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एक दो तीन, आजा मौसम है रंगीन: आवारा के गाने में सिनेमाई टटके और मृग मरीचिका की ओर तंजिया इशारे | गीत गंगा

सिनेमा की अपनी व्याकरण है कि आदर्श को स्थापित करना है तो पहले अनादर्श को रंगीन बनाकर पेश करो

हमें फॉलो करें एक दो तीन, आजा मौसम है रंगीन: आवारा के गाने में सिनेमाई टटके और मृग मरीचिका की ओर तंजिया इशारे | गीत गंगा
, गुरुवार, 14 सितम्बर 2023 (12:49 IST)
  • शमशाद की आवाज में खुनक है, ठसक है, मिर्ची-सा तीतपन है
  • मियां एक दो तीन बोलो और कूद जाओ, जीवन की रंगीनियों में
  • शंकर-जयकिशन का संगीत अबाध उल्लास, अटूट जवानी को मादक विस्तार देता है
आज सब जानते हैं कि यह गीत फिल्म 'आवारा' का है, जो सन् 1951 की फिल्म है। उस दौर का हिन्दी फिल्म संगीत मुख्यत: दो भागों में बंटा हुआ था। एक तरफ हिन्दुस्तानी फोक, शास्त्रीय संगीत और गजल-मुजरों की परंपरा पर आधारित देशी गीत आते हैं और दूसरी तरफ पश्चिमी वाद्य संगीत से सजे हुए, पश्चिमी धुनों के क्लब सांग होते थे।
 
इनका मुख्य उद्देश्य था आम दर्शकों का मनोरंजन करना, उनको थिरकने को मजबूर कर देना, अंग्रेजी जीवनशैली से चौंधियाना-ललचाना और उन्हें एक काल्पनिक दुनिया में ले जाना, जहां वे अपनी रोजमर्रा की दुनिया की बेलज्जती, थकान, महरूमियत और कमतरी को भूल जाएं और कुछ पलों की उधार, चमकदार जिंदगी जी लें। फड़कते नृत्य गीतों और लुभावनी ठुमरियों के समानांतर इन क्लब गीतों का लक्ष्य भी श्रोता को कुर्सी से चिपकाए रखना था और कुछ हद तक फिल्म की रिपीट वेल्यू को तैयार करना था।
 
राज कपूर भी इन क्लब गीतों की अनिवार्यता से नहीं बचे। आग, आवारा, बरसात, श्री चार सौ बीस, यहां तक कि जागते रहो तक में उन्होंने क्लब गीत या अंग्रेजी बीट्स के उत्तेजक नगमे रखे। अनाड़ी उनके बैनर की फिल्म नहीं थी फिर भी आप वहां नाइनटिन फिफ्टी सिक्स नाइनटिन फिफ्टी सेवन जैसा गुल गपाड़िया क्लब नंबर पाते हैं। लेकिन राज के ये क्लब गीत मोटे-पतले तौर पर फिल्म की पटकथा से जुड़े होते थे और फिल्म के मूड को या उस मूड के कंट्रास्ट को रचते थे जिससे कथा के भीतर एक आयरनी (व्यंग्य) का पुट आता था।
 
इन गीतों को क्योंकि (अक्सर) शैलेन्द्र लिखते थे और राज कपूर भी, कयोंकि वे शैलेन्द्र की ही तरह जिंदगी के उदास फलसफे को पसंद करते थे। इस जोड़ी के क्लब गीतों में मनोरंजन के साथ-साथ फानी जिंदगी के उदास संकेत भी मिलते हैं। 'बरसात' के 'पतली कमर है, तिरछी नजर है' को अर्थ के हिसाब से सुनिए, आप दंग रह जाएंगे!
 
महान राज कपूर वहां जिस्मानी और रूहानी मोहब्बत के बीच एक छोटी-सी संगीतमय बहस छेड़कर गाने को नारी प्रेम के पक्ष में, नरगिस के पक्ष में और भोगवादी आशिक, प्रेमनाथ के विपक्ष में उठा देते हैं। कई बार अपने गीतों में वे ऊलजुलूल, कॉमिक शब्दावली भी लाते हैं (जैसे), दिल का हाल सुने दिल वाला, ईचक दाना बीचक दाना, तीतर के दो आगे तीतर वगैरह। मगर कहीं-न-कहीं उनके ये गीत जिंदगी के सोगवार मिजाज और मायावीपन को टुनका जाते हैं।
 
'आवारा' के इस गीत में यद्यपि ऐसा कोई प्रत्यक्ष काम नहीं है फिर भी मजा मार ले/ मदमस्त जवानी है/ मौसम रंगीन है/ एक दो तीन और कूद जा मांस की नदी में जैसे सिनेमाई टटके और मृग मरीचिका की ओर तंजिया इशारे हैं। आवारा की साम्यवादी पृष्ठभूमि में यह गीत सामंतवादी रंगीनमिजाजी के खिलाफ, उपहास का हल्का-सा छींटा बनकर आता है, जैसे गरीबों के बच्चे धन्ना सेठ की भागती हुई कार पर कागज का तीर फेंक देते हैं। आवारा और बरसात के नायकों पर गौर करें। वे नाइट क्लबों में थोड़ी-सी चहलकदमी करके फौरन सकारात्मक मूल्य के राजमार्ग पर आ जाते हैं। लक्ष्य हमेशा वही है।
 
'आवारा' में शमशाद बेगम का एक गीत है। यह क्लब गीत। शमशाद की आवाज और उस आवाज का असर, क्योंकि गाने के मूड तथा लफ्जों के मानी से भरपूर मेल खाता था, प्लेबैक के लिए राज ने शमशाद को ही चुना। शमशाद की आवाज में खुनक है, ठसक है, मिर्ची-सा तीतपन है। इसी के साथ उसमें खेलंदड़ापन, शोखी, 'फिकरनाट' और 'मजा मार ले, दुनिया भाड़ में जाए' वाला चटक रंग है।
 
