Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

वैसे तो तेरी ना में भी मैंने ढूंढ़ ली अपनी ख़ुशी

हमें फॉलो करें वैसे तो तेरी ना में भी मैंने ढूंढ़ ली अपनी ख़ुशी

सुशोभित सक्तावत

आनंद एल. राय ने यूं तो पांच फ़िल्में बनाई हैं, लेकिन पिछले आठ साल में उनके द्वारा बनाई गई तीन फ़िल्मों ("तनु वेड्स मनु", "रांझणा", "तनु वेड्स मनु रिटर्न्स") ने उन्हें अभी काम रहे शीर्ष निर्देशकों की पांत में लाकर खड़ा कर दिया। आनंद की फ़िल्मों में एक ख़ास "प्रविंशियल इडियम" होता है। कानपुर, लखनऊ, कपूरथला, बनारस, झज्जर और दिल्ली के उपनगरों के अनेक ब्योरे उनकी फ़िल्मों में सजीव हुए हैं। और उनके पास हिमांशु शर्मा जैसा ब्रिलियंट राइटर है, जिसकी क़स्बाई मुहावरे पर गहरी पकड़ है और जो हमेशा धारदार संवादों के सामने हमारे सामने उपस्थि‍त होता है। आनंद की सबसे अच्छी फ़िल्म है वर्ष 2011 में आई "तनु वेड्स मनु"। यह एक "डिलाइटफ़ुल" फ़िल्म है और माध्यम पर वैसा नाटकीय अधिकार फिर आनंद नहीं दिखा पाए हैं। सुना है, उनकी अगली फ़िल्म में शाहरुख़ ख़ान होंगे। पता नहीं, इस एक तथ्य के कारण वे अपनी धुरी से और विचलित तो नहीं हो जाएंगे। क्योंकि छोटे कलाकारों के साथ बड़ा काम करना आनंद का अभी तक का शगल रहा है।
उसी "तनु वेड्स मनु" का यह लोकप्रिय गीत है, कइयों के फ़ोन और कंप्यूटर में बहुधा "रिपीट मोड" में बजने वाला :
"कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े"
 
क़िस्सा-क़ोताह यह है कि लंदन से लखनऊ और लखनऊ से कानपुर पहुंचे मनु शर्मा को तनूजा त्रिवेदी को देखते ही उससे प्यार हो जाता है, जबकि तनु तो होश में भी नहीं थी। नशे में धुत्त पर अपने कमरे में सोई हुई थी। उसकी उस निद्रोन्मीलित छवि पर ही शर्माजी रीझ जाते हैं।
 
पुरुष कब स्त्री की किस एक छवि पर रीझ जाएगा, इसका कोई हिसाब नहीं है। बहुधा स्त्री को इस पर अचरज भी होता है कि भला बात क्या थी, लेकिन उसकी एक मुस्कराहट, एक हरक़त, एक "जेस्चर" पुरुष को रिझाने के लिए पर्याप्त होता है, जबकि स्त्री, मुग्धा और परकीया भी हो तो, रीझने में इतनी शीघ्रता कभी नहीं करती। स्त्री पर रीझ जाना पुरुष का धर्म है। शासन करना या शास्त्र रचना उसका धर्म नहीं, स्त्री पर आसक्त होना उसका धर्म है। दूसरी तरफ़, अपनी आसक्त‍ि को यथासंभव स्थगित करते चलना स्त्री की नियति है। इसी के चलते प्रेम में बहुधा स्त्री और पुरुष एकसाथ चरम पर नहीं पहुंचते हैं और जब तक स्त्री प्रेम के लिए मन बनाती है, तब तक पुरुष स्वयं को उलीच चुका होता है, वो एक दूसरी कथा है। सनद रहे कि बेसुध स्त्री के प्रेम में पड़ जाना इतना भी आश्चर्यजनक नहीं है। यह पर्याप्त शास्त्रोक्त है। जयशंकर प्रसाद की कहानी "पुरस्कार" में अरुण को भी मधूलिका से वैसे ही प्रेम हो जाता है : "अरुण ने देखा एक छिन्न माधवीलता वृक्ष की छाया से च्युत होकर पड़ी है। अरुण ने अपने अश्व को मौन रहने का संकेत किया, किंतु कोकिल बोल पड़ी। छि:, कुमारी के सोये सौंदर्य पर दृष्ट‍िपात करने वाले धृष्ट, तुम कौन!"
 
