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स्त्री जीवन की मार्मिक कहानी : खूबसूरत घाव

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तरसेम कौर

एक बड़ा सा आलीशान पुराना घर था। वहां करीब चालीस बरस की एक औरत अपने पति, एक बेटे और एक बेटी के साथ रहती थी। उसके चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान धरी रहती थी। सुंदर सी साड़ी और उससे मैचिंग करती बिंदी और हल्के से गुलाबी रंग की लिपस्टि‍क हर समय उस पर सजी रहती थी। अपनी उम्र की गहरी होती लकीरों को फाउंडेशन की परत से छुपाने की कोशिश करती वह एक चलती-फिरती सुंदर तस्वीर ही लगती थी।

 
घर के छोटे से बगीचे में हरे भरे सुंदर फूलों के पौधे करीने से गमलों में लगे थे। मेन दरवाजे से अंदर घुसते ही भगवान जी की एक सुंदर बड़ी सी मूर्ति स्थापित थी और मोगरा अगरबत्ती की खुशबू का झोंका यकायक सांसों को महकाने लगता। एक कोने की तिकोनी मेज पर ताजे अखबार और पत्रिकाएं थीं। दूसरी ओर शेल्फ पर रखी हुई आधुनिक फ्रेमों में जड़ी कुछ तस्वीरें बड़े ही सलीके से रखी थीं। उस बड़े से हाल में से एक दरवाजा किचन की ओर खुलता था, जहां सलीके से रखे बर्तन और वहां की साफ-सफाई उस औरत की सुघड़ता को दिखला रहे थे। सामने वाली दीवार पर एक बड़ी सी पेंसिल स्केच वाली एक ड्राइंग फ्रेम में लगी बड़ी प्यारी लग रही थी और उसके कोने में उस औरत का नाम लिखा था। 
 
अपने हाथ में एक कपड़ा लिए वह डायनिंग टेबल पर रखी प्लेटों को पोंछ कर सजा रही थी। सलाद की प्लेट को सजाना और फलों को फ्रिज से निकाल कर टेबल के सेंटर में रखना। यह सब काम हो रहे थे कि अचानक से उसके मोबाइल की बेल बजी और उसने झट से बोला, " हैलो "........." पर मैंने तो खाना बनाया है" ........और फोन कट गया। फिर उसके चेहरे पर थोड़े मायूसी के बादल आए पर दूसरे ही पल वह सहज हो गई, क्योंकि बच्चों के स्कूल से वापिस आने का समय था।
 
इसी दिनचर्या में से समय निकालकर वह औरत बाहर भी जाती - बच्चों की किताबें लेने, साहब की पसंद की सब्जियां लेने, घर को घर बनाए रखने का सामान लेने। स्कूल से लौटते अपने बच्चों को दोनों बांहों में भर लेती और बच्चों के साथ पति का इंतजार करने लगती। बच्चों की आंखों में अपनी मासूम मांग के पूरे होने की चमक होती कि मां दिनभर कहीं भी रहे, पर उनके स्कूल से लौटने से पहले उन्हें घर में उनके पसंदीदा खाने के साथ मां हाजिर मिलनी चाहिए। यही हिदायत पति जी की भी थी।
 
यह सारी दिनचर्या एक घर की रहती ही है आमतौर पर। और हर दूसरी औरत के पूरे दिन की कहानी भी यही रहती है। पर उस औरत की एक बड़ी मुश्किल थी कि उसकी अपनी हंसी, जो कभी खिलखिलाहट से गूंजती थी, वह नदारद थी उसके चेहरे से। जो संतुष्टि के भाव होते हैं, वे उसकी फाउंडेशन की परत के नीचे कहीं दबे थे। वह ढूंढती थी अपनी वह हंसी, पर नहीं मिलती थी वह उसे अपने पास।
 