शैलेन्द्र गीत को एक दो तीन जैसे लफ्जों से शुरू करते हैं। मगर यह मात्र तुकबंदी नहीं है और न धुन को आधार देने वाले कोई भी लफ्ज हैं। इमेज यह थी कि ऐशो इशरत और मजा मौज का समंदर ठाठे मार रहा है।
 
मियां एक दो तीन बोलो और कूद जाओ, जीवन की रंगीनियों में। यह सिनेमा की अपनी व्याकरण है कि आदर्श को स्थापित करना है तो पहले अनादर्श को रंगीन बनाकर पेश करो और आगे उसे रद्द हो जाने दो। सो राज कपूर कला की शर्त के भीतर 'कंट्रास्ट' को तीखा करते हैं और इस क्लब गीत को ज्यादा से ज्यादा मादक, मांसल और मायावी बनाते हैं। शमशाद की जांबाज, न्योतती हुई आवाज को खदबदाता हुआ गोश्त देती है।
 
नर्तकी कुक्कू की काया, उसका मीठा चेहरा, कमर की लचक और खुलकर खेलती हुई मुस्कान जिसमें कुक्कू की उज्ज्वल दंत पंक्तियां याद आती रह जाती हैं। शंकर-जयकिशन का संगीत भी अबाध उल्लास, अटूट जवानी, बगावती बेफिक्री और समेटने के बाहर पड़ती भोग-राशि... को... साजों में खुलकर पकड़ता है और मादक विस्तार देता है।
 
उस दौर के लिहाज से यह गाना, इसका फिल्मांकन और कुक्कू की मासूम मुस्कान से जुड़ा हुआ उसका लतीफ, खिलाफती बदन दर्शकों रिझा-रिझा गया। ...फिल्मी संगीत के रसिकों को अर्से तक याद आती रहीं वे चुड़ियां, जो शमशाद आपा के गले में बजती थीं और ओंठ चबाकर हाथ मलने के सिवा दर्शक को कहीं का न छोड़ती थीं। हमारे एक मुंहबोले सिरीपाल काका, जो तब जवान थे और अपने राम बच्चे-फच्चे थे, कुक्कू, शमशाद और शंकर-जयकिशन के इस जुल्म से बेजार होकर कहते थे- 'क्या बताऊं। साला तेरी काकी से दो रोज लड़ता रहा।'
 
वो जमाना, वो भोले लोग, वो मेलोडी, वो सिनेमा की माया और बिरली आबादी के बीच पलता वह प्रेमभाव। सब शिद्दत से याद आता है आज। यहां तक कि नरगिस ने जब सुनील दत्त से शादी कर ली तो एक अजीब-सी उदासी तैर गई थी सिनेमा के दीवानों में। यह गीत उस दौर की याद जगाता है, इसलिए हल्का-फुल्का होने के बावजूद दिल को आज भी छू जाता है... पढ़ें गीत!
 
शमशाद : एक दो तीन- आजा मौसम है रंगीन आजा
एक दो तीन/ आजा मौसम है रंगीन
 
रात को छुपके मिलना, दुनिया समझे पाप रे
पुरुष वृंद : बाप रे।
शमशाद : एक दो तीन, आजा मौसम है रंगीन, आजा
एक दो तीन... रंगीन
 
समझ के खिड़की खोल बलमवा देखे मेरा बाप रे
पुरुष वृंद : बाप रे।
शमशाद : एक दो तीन... रंगीन/ आजा... रंगीन
(अंतरा)
 
शमशाद : ये मदमस्त जवानी है-(2) तेरे लिए दीवानी है
डूबके इस गहराई में (2) देख ले कितना पानी है
शमशाद : एक दो तीन... रंगीन/ आजा, एक दो..., आजा... है रंगीन।
(अंतरा)
 
क्यूं तू मुझे ठुकराता है (2)/ मुझसे नज़र क्यूं चुराता है
लूट ले दुनिया तेरी है(2)/ प्यार से क्यूं घबराता है
एक दो तीन, आजा मौसम है रंगीन/ आजा, एक दो तीन
आजा, मौसम है रंगीन।
 
 
इसके बाद साज तेज हो जाते हैं। टेंशन बिल्ड अप होता है और हम चक्कर खाते हुए जैसे परेशान हवाओं में उछाल दिए जाते हैं। उसके बाद सब कुछ स्तब्ध, समाप्त। आप कहेंगे, गीत में दम नहीं है। मैं भी कहूंगा- हां, पर फिर भी एक दौर की याद तो है यहां। राज-नरगिस के मशहूर जोड़े की स्मृति खरोंचे तो हैं यहां। और हैं एसजे की हंसती-खिलखिलाती मौसिकी की दिलकशी, जिसके बीच से एक कद्दावर, पहाड़ी आवाज की खुनक उठती है- एक दो तीन, आजा... मौसम है रंगीन।
 
बताइए उम्र के मारों की जिंदगी में आखिरश: यादों के सिवा क्या बचता है, जिसके दम पर वे अपनी डगमगाती जिंदगी को कहीं टिका रखें और अपनी नजरों में जीने का बचा-खुचा अभिनय सफलता के साथ कर सकें। ...मेरे नदीम, जिंदगी की चिड़िया यादों के पंख से उड़ा करती हैं।
 
समझे थे तुझसे दूर निकल जाएंगे कहीं
देखा तो हर मुकाम तेरी रहगुजर में है।
 
(अजातशत्रु द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत गंगा खण्ड 1' से साभार, प्रकाशक: लाभचन्द प्रकाशन)

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