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कॉमरेड कैफ़ी आज़मी : नज्मों में आज भी ले रहे हैं साँस

- दिनेश 'दर्द'

हमें फॉलो करें कॉमरेड कैफ़ी आज़मी : नज्मों में आज भी ले रहे हैं साँस
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(पुण्यतिथि पर विशेष) अनादिकाल से रवां वक्त का दरिया अपने भीतर न जाने कितने युग समोता चला गया। ऐसे लोग, जो पैदा हुए और गुमनाम-सी ज़िंदगी जीकर मर गए, आज उनकी कहीं कोई शनाख़त नहीं। वक्त की तेज़ रफ़्तार में अगले ही पल भुला दिए गए वो लोग। मगर जिन्होंने ज़ुल्म की आँधी के सामने थककर टूट जाना और टूटकर बैठ जाना गवारा नहीं किया, वक्त ने ऐसे सूरमाओं को हमेशा सर-आँखों पर रक्खा। ज़ियादती और बेज़ारी के ख़िलाफ़ हक़ का परचम लहराने वाले ये जंगजू लाल-ओ-जवाहिर बनकर चाँद-सूरज की तरह चमकते रहे। ऐसे ही एक सूरज का नाम है कैफ़ी आज़मी।

मज़लूमों की आवाज़ बने :
जी हाँ, वही कैफ़ी आज़मी, जिसने अपने सीने की तड़प और मुहब्बत तो अपनी शायरी में ज़ाहिर की ही, लेकिन मज़लूमों की कसक और बेचारगी से भी ग़ाफ़िल नहीं हुए। उन्होंने दबे-कुचले मज़दूर वर्ग के लिए हक़ की आवाज़ उठाते इंकलाबी तराने लिखे भी और अपनी पुरज़ोर आवाज़ में गाए भी।

अभी बचपन के खेल छूटे ही थे कि उनका लड़कपन शोषित वर्ग, किसानों और मज़दूरों की परेशानियों से तड़प उठा। इस बीच 1932 से 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद कैफ़ी आज़मी कानपुर चले आए और मज़दूर सभा में काम करने लगे। इस दौरान उन्होंने कम्युनिस्ट साहित्य का डूबकर अध्ययन किया। 1943 में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। बंबई में कम्युनिस्ट पार्टी का ऑफिस खुलने के बाद कैफ़ी भी बंबई चले आए।

अगले पन्ने पर पढ़ें, कैफी आजमी की पैदाइश और तालीम....


पैदाइश और तालीम : कैफ़ी आज़मी (वास्तविक नाम अतहर हुसैन रिज़वी) का जन्म 19 जनवरी 1919 को उत्तरप्रदेश के आज़मगढ़ जिले के मिजवाँ गाँव में एक धार्मिक परिवार में हुआ। शिया घराने से तआल्लुक़ रखने वाले इस ज़मींदार परिवार में हर साल मोहर्रम के दिनों में कर्बला के 72 शहीदों का मातम किया जाता था।

कैफ़ी भी अपने बचपन और लड़कपन के दिनों में इन मजलिसों में शरीक होते थे और दूसरे अक़ीदतमंदों की तरह हज़रत मोहम्मद के नवासे और उनके साथियों की शहादतों पर रोते थे। माता-पिता ने धार्मिक शिक्षा (दीनी तालीम) दिलाने की ग़रज़ से बेटे को लखनऊ के एक शिया मदरसे, सुल्तानुल मदारिस भेज दिया।

सहपाठियों के साथ बनाई यूनियन : यहीं पर कैफ़ी के हाथ 1933 में छपा और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा ज़ब्त किया गया कहानी संग्रह 'अंगारे' लग गया। इसी संग्रह की कहानियां पढ़कर कैफ़ी ने मदरसे की अव्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ अपने सहपाठियों से मिलकर एक यूनियन बना ली। इस यूनियन ने अब अपनी माँगों के हक़ में हड़ताल भी शुरू कर दी। हड़ताल के मद्देनज़र मदारिस बंद कर दिया गया और क़रीब डेढ़ साल बाद माँगें पूरी होने के बाद ही खोला जा सका।

अगले पन्ने पर, कहां छपी पहली नज्म...


