Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

कहानी : मानवता का एक दिन?

हमें फॉलो करें कहानी : मानवता का एक दिन?
-प्रवीन शर्मा
 
पूजा घर से मंत्रों के उच्चारण की मधुर ध्वनि पूरे शर्मा निवास में गूंज रही थी। शर्माजी कुंआरी कन्याओं को दान-दक्षिणा प्रदान कर रहे थे। घर में बड़ा ही खुशनुमा माहौल था, क्योंकि अभी तक शर्माजी के पुत्र, जो कि सबके दुलारे हैं, 'काव्य'जी सोकर नहीं उठे थे। पूरे मोहल्ले में मशहूर थे काव्यजी अपनी जान से भी प्यारी स्वप्नभरी नींद के किस्सों के लिए।
 
 
पिछले 9 सालों में एक भी दिन ऐसा नहीं गया था कि जिस दिन काव्य ने अपने पलंग का साथ जल्दी छोड़ दिया हो। छुट्टी वाले दिनों में पूरा दिन वे स्वप्नों की दुनिया में ही निकाल देते थे। छोटी सी उम्र में ही बड़े मशहूर हो गए थे। लोग शर्माजी को भी 'काव्य के पिताजी' के नाम से जानते थे।
 
वैसे तो इनकी नींद के किस्से बहुत थे, पर सबसे ज्यादा मशहूर था स्टोर रूम वाला किस्सा। एक बार भाई साहब विद्यालय जाने की जगह स्टोर रूम में जाकर अपनी नींद से मिल लिए। उस दिन पूरे मोहल्ले के हर कोने पर बस उनकी नींद की ही बातें चल रही थीं। उस दिन के बाद से आज तक उनको अकेला नहीं छोड़ा गया।
 
'काव्य, काव्य, उठो बेटा। पिताजी के साथ दुकान नहीं जाओगे क्या?' मां ने काव्य को उठाते हुए कहा।
 
'सोने दो मां, मैं क्यों भला दुकान जाने लगा। और आज छुट्टी वाले दिन तो ऐसी अपमानजनक बातें न ही बोलो आप। मेरे प्यार को बुरा लगेगा।' काव्य ने मां को उत्तर दिया।
 
फिर क्या था? मां ने झट से काव्य की रजाई ले ली।
 
जनवरी की कड़ाके की ठंड ने अपना काम कर दिया। काव्य झल्लाकर उठा। तेज ध्वनि में बोलते हुए कमरे के बहर बैठे दादाजी के पास जाकर बोला- 'कोई चैन से सोने भी नहीं देता है यहां तो' और रोते-रोते दादाजी को पूरा किस्सा सुनाया।
 
दादाजी के प्यार से समझाने के बाद वह दुकान जाने को राजी हो गया। उन्होंने काव्य को बताया कि आज दुकान में एक अच्छा कार्यक्रम है और वहां अच्छी-अच्छी चीजें खाने को भी मिलेंगी।
 
काव्य की आंखों में एक दुर्लभ चमक-सी थी। दुकान पर स्वादनुमा माहौल था। जिधर देखो उधर स्वादिष्ट व्यंजन तैयार किए जा रहे थे। लगभग हर दुकान पर ऐसा ही दृश्य था। दुकानों के आगे बहुत भीड़ थी। उनमें से कोई ग्राहक न था, पर वे लोग थे, जो वहां पक रहे भोजन से अपना पेट भरने आए थे।
 
जो लोग अपनी दुकान पर कभी निर्धन व्यक्ति को आने भी नहीं देते थे, वे आज उन लोगों को बुला-बुलाकर भोजन करा रहे थे। यह सब देखकर काव्य के मस्तिष्क में सवालों का सागर उमड़ पड़ा।
 
वह दादाजी से अपने सवालों के उत्तर लेने जा ही रहा था कि पड़ोस में खड़े व्यक्ति पर उसकी नजर पड़ी और पूछा, 'गुप्ता अंकल, आज आप यहां कैसे? आपको कोई काम है क्या दादाजी से?' काव्य ने पूछा। 
 
'नहीं बेटा, कोई काम नहीं है। बस आज त्योहार है, तो हमने सोचा कि लाओ थोड़ा पुण्य हम भी कमा लें', गुप्ताजी ने उत्तर दिया।
 
'कमा लें? ये क्या चीज कमाने की बात कर रहे हैं?' काव्य के मस्तिष्क में चल रहे सवालों का ज्वालामुखी अब फटने की कगार पर था। वह बिना समय गंवाए हुए दादाजी के पास गया और एक-एक सवाल बिना रुके पूछ डाले।
 
