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भोजपुरी साहित्य के संत-रामनाथ पांडेय

-भगवती प्रसाद द्विवेदी

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भोजपुरी साहित्यकार रामनाथ पांडेय का नाम इतिहास-पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित है। यों तो वे 16 जून 2006 को बयासी वर्ष की उम्र पूर्ण कर (जन्मतिथि 8 जून 1924) सदा के लिए जुदा हो गए थे, पर भोजपुरी उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में मिशनरी भाव से आपने ऐसा इतिहास रचा था, जिसको कभी भुलाया नहीं जा सकता।

छपरा शहर के रतनपुरा मोहल्ले में जन्मे पांडेयजी की स्कूली शिक्षा पैतृक गांव नवतन, एकमा और जिला स्कूल, छपरा में हुई थी। आई.कॉम. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ही आपने जीविकोपार्जन के लिए रेल महकमे में सेवा स्वीकार कर ली, पर ज्ञान पिपासा इस कदर बरकरार रही कि स्वतंत्र छात्र के रूप में बी.कॉम., साहित्यालंकार, साहित्यरत्न आदि उपाधियां प्राप्त कीं। हालांकि शुरुआती दौर में उन्होंने ’वह वेश्या थी‘, ’फूल झड़ गया भौंरा रो पड़ा‘, ’नई जिन्दगी नया जमाना‘, ’मचलती जवानी‘ जैसे एक दर्जन हिन्दी उपन्यास लिखे थे, मगर एकाएक उनका अंतर्मन मातृभाषा की सेवा के लिए तड़प उठा था और भोजपुरी तथा सिर्फ भोजपुरी की समृद्धि व विकास के निमित्त खुद को समर्पित कर दिया था।

1956 में पांडेयजी का ही नहीं, भोजपुरी भाषा का भी पहला उपन्यास ’बिंदिया‘ जब शेखर प्रकाशन, छपरा से प्रकाशित हुआ तो उसकी स्वीकृति एक ऐतिहासिक घटना के रूप में मिली। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने सोल्लास अपने पत्र में लिखा था-भोजपुरी में उपन्यास लिखकर आपने बहुत उपयोगी काम किया है। भाषा की शुद्धता का आपने जितना ख्याल रखा है, वह भी स्तुत्य है। लघु उपन्यास होने से यद्यपि पाठक पुस्तक समाप्त करते समय अतृप्त ही रह जाएगा, पर उसके स्वाद की दाद तो हर एक पाठक देगा। आपकी लेखनी की उत्तरोत्तर सफलता चाहता हूं।

उस वक्त स्त्री-विमर्श जैसी अवधारणा न होने के बावजूद दृष्टि-सम्पन्न रामनाथजी ने उपन्यास के कथानक को नारी-विमर्श पर ही केन्द्रित किया था। यही वजह है कि पहला ही उपन्यास मील का पत्थर साबित हुआ था। फिर तो उनका उपन्यास लेखन अबाध गति से आगे बढऩे लगा था और एक-एक कर चार और उपन्यास-’जिनगी के राह‘, ’महेन्दर मिसिर‘, ’इमरीतिया काकी‘ और ’आधे-आध‘ प्रकाशित-प्रशंसित होकर चर्चा के केन्द्र में रहे थे।

’बिंदिया‘में जहां गंवई परिवेश में पली-बढ़ी प्रतिकूल परिस्थितियों से लोहा लेती, दृढ़ता व साहस की प्रतिमूर्ति युवती के कारनामों के जीवंत चित्र उकेरे गए थे, वहीं ’जिनगी के राह‘ में छात्र-जीवन से ही अन्याय के विरुद्ध संघर्षरत प्रमोद के, आगे चलकर मजदूरों के वाजिब हक की खातिर शोषण-उत्पीडऩ के विरुद्ध, अनवरत संघर्ष की दास्तान पेश की गई थी।

’इमरीतिया काकी‘ में दलित परिवार क नायिका इमरीतिया, न सिर्फ जाति-धर्म, ऊंच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा का विभेद खड़ा कर अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए समाज को बांटने की राजनेताओं की साजिश का खुलासा करती है, बल्कि जनतेचना जगाने की दिशा में सार्थक पहल भी करती है। इन सब सामाजिक उपन्यासों से अलग हटकर पांडेयजी ने एक ऐतिहासिक उपन्यास की सर्जना 1994 में की थी, जो भोजपुरी के जीवंत गीतकार, पूरबी के बेताज बादशाह महेन्दर मिसिर की रसिकमिजाजी व नोट छापने के धंधे से जुड़ी किवंदंतियों-भ्रांतियों को तोडक़र उन्हें एक स्वाधीनता सेनानी, कर्मठ योद्धा, राष्ट्रीय गीतकार और महान संगीत साधक के रूप में प्रतिष्ठित करने की गरज से लिखा गया था।

