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इस दौर के संकट पर कवि महेंद्र सांघी की व्यंग्यात्मक कविता 'अस्थाई हल' पढ़ें उसकी समीक्षा के साथ

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एमके सांघी

लब्ध प्रतिष्ठित समीक्षाकार रामनारायण सोनी जी की ’काव्य की अंतर्धाराएं’ समीक्षा पुस्तक है, जिसमें 22 रचनाकारों की 41 कविताओं के साथ कुछ पुस्तकों की भी समालोचना प्रस्तुत की गई है। सोनी जी द्वारा 'अस्थाई हल' कविता की समीक्षा यहां प्रस्तुत हैं। 
 
कविता : अस्थाई हल

वह बादशाह समझदार था 
जिसने पूरे शहर को 
चमड़े से मढ़ने के लिए 
कहा था 
 
न मालूम 
किस बेवकूफ ने उस वक्त 
बादशाह के पैरों में एक जोड़ी
जूता पहना दिया था।
 
अस्थाई हल की शायद 
वही थी पहली शुरुआत 
स्थाई हल ढूंढते तो अदालतों में 
इतने मुकदमें लंबित नहीं होते आज।
 
स्थाई हल के रूप में अदालतों का 
अगली तारीख से ब्याह हो जाए
तो ये तारीखों से का प्यार का चक्कर 
कुछ महीनों में रफूचक्कर हो जाए। 
 
समीक्षा : हमारी पीढ़ी को कक्षा तीन से लेकर कक्षा ग्यारह तक नीति कथाएं, मॉरल स्टोरीज़ पढ़ाई जाती थी। ये नीति कथाएं अब पाठ्यक्रम से नदारद हो गई हैं। दादी मां के किस्से वाली शामें भी अब इतिहास हो गई, क्योंकि बच्चों को और दादियों को भी मोबाइल, आईपैड अथवा टीवी के स्क्रीन ने जकड़ लिया है। खैर।
 
चलिए चार लाइन में एक ऐसी ही कहानी में ले चलता हूं, जो हमने चौथी कक्षा में पढ़ी थीं और मेरे अवचेतन में आज तक जस की तस जिंदा है।
 
एक राजा था हबूचंद और उसके दरबार में एकमात्र था मंत्री गबूचंद। आज की तरह कोई बड़ी केबिनेट नहीं हुआ करती थी। एक दिन राजा अपने राज्य में भ्रमण पर निकला तो उसके पैरों में धूल लग गई। उसे लगा इस धूल से मैं ही नहीं मेरी प्रजा भी परेशान रहती है, इसलिए संपूर्ण राज्य से धूल को ही खत्म कर दिया जाना चाहिए। 
 
मंत्री को आदेश दिया गया कि धूल को समाप्त किया जाएं। मंत्री ने क्रमशः कुछ उपाय किए। झाड़ू लगवाई गई तो सारा वातावरण धूल से भर गया, इसे बंद किया। पानी छिड़कवाया तो कीचड़ मच गया, इसे भी बंद किया। फिर बात चली इस पर चमड़ा मढ़वा दो! तो इतना चमड़ा कहां से लाएं, अंत में एक चर्मकार को बुलाया गया, उसने राजा के पैरों पर चमड़ा मढ़ दिया। 
 
राजा से कहा गया कि धूल भरे रास्ते पर चलो। राजा चला, पैर में धूल नहीं लगी। राजा आर्किमिडीज की तरह चिल्ला पड़ा, बोला 'हल' मिल गया। इस हल को हम जूते के नाम से जानते हैं, पहनते भी हैं। अब तो हम और भी गजब करते हैं, दो कौड़ी की धूल से बचने के लिए दस हजार का ब्रांडेड जूता पहनते हैं। उसको धूल से बचाने के लिए सुअर के बाल से बना ब्रश और 'चेरी ब्लॉसम' पॉलिश की डिब्बी और ले आए। घर में जूतों की आबादी तेजी से बढ़ी है। 
 
पूरी प्रक्रिया पर नजर डालें तो मूल समस्या धूल हटाना थी, पर धूल वहीं है जूता और गले पड़ गया। अब 'धूल भी झेलो और जूता भी।'
 