दादाजी ने काव्य से कहा, 'आज त्योहार है बेटा। आज के दिन सभी लोग दान करते हैं, गरीबों को भोजन कराते हैं, जरूरतमंदों की मदद करते हैं और यह सब करने से हमें जो सुख मिलता है उसे हम पुण्य कहते हैं।'
 
काव्य के मस्तिष्क ने इस बात पर भरोसा करने से मना कर दिया। काव्य ने दोबारा सवालों की एक लंबी श्रृंखला को दादाजी के सामने रख दिया। इस बार उसके सवाल आम सवालों की तरह नहीं थे। उसके सवालों को सुनकर सभी का ध्यान काव्य और दादाजी के बीच हो रही बातचीत पर केंद्रित हो गया।
 
काव्य ने पूछा, 'दादाजी क्या दान करने के लिए एक ही दिन पर निर्भर रहना चाहिए? क्या सिर्फ एक ही दिन इन निर्धन-बेसहारा लोगों को भोजन कराना चाहिए? क्या सिर्फ एक ही दिन इन लोगों को भूख लगती है? काव्य ने बड़ी मासूमियत से पूछा।
 
कितनी सरलता से इस 9 साल के बालक ने अपने सारे सवाल बोल दिए, जो कि उसके लिए बहुत ही आसान थे, परंतु दादाजी के लिए उन सवालों का उत्तर देना उतना ही कठिन था।
 
दादाजी ने काव्य को अपने पास बैठाया और उसको समझाया कि पूर्व काल में लगभग हर रोज हम भारतीय त्योहार मनाते थे। त्योहारों को मनाने का उद्देश्य था खुशिया बांटना और खुद अपनी समस्याओं को भूलकर खुश रहना। हमारे पूर्वजों ने बड़े कौशल से से एक मनुष्य की जिंदगी को सुखी बनाने का प्रयत्न किया था।
 
प्रत्येक व्यक्ति की जिंदगी में सुख-दु:ख आते-जाते रहते हैं। हम दु:ख भूलकर अच्छे ढंग से अपनी जिंदगी का निर्वाह कर सके, उसके लिए 'त्योहार' शब्द प्रचलन में लाया गया। यह जरूरी नहीं कि आप अपने स्तर के लोगों के साथ ही त्योहारों का आनंद लें या सिर्फ अपने समुदाय के लोगों के साथ ही उत्सव मनाएं बल्कि हमें अपने आस-पास के सभी लोगों को खुश रखने का प्रयत्न करना चाहिए। पूर्वजों ने हमें सिखाया है कि हमें जब भी मौका मिले, दूसरों की सहायता जिस भी स्तर तक हो सके, करनी चाहिए और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सामने वाले को हमारी वजह से कोई दु:ख न पहुंचे।
 
दादाजी की इन बातों को सुनकर काव्य ने दोबारा पूछा- 'क्या आजकल के लोग ऐसा करते हैं?
 
दादाजी ने उत्तर में जवाब दिया- 'आज के समय में सभी धर्मों को मिलाकर छोटे-बड़े लगभग 135 त्योहार हैं और सभी धर्म हमें यह सिखाते हैं कि हम अपने से छोटे, बेसहारा व गरीब व्यक्ति की सहायता करें। परंतु आज के समय में लोग इंतजार करते हैं कि कब पुण्य कमाने का दिन आए और तब हम यह सब काम करें।

आज की ही बात ले लो, आज इतना बड़ा दिन है। हर दुकान पर भोजन बन रहा है। यदि सब एकसाथ एक ही दिन भोजन न बनाएं बल्कि यह निश्चित कर लें कि प्रत्येक दिन 3 दुकान वाले मिलकर भोजन तैयार करवाएंगे और गरीब, लाचार और उन लोगों को भोजन करवाएंगे, जो कि रुपए कमाने में असमर्थ हैं तो इन सबको सच्चे पुण्य की प्राप्ति होगी। लगभग सभी धर्म, समुदाय उस व्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, जो किसी भूखे व्यक्ति को भोजन कराता है या किसी प्यासे को पानी पिलाता है।
 
यदि ऐसा है तो दादाजी कल जब पड़ोस वाले अंकल के घर एक निर्धन व्यक्ति आया था और वह आकर भोजन मांग रहा था तब तो उन्होंने कल उसको डांटकर भगा दिया था और आज वही यहां आकर गरीब ढूंढ रहे हैं? 
 
दादाजी ने कहा, 'ऐसा दोहरा व्यवहार पाखंड है। इससे बचकर हमें सच्चे मन से गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करनी चाहिए। मानवता एक दिन का उत्सव नहीं, नित्य का कर्तव्य है।'

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

चंद्र ग्रहण की यह है पौराणिक कथा