरी हो गई सुनयना। 'ये क्या? शहर जा यही सब सीख आए क्या आप?'
 
देवांश ने उसका हाथ छोड़ दिया और हौले से हंस दिया।
 
'हंस क्यों पड़े? मैंने ऐसा अनोखा क्या सुनाया आपको?'
 
'मैं तो यूं ही चुहल कर रहा था। मालूम होता इतना बुरा मानोगी तो न करता।' 
 
'वाह बाबू, आपका भी कमाल हुआ। मेरा हाथ अभी तक दुखता है। और आपकी चुहल हुई। इतना जोर से हाथ पकड़ता है क्या कोई? मैं जो आपका हाथ पकड़ मोड़ दूं इतनी जोर से फिर भला देखूं कैसा लगता है आपको?
 
देवांश ने अपने दोनों हाथ आगे कर दिए, 'कौन सा मोड़ना है? कहो तो।'
 
'छि:' कह सुनयना तेजी से वहां से भाग गई।
 
पीछे देवांश खड़ा देखता रहा सुनयना को जाते।
 
सुनयना के लिए देवांश का ये रूप नया था। एकदम तो समझ से बाहर।
 
उसी दिन शाम के समय एक बग्घी दिवाकर बाबू के दरवाजे रुकी। सुनयना ओट में हो ली। वैसे भी इधर अजनबियों से मिलने में उसे खूब झिझक आने लगी थी। बग्घी से दिवाकर बाबू के परम मित्र दास बाबू और उनका बेटा सजल उतरे। एकबारगी बग्घी और उससे उतरे लोगों से उनके खूब तो अमीर होने का आभास हो चला था। दिवाकर बाबू तो संकुचित हो उठे।
 
मां का परदा था इस कारण से सामने आना न हुआ। उनको देख मां के मन में एक नई चिंता चढ़ आई। महीने का आखिर। कहां से मेहमानों की संभाल होगी? भंडारे की टोह ले आई थी। खींच-खाचकर तीनों का ही पूरा पड़ता था।
 
पर मां सुघड़ गृहस्थन थी। साड़ी के छोर में बंधे रुपए देखे और सुनयना को आवाज दी, 'जा री, परचून की दुकान से ये सामान ले आ। पास से शाक-भाजी भी ले आना। दो तरकारी से कम परोसना न होगा। अभी के खाने में मच्छी देना होगा नहीं। भात देखकर लाना। भात तो अच्‍छा हो।'
 
दिवाकर बाबू दोनों को बैठकखाने में लिवा ले गए थे। बीच में दो बार रसोई के चक्कर लगा लिए थे। सब ठीक होने से आराम लगा।
 
सारा खाना अच्छे से हो गया। पान के बीड़े भी बैठकखाने पहुंच गए। तब दिवाकर बाबू ने आवाज दी सुनयना को।
 
'बेटी आ तो', सजल से ही बात कर ले। हम लोगों के बीच फंसा है।' 
 
सुनयना मन न बना पाई, जाए या न जाए, पर बाबा की बात का निरादर न हो पाएगा।'
 
अपने को ठेलती किसी तरह वह बैठकखाने में पहुंच ही गई।
 
दिवाकर बाबू ने छुटते ही कहा, 'वहां पैर क्यों जम गए तेरे? यहां तो आ।'
 
सुनयना कमरे में आई तो एकसाथ चार जोड़ी आंखें और उठ गईं उसकी ओर।
 
दास बाबू स्नेह से बोल उठे, 'बहुत रूप पाया बिटिया ने।'
 
सुनयना तो एकदम संकोच से गढ़ गई। मुंह उठा ऊपर की देखना ही न हुआ। नहीं तो देख पाती कि एक जोड़ी आंखें उसे ही ताक रही थीं।
 