'सरफ़राज़' में छपी नज्म : परंपरागत ग़ज़ल से शुरू हुई उनकी शायरी, हड़ताल के दौरान इंकलाबी तेवर अख्तियार करते हुए नज्म की ज़बान में बात करने लगी थी। क़िस्मत से इसी समय एक दिन वहाँ से अली अब्बास हुसैनी की गुज़र हुई और उसी वक्त साथियों के सामने कैफ़ी का नज्म पढ़ना हुआ। यह नज्म इत्तिफ़ाक़न हुसैनी साहब ने भी सुन ली।

हुसैनी साहब उर्दू साहित्य में मुंशी प्रेमचंद के बाद दूसरा स्थान रखते थे। हुसैनी साहब काफी मुतअस्सिर हुए और मुझे बाकी साथियों के साथ कैफ़ी को चाय के लिए घर भी ले गए। जहाँ उनकी मुलाक़ात एहतिशाम साहब और उनके साथ आए दैनिक पत्र 'सरफ़राज़' के संपादक आज़म हुसैन से करवाई। सबने ये नज्म सुनने की ज़िद की। कैफ़ी ने वो नज्म फिर सुना दी। आज़म साहब ने वो नज्म न केवल 'सरफ़राज़' में छापी बल्कि हमारी हड़ताल के हक़ में संपादकीय भी लिखा। एहतिशाम साहब ने ही कैफ़ी को अली सरदार जाफ़री से भी मिलवाया, जो आगे चलकर उनके ख़ास दोस्त बने।

11 की उम्र में लिखी पहली ग़ज़ल : चूँकि शायरी विरासत में मिली थी। तीनों बड़े भाई भी शायरी किया करते थे। लिहाज़ा, कैफ़ी ने भी 8 की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। 11 की उम्र में पहली बार बहराइच में मुशायरा पढ़ने पहुंचे। वहां जो ग़ज़ल सुनाई, उस पर लोगों को यक़ीन नहीं हुआ और इल्ज़ाम लगा कि कैफ़ी बड़े भाइयों की लिखी ग़ज़ल सुना रहे हैं। ये इल्ज़ाम नाकाबिले बर्दाश्त था, सो रोने लगे। पूछा गया, इम्तिहान दोगे? कामयाब हुए, तो मान लेंगे कि यह ग़ज़ल तुम्हारी ही थी। कैफ़ी राज़ी हो गए। उसी वक्त वहाँ मौजूद मज़ाहिया शायर शौक़ बहराइची ने एक मिसरा 'इतना हँसों कि आँख से आँसू निकल पड़े' दिया। इसी ज़मीन पर उन्हें ग़ज़ल कहना थी। कुछ देर दीवार की ओर मुँह करके बैठे और ग़ज़ल हाज़िर कर दी। 11 की उम्र में लिक्खी कैफ़ी की इस ग़ज़ल को बाद में बेग़म अख्तर की आवाज़ मिली, तो ये ग़ज़ल हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में ख़ासी मशहूर हो गई।
ग़ज़ल पढ़ते चलें-

इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े,
हंसने से हो सुकूं ना रोने से कल पड़े

जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के गर्म अश्क,
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े

इक तुम कि तुमको फ़िक्र-ऐ-नशेब-ओ-फ़राज़ है,
इक हम कि चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े

साक़ी सभी को है गम-ऐ-तशनालबी मगर,
मय है इसी की नाम पे जिसकी उबल पड़े

मुद्दत के बाद उसने की तो लुत्फ़ की निगाह,
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े।

...और कॉमरेड बन गए कैफ़ी


घर से दीनी तालीम लेने के लिए लखनऊ भेजा गया बेटा कैफ़ी अब तक मौलवी बनते-बनते कॉमरेड बन गया था। 1943 में बक़ाइदा कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने के बाद कैफ़ी आज़मी केवल संस्कृतिकर्मी और शायर ही नहीं रह गए थे। अब वो पार्टी की रैलियों, अधिवेशनों, चुनावी सभाओं, जनआंदोलनों आदि में भी भाग लिया करते थे।