बच्चे, जो अब बच्चे नहीं रहे थे, हंसकर पूछते, "क्या खो गया है मैम? हम मदद करें ?" 
"नहीं, मैं खुद ढूंढ लूंगी।" ...वह अपनी झेंप मिटाती हुई कहती। "यहां, इस कमरे में तो नहीं है न !!!" ...बच्चे शायद उसका मजाक उड़ाते फिर अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो जाते और मां को भूल जाते, पर जब किसी चीज की जरूरत होती या भूख लगती तो मां की याद आती। बेटी जो अब यौवन की दहलीज पर खड़ी थी, पूछती, " हे मम्मी,  जस्ट चिल् ..!!!!" , तब लगता कि आज की ये पीढ़ी कितनी सहजता से बातों को कह लेते हैं, और एक हम हैं कि अपने इमोशनल मन के चक्रव्यूह में ही फंसे रह जाते हैं।
 
ऐसे ही चक्रव्यूह में फंसी वह औरत, जो एक सहज हंसी नहीं हंस पाती थी, उसे लगता था कि वह एक मुखौटा ओढ़े रहती है हर पल। अपनी बहन से बात करते हुए, अपनी सबसे प्यारी सहेली से भी वह अब वैसी सहजता महसूस नहीं करती थी, मन खुल नहीं पाता था उसका। कुछ था, जो उसे खुश होने से रोकता था।  
 
शाम हुई और बच्चे घर से बाहर खेलने निकले तो वह चुपचाप अपने कमरे में गई। साड़ी उतारी और अपने ब्लाउज की दाहिनी बाजू को जरा-सा खिसकाया और सामने की टेबल पर रखी बेटनोवेट की स्किन क्रीम को दाहिने कंधे पर दिख रहे गहरे लाल रंग के बड़े से निशान पर मला और वापिस ब्लाउज को ठीक से पहन कर दोबारा साड़ी ओढ़ ली, फिर से थोड़ा फाउंडेशन लगाया और पलकों के कोनों पर जो नमी आ गई थी, उसे पोंछा और आंखों को अच्छा दिखाने के लिए काजल का एक स्ट्रोक लगा लिया। फिर से वही गुलाबी रंग की लिपस्टिक लगाई और अपने होठों पर एक मुस्कान को भी सजा लिया।
 
तो क्या यह एक घाव था जो उसे हंसने से, खिलखिलाने से रोकता था ? शादी के अट्ठारह सालों में जाने कितने ऐसे घावों को वह छुपा-छुपा कर रखती रही है, चुपके से मलहम लगा कर एक झूठी मुस्कान सजाकर सहज होने की कामयाब कोशिश करती रही है।  शरीर के घाव तो वह बेटनोवेट लगाकर भर लेती थी पर उसकी आत्मा पर जो जख्म थे, उनके लिए कोई दवा नहीं थी। वह रिसते थे, दर्द भी करते थे पर दिखते नहीं थे किसी को भी।
 
रात को जब बच्चों का खाना निपट गया, तो पतिदेव की कार का हॉर्न सुनते ही वह लपक कर दरवाजा खोलने गई,  "आज कुछ ज्यादा काम था ? " ....थोड़ा हिचकिचाहट के साथ पूछा। कोई जवाब नहीं। पत्नी का दिन कैसे बीता, बच्चों की पढ़ाई की कोई चिंता नहीं। एक सुघड़ पत्नी के होने का यही आराम रहता है जीवन भर पतिदेव जी को। खैर, फिर से रात का वह पल आया जब पतिदेव का हाथ उस औरत के शरीर पर चलना शुरू हो गया। उस घाव पर भी गया तो एक आह के साथ उस औरत ने मुंह मोड़ लिया। वह घाव अभी दो दिन पहले का ही तो था। थोड़ी देर में फिर वही खींचातानी। वह औरत अपनी दबी सी आवाज में सिसक रही थी पर पतिदेव को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह खींचातानी ज्यादा देर तक नहीं चल पाई क्योंकि बिल्कुल साथ वाला कमरा बच्चों का था । वह रात एक और नया घाव छोड़ गई थी उसकी आत्मा पर और शरीर के घाव को और गहरा गई थी ।
 
सुबह अलार्म बजा। रसोई में से आवाजें आने लगीं । " बच्चों .....चलो उठो, स्कूल के लिए देरी हो जाएगी । ....आप भी उठिये चाय बन गई है ।".....वह औरत एक सुंदर सी साड़ी पहने, धुले लंबे बालों को समेटती चाय का कप लिए बेडरूम की तरफ चली गई ।

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