इतना ध्यान अपनी ओर होने से सुनयना असहज हो उठी। दो-चार बातें जो दास बाबू की तरफ से हुईं तो काम का बहाना ले जल्दी से बाहर हुई वह बैठकखाने से। कब तो इन लोगों का जाना होगा? ऐसी सोच बनी सुनयना की।
 
दूसरे दिन खाना खाकर दिवाकर बाबू ने सुनयना से सजल को गांव दिखा देने की बात कही। दास बाबू यहां जमीन खरीद लेने का मन बनाकर आए थे। गांव से जुड़ना हो जाएगा और जमीन भी अपने नाम की हो जाएगी।
 
ये वो दौर था जब जमींदारों के ज्यादातर अधिकार सरकार ने खत्म कर दिए थे। इस मौके का पूरा फायदा उठा लेना चाहते थे दास बाबू। यही सब बात करने की गरज से दिवाकर बाबू और दास बाबू हवेली की ओर बढ़ चले।
 
इधर मां को चैन कहां? दिवाकर बाबू की तो बुद्धि ही हर ली किसी ने। बड़ी होती लड़की को किसी के भी साथ कर देने की सुविधा कैसे हुई? गांव वाले दस बातें बनाएंगे और उनका निपटारा मुझे ही करना होगा। ऐसा कुछ सोच पड़ोस की लड़की को भी दोनों के साथ कर दिया।
 
ये नई व्यवस्था सजल को बिलकुल न भाई। सुनयना को पहली नजर में पसंद जो करने लगा था।
 
सारा गांव-चौबारा दिखा लाई सुनयना, सजल को। अपनी आदत के अनुसार दोनों के बीच खूब बातें, हंसी-ठिठौली चलती रही। सजल मन का अच्‍छा था। बात करने की कला भी खूब आती थी।
 
दो दिन का दास बाबू और सजल का रहना हुआऔर दो दिन ही सुनयना का देवांश के यहां जाना न हुआ।
 
सुनयना के घर आए मेहमानों की खबर देवांश को हो चुकी थी। सजल को सारा गांव घुमा देने की बात भी पता चल गई थी देवांश को।
 
तीसरे दिन सुनयना देवांश के घर जो गई तो देवांश का दो दिन पहले का वो रूप एकदम बिसर गया था उसके मन से। एकदम उत्साह से भरी बचपन की तरह ही देवांश को हर बात बता देने को आतुर।
 
देवांश ने सुनयना का इतना खिला रूप देखा तो वह भीतर तक जल उठा।
 
उत्साह से भी सुनयना सब कुछ बता देने को उपस्थित हुई। 'मालूम हो देवांश बाबू, शहर से जो मेहमान आए थे, वो कितनी तो बड़ी बग्घी में आए थे' और भी जाने क्या-क्या बोलती जाती, जो देवांश का बीच में ही टोका हो गया, 'कितनी तो बड़ी बग्घी होने की खुशी है। मालूम होता है शहर वाले बाबू कितने तो अपने हो गए। उनके आगे हमारी तो क्या बिसात?' 
 
सुनयना का उत्साह धूमिल पड़ गया। 'यू कैसे बोल दिया आपने। मैंने तो बात ही बतानी चाही। आपको सुनने की सुध न हो नहीं बताऊंगी।'
 
'दो दिन से आना तभी न हो पाया', देवांश का मन टूटा जाता था। अपने से अलग सुनयना को किसी और के साथ देखना देवांश को बिलकुल न भाया था। क्या कभी सुनयना उसका मन जान पाएगी?
 
