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बिछड़े सभी बारी-बारी: बर्मन, रफी, कैफी और गुरुदत्त जैसे दिग्गजों का रचा हुआ संयुक्त तिलिस्म कागज के फूल का यह गीत

रफी के 3 अमर गीतों में यह है, रफी यहां काल को पार कर जाते हैं। एक जगह तो वे सांस तोड़े बिना मर्मस्पर्शी तान में उठ जाते हैं और एक नया इफेक्ट पैदा करते हैं।

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, मंगलवार, 30 जनवरी 2024 (07:02 IST)
  • क्या हम 1956 के साल को 'कागज के फूल' का साल नहीं कह सकते हैं?
  • फिल्म गुरुदत्त की थी, गुरुदत्त जीनियस थे। साधारण गीत और संगीत से उनका काम नहीं चल सकता था
  • नि:संदेह इस गीत के हीरो बर्मन दा हैं, नो डाउट, उनका ऑर्केस्ट्रा (बल्कि नोटेशन्स) यहां मौलिक से मौलिकतम है
dekhi zamane ki yaari hindi song: 'देवदास' फिल्म में सिर्फ 'देवदास' नामक आदमी मरता है। 'खामोशी' में राधा की मासूमियत मार खाती है, मगर फिल्म 'कागज के फूल' में मूल्य मरता है। विराट त्रासदी का विराट अंत। क्या हम 1956 के साल को 'कागज के फूल' का साल नहीं कह सकते हैं? एक होता है किसी विराट त्रासदी का विराट अंत, जैसा ग्रीक नाटकों में होता है। वहां मर जाने, तबाह हो जाने, खत्म हो जाने से भी बड़ी बात होती है, वह अंदाज जिसमें यह सब होता है और फिर उस अंदाज की भव्यता।
 
भारतीय हिन्दी फिल्मों के इतिहास में 'कागज के फूल' (1956) ऐसे ही ट्रेजिक डायमेंशन की महागाथा है। त्रासदी का चित्रण देवदास/ खामोशी और बंदिनी में भी हुआ था, पर 'कागज के फूल' में निहित ट्रेजेडी में अमूर्तता, विराटता और विचारणीयता अधिक थी। वह एक साथ निजी और सार्वभौमिक ट्रेजेडी है।
 
अगर आपने 'कागज के फूल' देखी है तो उस दृश्य को नहीं भूल सकते, जहां विराट स्टूडियो को वीरान बताया गया है और वहीं-कहीं अंधेरे में थका-हारा, बूढ़ा डायरेक्टर बैठा है। यहां गुरुदत्त का प्रकाश-संयोजन विश्व स्तर का है। कथानक के इस अंदरुनी विराटपन को उसकी पथराई वेदना के साथ पकड़ा था एस.डी. बर्मन ने और उसी के अनुकूल फिर वह गीत आया- 'देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी-बारी।'
 
फिल्म गुरुदत्त की थी, गुरुदत्त जीनियस थे। साधारण गीत और संगीत से उनका काम नहीं चल सकता था। उन्हें अपने इस थीम सांग में भी ऑर्केस्ट्रा की ओर से, विध्वंस डिरेंजमेंट एवं केयॉस का हृदयग्राही माहौल चाहिए था। एस.डी. बर्मन ने यह दिया।
 
इस गीत की खासियत है, अंतिम अंतरे का ऑर्केस्ट्रा। यहां गीत-संगीत और गायिकी सब फेंटेंसी में चले जाते हैं। नि:संदेह इस गीत के हीरो बर्मन दा हैं, जिन्होंने यहां ट्रांसेन्डेन्टल लेबल पर काम किया, नो डाउट, उनका ऑर्केस्ट्रा (बल्कि नोटेशन्स) यहां मौलिक से मौलिकतम है।
 
लेकिन उतना ही श्रेय देना होगा रफी साहब को। हैरानी होती है कि यह कम पढ़ा-लिखा, सीधा-सादा व्यक्ति गीत के शब्दार्थ को इतनी संवेदनशीलता के साथ सोख गया और फिर गाने में वेदना के आंसू डिरेंजमेंट और फंतासी को उतारकर रख दिया। रफी यहां काल को पार कर जाते हैं। एक जगह तो वे सांस तोड़े बिना मर्मस्पर्शी तान में उठ जाते हैं और एक नया इफेक्ट पैदा करते हैं, जो बर्मन की धुन में नहीं रहा होगा।
 
इस तरह से 'कागज के फूल' का यह ऐतिहासिक गीत कैफी, बर्मन, रफी और गुरुदत्त जैसे दिग्गजों का रचा हुआ संयुक्त तिलिस्म है। रफी के 3 अमर गीतों में यह है।
 
अंत में कैफी आजमी के सम्मान में उन्हीं की शब्द रचना-
 
उड़ जा, उड़ जा, प्यासे भंवरे, रस न मिलेगा खारों में
कागज के फूल जहां खिलते हैं, बैठ न उन गुलजारों में
 
नादान तमन्ना रेती में, उम्मीद की कश्ती खेती हैं
इक हाथ से देती है दुनिया, सौ हाथों से लेती है
 
ये खेल है कब से जारी... हाय... बिछड़े सभी बारी-बारी।
 
क्या लेके निकले अब दुनिया से, आंसू के सिवा कुछ पास नहीं
या फूल ही फूल थे दामन में, या कांटों की भी आस नहीं
 
मतलब की दुनिया है सारी, बिछड़े सभी बारी-बारी
देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी-बारी
 
सोचता हूं, सन् 1956 के साल को 'कागज के फूल' का साल कहा जाए तो क्या यह गुरुदत्त के साथ इंसाफ न होगा?
(अजातशत्रु द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत गंगा खण्ड 2' से साभार, प्रकाशक: लाभचन्द प्रकाशन)

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