उपन्यास ’महेन्दर मिसिर‘ उस चरित्र की आजादी के प्रति दीवानगी और संगीत साधना की बेजोड़ मिसाल पेश करता है। कहानी 1858 से शुरू होती है। बाबू हलवंत सहाय की जमींदारी और उस जमींदार से गुरु जैसा आदर-मान पाते शिवशंकर मिसिर और उनकी पत्नी गायत्री कुंअर। धनी-मानी परिवार में मेंहदार के महेन्दर बाबा की कृपा से महेन्दर मिसिर का जन्म। गायन-संगीत की जन्मजात प्रतिभा। संगीत-प्रेमी हलवंत सहाय के आकर्षण की केन्द्र रही तवायफ ढेलाबाई को उठाकर हलवंत सहाय की कोठी में पहुंचाना। ढेलाबाई से नाराजगी होने पर केसरबाई के साथ प्रणय और संगीत-साधना। उधर स्वामी अभयानंद के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में बढ़-चढक़र हिस्सेदारी। ब्रिटिश शासन की अर्थव्यवस्था को मटियामेट करने की गरज से जाली नोट छापने का अभियान। गिरफ्तारी, मुकदमा और कारावास। अंतत: ढेलाबाई के मंदिर में जिन्दगी की आखिरी यात्रा। महेन्दर मिसिर के व्यक्तित्व की पुन: पड़ताल करने के लिए उपन्यास मजबूर करता है और उनके चरित्र को नए सिरे से व्याख्यातित-विश्लेषित करने की दिशा में शोधार्थियों के लिए विशेष उपयोगी है। उनके सभी उपन्यास प्रवाह, पठनीयता व प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से बेजोड़ हैं।

उपन्यास के साथ-साथ कहानी के हलके में भी पांडेयजी का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। उनकी सात चुनिंदा कहानियों का संग्रह ’सतवंती‘, भोजपुरी संस्थान, पटना से 1977 में प्रकाशित हुआ था। राष्ट्रभक्ति से लवरेज उनकी दस प्रतिनिधि कहानियां ’देश के पुकार पर‘ शीर्षक संग्रह में संग्रहित हैं, जिसका प्रकाशन 1999 में हुआ था।

वैसे तो ,पांडेयजी को भोजपुरी के प्रथम उपन्यास ’बिंदिया‘पर जगन्नाथसिंह पुरस्कार, ’इमरीतिया काकी‘ पर अभय आनंद पुरस्कार और ’महेन्दर मिसिर‘ पर राजमंगल सिंह पुरस्कार के अलावा भोजपुरी भास्कर सम्मानोपाधि भी प्राप्त हुई थी, पर उनका कद ऐसे सम्मान-पुरस्कारों से काफी ऊंचा था। वे भोजपुरी की समृद्धि व विकास को ही अपना सबसे बड़ा सम्मान मानते थे।

उन्होंने बच्चों के लिए भोजपुरी की पहली पत्रिका ’नवनिहाल‘और कहानी की पत्रिका ’चाक‘ का भी प्रकाशन किया था। इसी तरह से उन्होंने भोजपुरी आलोचना की पहली पत्रिका ’कसउटी‘की शुरूआत प्रो.हरिकिशोर पांडेय के संपादन में की थी। उनकी दिली ख्वाहिश रहती थी कि भोजपुरी साहित्य की सभी विधाओं में गुणात्मक व परिणात्मक दृष्टि से विपुल और मानक साहित्य क सजर्नना अनवरत होती रहे।

पं.रामनाथ पांडेय भोजपुरी साहित्य के ऐसे छतनार वटवृक्ष थे, जिनकी शीतल छाया में साहित्कारों-संस्कृतिकर्मियों की कई पीढियां साथ प्रेरणा ग्रहण करती थीं। साहित्य में सियासत के वह घोर विरोधी थे और ऐसे लोगों को खरी-खोटी सुनाना वह अपना दायित्व समझते थे। मगर उनके दिल में किसी के प्रति कभी कोई दुराव नहीं रहता था। उनका व्यक्तित्व छल-छद्म से कोसों दूर जितना ही सहज था, उतना ही सहृदय और विराट भी। सही मायने में वह भोजपुरी साहित्य के संत थे। एक बार जो भी उनसे मिल लेता था, सदा के लिए उनका मुरीद हो जाता था। युवा पीढ़ी के वह प्रेरणा स्रोत थे और साहित्य का अलघ जगाने की गरज से छपरा, सिवान, गोपालगंज समेत कई भोजपुरी इलाके में कवि सम्मेलन, विचार गोष्ठियां आयोजित करवाने में अग्रणी भूमिका निभाया करते थे।

रामनाथजी सिर्फ भोजपुरी के ही गौरव स्तंभ नहीं थे, बल्कि वह संवेदनशीलता, मनुष्यता व भारतीय संस्कृति की भी जीवंत प्रतिमूर्ति थे। उस कालजयी कृतिकार की पावन स्मृति में प्रणामांजलि।

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