इसी तरह अकसर देखा गया है कि पहले कोई प्रश्न बनता है और उसका उत्तर नहीं मिलता है तो वह समस्या बन जाती है। समस्या हल मांगती है। श्याणे लोग बड़े चतुर होते हैं, आज के डॉक्टर की तरह कि सिरदर्द हो रहा है तो पेन किलर पकड़ा दी यानी दर्द नहीं आदमी का इलाज कर दिया।

दर्द तो वहीं कायम है, बस आदमी को महसूस न हो। जैसे- भूख से रोते हुए बच्चे को मां झुनझुना पकड़ा देती है। थोड़ी देर में वह फिर रोता है तो फिर झुनझुना बजा देती है। भूख का हल झुनझुना नहीं है पर चतुर दिमाग यह सिद्ध कर देता है कि देखो बच्चे का रोना बंद हो गया।
 
'दद्दू का दरबार' श्री महेन्द्र सांघी का समाचार पत्र में कॉलम छपता रहा है। उस दरबार में समाज में व्याप्त इसी तरह की विद्रूपताओं पर खुल कर करारा व्यंग्य लिखा जाता रहा है।
 
'अस्थाई हल की शायद 
वही थी पहली शुरुआत 
स्थाई हल ढूंढते तो अदालतों में 
इतने मुकदमें लंबित नहीं होते आज।'
 
कविता विवरणी नहीं सांकेतिक है। हम स्वतंत्र हो गए हैं, इसका मतलब शायद यह है कि हमने अपना-अपना एक तंत्र बना लिया है, अपने ढंग से, अपनी सुविधा के लिए। कवि की दाद देनी चाहिए कि उसने जनतंत्र के तीसरे स्तंभ के धर्मदंड की परवाह किए बिना यह सांकेतिक व्यंग्य किया है।

यह न्याय पर नहीं, न्याय प्रक्रिया पर प्रश्न चिह्न है। सच तो सच है। न्याय की कुर्सी के पीछे दीवार पर लिखा होता है 'सत्यमेव जयते'। शायद यह केवल फरियादी, वकील, गवाह और तमाशबीन लोगों को पढ़ने के लिए है। 
 
वस्तुतः दायर मुकदमे का फैसला चाहिए, पर तारीख पर तारीख। गबूचंद द्वारा राजा को पहनाए गए अस्थाई हल की तरह, डॉक्टर द्वारा दी गई ट्रेंकुलाइजर की तरह अस्थाई हल है। अपने वाद से उपजी पीड़ा के समाधान में सुबह से कामधाम छोड़ कर खड़ा फरियादी शाम को तारीख का झुनझुना लेकर एक और दिन बरबाद कर घर चला जाता है।

हो सकता है आज की दिहाड़ी नहीं मिलने पर उसके घर चूल्हा न जले। वह मुकदमे में हो सकने वाली हार से ज्यादा उस एक तरफा फैसले से डरता है, गैरजमानती वारंट से डरता है, अपने पैड वकील से डरता है। उसका वकील अपनी फीस के लिए और वह खुद अपनी अगली तारीख की उल्टी गिनती करता है।
 
दद्दू ने अपनी छोटी सी कविता में उस फरियादी की पीड़ा लिखी है। निश्चित रूप से यह न्यायालयीन प्रक्रिया का खुला सत्य है। अन्यथा न्यायालय में आज सुने जाने वाले चार प्रकरण के ज्यादा से ज्यादा आठ वकील, चार वादी-प्रतिवादी, कुछेक गवाह होते परंतु उस परिसर में क्या-क्या होता है सब जानते हैं। शक हो तो जाओ! देख लो!
 
कवि अंत में अपने व्यंग्य से इसका हल भी सुझाता है। 'अदालतों का अगली तारीख से ब्याह हो जाए' यानी यह अगली तारीख उस न्यायालय से बाहर न निकले, बस फैसला हो जाए। यह यथार्थ है कि फिर भी आम आदमी जब चारों तरफ के हमलों से परेशान होता है तो वह धौंस देता है कि मैं तुम्हें कोर्ट में देख लूंगा। यह उसके अवचेतन में बसे न्यायपालिका के प्रति आस्था और विश्वास का प्रतीक है। इसे कायम रखना होगा। 
 
समीक्षक- रामनारायण सोनी

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