एक ज़माने में उनके साथी रहे हरिमंदिर पाण्डे ने कहीं ज़िक्र किया है कि 'कॉमरेड कैफ़ी आज़मी घर से निकलते वक्त लाल पार्टी कार्ड को जेब से निकालकर चूमते थे, उसके बाद ही गाड़ी में बैठकर जहां जाना होता, जाते थे। वे जबसे कॉमरेड बने, हमेशा इसी रास्ते पर चले। वफ़ात (मौत) के वक़्त भी उनके कुर्ते की जेब में सीपीआई का कार्ड था।

ज़माने भर के लिए रोए : बचपन में हज़रत मोहम्मद के नवासे और उनके साथियों की शहादतों पर रोने वाले कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ने के बाद भी रोते रहे। फ़र्क महज़ इतना था कि पहले वे दीनी वजह से रोते थे, लेकिन बाद में उन्होंने लाखों-करोड़ों पीड़ितों के लिए आँसू बहाए।

इसी कम्युनिस्ट इकाई के टूटने पर उन्होंने लिखा था-

राह में टूट गए पाँव तो मालूम हुआ,
जुज़ मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था,
कह दिया अक्ल ने तंग आके ख़ुदा कोई नहीं।

ख़ूब निभाई ज़िंदगी में आई शौकत ने : 1947 में उन्होंने कैफ़ी आज़मी ने शौकत खान से निकाह किया। प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के संस्थापक, सज्जाद ज़हीर के मुंबई स्थित घर में हैदराबाद के मुशायरे में शुरू हुआ मुहब्बत का सिलसिला शादी में ढल गया। कहानीकार इस्मत चुग़ताई, फ़िल्म निर्देशक शाहिद लतीफ़, शायर अली सरदार जाफ़री, अंग्रेज़ी के लेखक मुल्कराज आनंद इस शादी के गवाह बने।

शौकत, जो बाद में थिएटर और फ़िल्म जगत की एक जानी- मानी हस्ती बनीं। आंदोलनों के दौर में भी पत्नी शौकत ने कैफ़ी का ख़ूब साथ निभाया। पृथ्वी थिएटर के अलावा घर के साथ बच्चों की परवरिश की ज़िम्मेदारियां भी बख़ूबी निभाईं। दो बच्चे हुए। एक बेटी और एक बेटा। बेटी बड़ी थी जिसे 11 की उम्र तक मुन्नी कहकर बुलाया जाता था। फिर शायर और दोस्त अली सरदार जाफ़री ने मुन्नी को 'शबाना' नाम दिया, जो बाद में अभिनेत्री और समाज सेविका शबाना आज़मी बनीं। कैफ़ी के बेटे का नाम बाबा आज़मी है, जो बाद में प्रसिद्ध छायाकार हुए।