सुनयना सब जान-सुन ये तय नहीं कर पाई कि जाए या रुके? जो एकदम से जाने का बोल दिया तो देवांश को उसे कुछ और कठोर सुनने को मिल जाएगा। तब से लड़ने का ही मन बना है।
 
'जो कुछ कहने-सुनने को नहीं है तो मैं जाती हूं', सुनयना बोल उठी। दो बार देवांश का ये विचित्र व्यवहार क्यों बना है? ऐसा उसकी सोच से परे था।
 
'जो मन शांत हो तब आऊंगी, बात करने', सुनयना बोल उठी।
 
देवांश का उसे रोकने या कुछ और कह देने का भी मन नहीं बना। चोट गहरी लगी तो मन भी गहरा हो उठा। सुनयना चली गई। काफी देर तक देवांश वहीं बना रहा। जाने क्या-क्या मन में उमड़ता-घुमड़ता रहा।
 
अगले दिन सुनयना का मन ही नहीं रमा देवांश के यहां हो आने को। हर वक्त तो हर बात की सफाई देना जरूरी नहीं जान पड़ता। पहले तो कितना ही अच्‍छा था। एक-दूसरे को खूब कह-सुना लेने का होता था फिर दोस्ती हो जाती। मगर इधर तो देवांश का कुछ मन ही नहीं बनता कुछ कहने को। मन में ही रखने से कैसे तो जान पाऊंगी कुछ? 
 
देवांश का जो सुनयना से गहरा लगाव हो चला था, इसकी खुद देवांश को भी कहां खबर थी। तब तक जब तक सुनयना के विवाह की सोच आई थी उस दिन। तभी न उसे पता लगा कि सुनयना केवल बचपन की दोस्त ही तो नहीं रह गई है उसके लिए? उससे ऊपर का कोई स्थान बना है उसके लिए मन में।
 
अपने ऊपर जो सारी संभाल रख ली थी, देवांश में उससे सोच का विस्तार हुआ था। सुनयना से ये लगा‍व की इति कहां से होगी, ऐसी सोच से ही वो बेचैन हुआ था। तभी न सारा गुस्सा सुनयना पर आता था।
 
बाबा का शरीर इतना साथ न देता था। देवांश पर ही पूरी तरह निर्भर बने थे, तब भी देवांश क्या उनके मन से अलग कुछ कर पाएगा? समाज की सोच क्या बनती है, इसकी उसे परवाह न थी।
 
बाबा का जो सामाजिक स्तर था, वहां सुनयना कहीं स्थान न पाती थी। देवांश को कोई रास्ता सूझ पड़ता हो, ऐसा भी कहां दिखाई पड़ता था।
 
जमींदार परिवार के इकलौते लड़के के लिए जिस गति से रिश्ते आने थे, वैसे ही देवांश के लिए आते थे। अभी तक देवांश की सोच ही न बनी थी। इधर सुनयता के लिए सजल का रिश्ता आ गया था।
 
सुनयना को देवांश के मन की खबर न थी और देवांश कुछ कर न पाने की बेचैनी के बीच जीता था।
 
देवांश को तो सुनयना से गहरा लगाव हो गया था। उस रिश्ते को समाज कितना तो मान्यता देता। समाज की बिसार भी दे तो बाबा कहां तैयार होते इस रिश्ते को। खेलने-खाने और रिश्तेदारी जोड़ लेने में पड़ाव कितने तो थे पार पाने को। देवाशीष बाबू के मन के खिलाफ जाना न हो पाएगा देवांश से। मगर मन से तो हारा था, सब कर गुजरने की भी सोच हुई थी। गरम खून था न।
 
सुनयना का दूसरे दिन आना हुआ। ज्यादा दिन होने से क्या रूप दिखे देवांश का। जाने आज भी क्या कुछ सुन लेने को मिले। विचार जो ऐसा हुआ तो देहरी पर ही पैर लरज उठे सुनयना के। काफी देर तक देहरी पर ही बनी रही, भीतर चले जाने का मन नहीं बना पाई।
 
देवांश का उधर आना हुआ तो देहरी पर सुनयना को देख उसका मन पसीज उठा। पीछे कितना कुछ सुना दिया।
 
'भीतर आ जाओ, दरवाजे पर ही क्यों बनी हो', देवांश के इतना कह देने भर से सुनयना को सहारा हो गया। तुरंत भीतर हो ली।
 