तनु ब्याह से इनकार कर देती है, मनु दिल्ली लौट जाते हैं। मन उनका लेकिन तनु में अटक चुका होता है और अब कोई दूसरी लड़की मन को भाती नहीं। कपूरथले में उनके मित्र जस्सी की शादी है। वे शादी में जाते हैं तो तनु वहां उन्हें मिल जाती है। यहां से प्रेम का दूसरा अध्याय शुरू होता है।
 
"तनु वेड्स मनु" और "रांझणा" में आनंद ने एक ऐसे नायक का मिथक रचा है, जो "आत्म-बलिदान" के लिए तत्पर है। "तनु वेड्स मनु रिटर्न्स" में "आत्म-बलिदान" की बारी नायिका की है। तनु के लिए मनु जी उन प्राणियों में से हैं, जिन्हें लड़कियां "भोला" ही नहीं बल्कि "भोंदू" तक समझती हैं। उनकी प्रणय-कथा के संदर्भ में यहां पर एक भोले पुरुष और तेज़तर्रार लड़की का द्वैत बनता है। ऐसे अनेक द्वैत हैं : "सरल लड़की-चतुर पुरुष", "ग्रामीण लड़की-शहराती पुरुष", "नवयौवना-अधेड़", "परिपक्व स्त्री-नवयुवक", "शालीन पुरुष-गर्वीली स्त्री", "गर्वीला पुरुष-समर्पिता" आदि-इत्यादि। ये तमाम प्रेम की संभावनाओं के "समीकरण" हैं। तनु को अभी मालूम नहीं है कि मनु जी के इसी भोलेपन ने आगे चलकर उसका मन जीत लेना है।
उसी पृष्ठभूमि में यह गीत आता है।
 
तनु को ख़रीदारी करने जाना है। वो भलीभांति जानती है कि मनु जी इनकार कर ही नहीं सकते। उधर मनु जी के पास अब खोने को कुछ नहीं है, लिहाज़ा वे अपनी इस हार में "सहज" हो जाते हैं। लेकिन अचरज कि इस बिंदु से भी प्रेम के नए आवेग का जन्म हो सकता है, यह दोनों को ही अभी अनुमान नहीं है। छलनामयी प्रेम!
 
"वैसे तो तेरी ना में भी मैंने ढूंढ़ ली अपनी ख़ुशी" प्रेम अभिमानी होता है। उसके अभिमान के अनेक रूप होते हैं। प्रेम हमेशा प्रेमपात्र को प्राप्त करना चाहता है, लेकिन ठुकराए जाने की स्थिति में वह ख़ुद से कहता है, "तो क्या अब मैं लौट जाऊं? तो क्या मेरा प्रेम स्वार्थवश था? नहीं, प्रेम के बदले प्रेम मिले या नहीं, मैं तो प्रेम करता रहूंगा।" ना में भी ख़ुशी ढूंढ़ लेने की यह जो ज़िद है, यह बहुत "पैशनेट लवर्स" और "अभिमानी प्रेमियों" में ही पाई जाती है। यानी मनु जी ऊपर से जितने निरापद दिखते हैं, भीतर से वे उतने ही व्यग्र हैं, और अंतत: तनु को यह बात समझ लेना होती है।'
 
लिहाज़ा, दोनों का कपूरथले की गलियों में घूमना होता है, चौपाटी में कुल्फ़ी खाना होता है, मीना बाजार से बुंदे और झुमके मोल लेना होता है और इस दौरान रागात्मकता का एक सूत्र दोनों के बीच जुड़ता रहता है। फ़िल्म में ख़रीदारी के दो दृश्य है। पहला, कपूरथले की यह उल्लसित और निरापद ख़रीद। दूसरी, लखनऊ से तनु के लिए लहंगा लेकर आना, जबकि तनु की सगाई तो हो चुकी होती है, लेकिन मनु से मन भी उसका जुड़ चुका होता है। फ़िल्म में दोनों ही अवसरों पर गाने हैं। "ऐ रंगरेज़ मेरे" दूसरे अवसर पर (उस गीत पर पहले लिख चुका हूं), और यह गाना, पहले अवसर पर। दोनों के बीच बहुत कुछ घटित हो चुका है। भूमिगत नदी में अनेक लहरें उठ चुकी हैं। यह प्रेम का "प्रतिक्रमण" है। "रिकरेंस" और "रिवायवल" की उसकी "गति" है।यह पराजय स्वीकार कर चुकने के बाद फिर से "वापसी" है। हार मान लेने की सिफ़त से ही मिली जीत। "ना" में ही ख़ुशी ढूंढ़ लेने की सिफ़त से मिली "हां।"
 
राजशेखर के गीतों पर अमितव सरकार का यह संगीत है, जिन्हें कि "कृष्णा सोलो" के नाम से जाना जाता है। मोहित चौहान की नशीली, "नॉक्चर्नल" और नींद में डूबी हुई-सी आवाज़ है। परदे पर अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में माधवन और कंगना राणावत हैं। इस फ़िल्म तक कंगना को एक "डार्क एक्ट्रेस" माना जाता था। लेकिन "तनु वेड्स मनु" में उसने एक ऐसी शोख़, मुंहफट और सेहतमंद लड़की हिंदी सिनेमा को दी है, जिसका कोई सानी नहीं है। "तनूजा त्रिवेदी" के आकर्षण की गिरफ़्त से छूट पाना बहुधा मुझे मुश्‍क‍िल लगता है और यही इस फ़िल्म का तिलिस्म भी है। "तनु" और "मनु" से बहुत गहरा लगाव है मुझे, बाद में फिर उनकी कहानी में चाहे जितने ही "विषयांतर" क्यों ना उग आए हों।
 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

सनी लियोन... गोरे-गोरे मुखड़े पे काला-काला चश्मा (फोटो)