शौकत के लिए कभी कैफ़ी ने लिखा था-

ऐसा झोंका भी इक आया था कि दिल बुझने लगा,
तूने इस हाल में भी मुझको सँभाले रखा

कुछ अँधेरे जो मिरे दम से मिले थे तुझको,
आफ्रीं तुझको, कि नाम उनका उजाले रखा

मेरे ये सज्दे जो आवारा भी, बदनाम भी हैं,
अपनी चौखट पे सजा ले जो तिरे काम के हों।

बेटी ही नहीं, दोस्त भी थी शबाना : बेटी शबाना आज़मी, जो कैफ़ी की दोस्त भी थी, का पिता पर बहुत ऐतबार था। कहीं ज़िक्र करती हैं कि 'मुशायरे के दौरान अब्बा के चेहरे पर हमेशा लापरवाही-सी रहती। मैंने उन्हें तालियों पर न हैरान होते देखा, न ख़ुश होते हुए। न ही घर लौटकर बताते कि मुशायरा कैसा रहा। मम्मी भी इस बात से परेशान थीं, लेकिन एक बार मैं ज़िद पर ही अड़ गईं कि अब तो जवाब लेकर ही रहूँगी, मुशायरा कैसा रहा। इस पर अब्बा ने मुझे अपने पास बैठाया और कहा, 'छिछोरे लोग अपनी तारीफ़ करते हैं, जिस दिन मुशायरे में बुरा पढूँगा, उस दिन आकर बताऊँगा।' बक़ौल शबाना आज़मी, कैफ़ी ने कभी अपने काम या कामयाबी की नुमाइश नहीं की। गाना रिकॉर्ड होता, तो उसका कैसेट भी कभी घर नहीं लाते थे।

इसी बेटी के 24वें जन्मदिन पर कैफ़ी साहब ने उन्हें कुछ मिसरे नज़्र किए थे-

अब और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे,
बस इक दुआ कि ख़ुदा तुझको कामयाब करे
वह टाँक दे तेरे आँचल में चाँद और तारे,
तू अपने वास्ते जिसको भी इंतख़ाब करे।

रोते-रोते बदल गई रात... : बंबई में इप्टा (भारतीय जननाट्य संघ या इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) के दिनों में कई नामी लोग थे। इप्टा में उन्होंने होमी भाभा, कृष्ण चंदर, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, बलराज साहनी, मोहन सहगल, मुल्कराज आनंद, रोमेश थापर, शैलेन्द्र, प्रेम धवन, इस्मत चुगताई, एके हंगल, हेमंत कुमार, अदी मर्जबान, सलिल चौधरी जैसे कम्युनिस्टों के साथ काम किया। फ़िल्मों में उनके गीत काफ़ी सुने और सराहे गए। एक से एक हिट गीत दिए उन्होंने। पहला गीत 1951 में 'बुज़दिल' फ़िल्म के लिए लिखा- 'रोते-रोते बदल गई रात'।

गरम हवा को मिले कई अवॉर्ड : भारत-पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर जितनी भी फिल्में बनी हैं, उनमें ‘गरम हवा’ को आज भी सर्वोत्कृष्ट फिल्म का दर्जा प्राप्त है। ‘गरम हवा’ फिल्म की कहानी, पटकथा, संवाद कैफ़ी आज़मी ने लिखे थे। इस फ़िल्म के लिए कैफ़ी आज़मी को तीन-तीन फिल्म फेयर अवॉर्ड दिए गए।

पटकथा और संवाद पर बेस्ट फिल्म फेयर अवॉर्ड के साथ ही कैफ़ी को ‘गरम हवा’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1970 में आई फ़िल्म 'हीर-रांझा' ने भी इतिहास कायम कर दिया था। पूरी फ़िल्म शायरी में लिखी गई थी। ऐसा हिन्दी सिनेमा के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। इस फ़िल्म के गीतों ने भी ख़ूब धूम मचाई। गरम हवा, कागज़ के फूल, मंथन, कोहरा, सात हिन्दुस्तानी, बावर्ची, पाकीज़ा, हँसते ज़ख्म, अर्थ, रज़िया सुल्तान सरीख़ी फिल्मों ने कैफ़ी को अमर कर दिया।

2002 में आज ही के दिन यानी 10 मई को प्रगतिशील लेखक संघ का यह आख़िरी स्तंभ ढह गया। वो स्तंभ, शोषित मज़दूर और किसान जिन्हें गर्व से कॉमरेड कहते थे, इस कॉमरेड ने अपनी ज़िंदगी में बख़ूबी कई ज़िम्मेदारियां निभाईं। कैफ़ी ने अधिकांश लेखन शोषित समाज को उनके हक़ दिलवाने के लिए ही किया। उनके लेखन में अपनी वाजिब माँगों को लेकर होने वाली बग़ावत और तेवर साफ़ नज़र आते हैं। आज भौतिक रूप से चाहे कैफ़ी आज़मी न हों, लेकिन आज भी जब कहीं कोई मज़दूर शोषण का शिकार होगा, कैफ़ी की कोई नज्म या शेर उसके हक़ में चीख पड़ेगा। और शायद आवाज़ आए कि-

कोई तो सूद चुकाए, कोई तो जिम्मा ले
उस इन्कलाब का, जो आज तक उधार-सा है

अगले पन्ने पर, कैफ़ी आज़मी के बारे में कुछ और...