उसे चिढ़ा देने की गरज से देवांश बोल उठा, 'कल तो दूसरे गांव जाना होगा। पुजारीजी की नजर में दूसरे गांव की एक लड़की आई है। देख आऊं? पसंद आने से बात पक्की ही कर लेनी होगी।'
 
ये आज नया विचार कहां से आया? मन कुछ टूटा तो सुनयना का। देवांश की ब्याहता आएगी, ऐसा तो मन ही नहीं बना अभी तक।
 
देवांश देख पा रहा था सुनयना के भीतर का उथल-पुथल। क्या अब सुनयना उसका मन पकड़ पाएगी?
 
सामने सुनयना का इतना ही बोलना हुआ, 'हां, आपका जाना तो होना चाहिए। गृहस्‍थी बसा लेने की उमर जो हुई है।'
 
देवांश का मन ये बना कि कह ही दूं कि जिसके साथ गृहस्थी बसाना चाहता हूं उसका तो विचार ही नहीं बनता, ऐसा कर लेने को।' 
 
जो देवांश को इस पल जरा भी खबर होती कि सुनयना के लिए सजल का रिश्ता आया है तो इस वक्त वो ये बात उठाने का कभी न सोचता।
 
देवांश ने तो सुनयना को परख लेने का ही मन बनाया था। सुनयना से अलग किसी और का सोचना उससे न हो पाएगा। इस करके दूसरे दिन दूसरे गांव हो आने का ही मन बना लिया देवांश ने।
 
दोनों को जरा भान न था इस बात का कि नियति क्या खेल खेल रही हैं दोनों के साथ।
 
सुनयना के लिए सजल का रिश्ता आना सुनयना के मां-बाबा के लिए बड़ी बात थी। कहां तो ढूंढ पाते वे ऐसा घर। सामने से आए इस रिश्ते को ठुकराना भी तो किस बिना पर होता? मां-बाबा का मन पक्का हो गया था इस रिश्ते को लेकर। सुनयना को बता भर देना था।
 
सुनयना आई तो मां उसे बता देने को उत्सुक हो उठी। बता देने से सुनयना को कोई बहुत खुशी हुई हो, तो ऐसा दिखा नहीं। मां-बाबा तो शर्म जानकर ही मौन रह गए। 
 
सजल अच्‍छा तो था, पर बहुत मन रमा हो उससे, ऐसा उसे जान नहीं पड़ा। पर अब तो देवांश बाबू भी अपने ब्याह का सोच बैठे हैं तब वो ब्याह न करने का कारण भी क्या देगी। मान भी चढ़ उठा देवांश का अगर अपने ब्याह का सोच बैठे हैं तो वो क्यों नहीं? 
 
अब और मनाना न हो पाएगा उससे।
 
रात को सुनयना से कुछ बोलते न बना। रातभर सोचना हुआ उसका। अब तक छोटी-छोटी बातें भी देवांश को बताए बिना हटती न थी। मगर अब जो देवांश ही उससे पराया हुआ है तो सारा भार उसको ही लेना होगा।
 
सुबह उठ हां कह दी उसने मां-बाबा को। मां-बाबा जो रुके थे इस बात को। पूरी होने से बाबा भोर होते ही शहर को चल दिए। सब कुछ पक्का कर लेने को। अब पीछे हटना न होगा सुनयना का।
 
देवांश को कुछ बता न पाने की कसक मन में बसी थी। अब हर कुछ देवांश को बता देना न हो पाएगा। दूसरे घर जाना और पति-परिवार में रमना होगा।
 
देवांश का सांझ तक आना हुआ वापस। सुनयना को दिनभर सता लेने का जो दंभ लिए फिरता था, वो जल्द ही तिरोहित होना था। सुनयना का सांझ आना न हुआ। मां की रोक थी, 'किसी की ब्याहता होने जा रही है। अब तेरा यूं बार-बार हवेली जाना ठीक न होगा।'
 
दूसरे दिन सवेरे ही सुनयना का देवांश के घर जाना हुआ। देवांश को जो दंभ बसा था, सुनयना को हैरान-परेशान करने का, उसे वो सुनयना के चेहरे पर भी देख लेना चाहता था। 
 
जो सुनयना का चेहरा वैसा ही बना तो देवांश की यही सोच बनी कि सुनयना को सबक मिल गया होगा। सुनयना देहरी पर ही ठिठक गई। देवांश के कहने पर भी भीतर आना न हुआ उसका।
 
देवांश को यही भान हुआ कि कुछ ज्यादा कठोर हुआ है वो सुनयना से। इतना दु:ख देने की सोच नहीं बनी थी उसकी। बहुत प्यार हो उठा, 'आज वहीं क्यों ठिठकी हो? अंदर चले आने में इतनी असुविधा क्यों?'
 
'अब से अंदर आना न हो पाएगा', सुनयना बोल उठी।
 
देवांश हंस दिया, 'अरे! मुझे लड़की बिलकुल भाई नहीं। ऐसी क्यों नाराज हो उठी?'
 
'बाबा मेरा ब्याह पक्का करने शहर गए हैं।' जो सुनयना ये बोली तो देवांश की यही सोच बनी कि वे भी हंसी-ठिठोली ही करती होगी।
 
देवांश हंस दिया, 'इतना मजाक होने से काम कैसे होगा? इतना रूठना क्यों हुआ?'
 
'आपका मजाक करना महंगा हुआ देवांश बाबू। बाबा सच ही मेरा ब्याह तय करने शहर गए हैं।'
 
देवांश का हंसना एकदम तो रुक गया। कुछ देर उसे भान ही नहीं रहा कि क्या कहे? 
 
कुछ देर चेतना आने पर सुनयना से पूछ ही बैठा, 'मेरा जाना तो एक दिन का ही हुआ। उसमें ही सब तय कैसे तो हुआ? आगे से मेरा कोई मजाक न होगा। मगर ऐसा कुछ तुम्हारी तरफ से भी कहना न होगा।'
 
सुनयना को सब सुन आघात ही लगा। जो मेरे लिए ऐसी सोच ले आई थी, तो बोलना ही कर देते। अब तो बात बिगड़ गई। जो दो बोल ही बोलने न पाए तो अब क्या हो पाएगा?
 
'बात तो तभी न हो गई थी, जब शहर से दास बाबू का आना हुआ था। बात उनकी तरफ से हुई थी। बाबा का मेरी 'हां' के लिए ही रुकना हुआ था। जो कल आप लड़की देखने का सोच बैठे तो मैंने भी बाबा को हामी दे दी।'
 
देवांश का मन बहुत भारी हो उठा। उसका जो दंभ हुआ वो उसे ही ले डूबा। एक बार हां कहने से पीछे हटना न होगा, ये देवांश को खबर थी। खो तो दिया उसने सुनयना को। बस, एक दिन का अंतर हुआ और उसका सारा सब खत्म हुआ।
 
प्रकट में इतना ही कहना हुआ, 'तुम ब्याह कर अच्‍छे घर जाती हो, बहुत खुश रहना। कोई सोच न रखना यहां की। अब तुम जाओ। मेरे कारण कोई तुम्हें कुछ कहे तो मुझे नहीं भाएगा।'
 
देवांश ने पास आ सुनयना के सिर पर हाथ रख दिया। 'अब जाओ'।
 
सुनयना की आंखें सजल हो उठीं। जाने फिर कब देखना हो? देवांश का साथ आज से छूटा।
 
उसकी आंखों के आंसू देवांश न देख पाए, ऐसा सोच सुनयना वहां से भाग गई।
 
इस बात को तीन महीने होने को आए। देवांश‍ दिन-रात एक किए था ब्याह की तैयारियों में। आज उसकी सुनयना की डोली जो उठनी है।
 

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