..जब सरोजनी नायडू ने सुनाया टेप : जैसा कि हम जानते हैं, कैफ़ी समाज के शोषित वर्ग के शायर थे। उन्होंने इसी वर्ग के लिए क़लम चलाई और मुशायरों में भी उन्हीं के लिए लिक्खी नज़्में सुनाईं। कैफ़ी तरन्नुम के शायर थे। सुनते हैं कि, एक बार ऐसी ही एक महफ़िल में सरोजनी नायडू भी मौजूद थीं। उन्होंने तरन्नुम में खोए कैफ़ी की आवाज़ रिकॉर्ड कर ली। अगले दिन उन्होंने कैफ़ी और अली सरदार जाफ़री को घर बुलाया और बैठाकर सवाल किया, ‘क्या तुम जानते हो तुम्हारा तरन्नुम कैसा है?’ इतना पूछकर सरोजजनी नायडू ने अपना टेप चालू कर दिया। फिर क्या था, सुना है कि टेप सुनने के बाद कैफ़ी के कभी तरन्नुम में शायरी नहीं पढ़ी। तहत में ही शायरी सुनाते रहे और महफ़िलों पर महफ़िलें लूटते रहे।

कुछ और ख़ास बातें-
- कैफ़ी आज़मी ने सईद मिर्ज़ा की फिल्म 'नसीम' (1997) में अभिनय भी किया। यह किरदार पहले दिलीप कुमार निभाने वाले थे।
- कैफ़ी आज़मी केवल 'मॉन्ट ब्लॉक पेन' से लिखते थे। उनके पेन की सर्विसिंग न्यूयॉर्क में होती थी। मौत के वक्त उनके पास अट्ठारह मॉन्ट ब्लॉक पेन थे।
- कैफ़ी आज़मी की जन्मतिथि उनकी अम्मी को याद नहीं थी। उनके मित्र डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर सुखदेव ने उनकी जन्मतिथि 14 जनवरी रख दी थी।
- उन्हें 'सात हिन्दुस्तानी' (1969) के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार के 'राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।
- भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया था। इसके अलावा उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
- कैफ़ी आज़मी ने कुल 80 हिन्दी फ़िल्मों में गीत लिखे हैं।
- 1975 में कैफ़ी आज़मी आवारा सिज्दे पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से सम्मानित किए गए।
- कैफ़ी आज़मी की नज़्मों और ग़ज़लों के 4 संग्रह हैं- झंकार, आखिरे-शब, आवारा सिज्दे, इब्लीस की मजिलसे शूरा।
- मशहूर लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह ने कैफ़ी आज़मी को ‘आज की उर्दू शायरी का बादशाह’ करार दिया था।

चलते-चलते कैफ़ी साहब की एक मशहूर नज्म 'मकान' से उनको श्रद्धांजलि देते चलें -

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी।

ये जमीं तब भी निगल लेने को आमादा थी,
पांव जब टूटती शाख़ों से उतारे हमने,
इन मकानों को खबर है न, मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हमने।

हाथ ढलते गए सांचों में तो थकते कैसे,
नक्श के बाद नए नक्श निखारे हमने,
कि ये दीवार बलंद, और बलंद, और बलंद,
बाम-ओ-दर और ज़रा और सँवारे हमने।

आंधियाँ तोड़ लिया करती थीं शमाओं की लवें,
जड़ दिए इसलिए बिजली के सितारे हमने,
बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया,
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिए।

अपनी नस-नस में लिए मेहनत-ए-पैहम की थकन,
बंद आँखों में इसी क़स्र की तस्वीर लिए,
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक,
रात आँखों में खटकती है सियह तीर लिए।

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी।

कॉमरेड कैफ़ी को लाल सलाम।

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