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'अनकहा लखनऊ' : महान संस्कृति को सामने लाने की कोशिश

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अरविन्द शुक्ला

लखनऊ के बारे में और अधिक जानने की ललक जगा रही है पूर्व मंत्री व सांसद लालजी टंडन की पुस्तक 'अनकहा लखनऊ'। भारत के उप राष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने यहां साइंटिफिक कन्वेंशन सेंटर में गत 26 मई को लालजी टंडन की पुस्तक 'अनकहा लखनऊ' का विमोचन किया। इस अवसर पर उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक, विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित, मुख्‍यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उप मुखयमंत्री डॉ. दिनेश शर्मा, सांसद महेन्द्रनाथ पाण्डेय, लखनऊ की मेयर सुश्री संयुक्ता भाटिया, पुस्तक के संपादक विनय जोशी उपस्थित थे।


कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए उप राष्ट्रपति ने कहा कि लालजी टंडन ने अपनी लेखनी के माध्यम से 'अनकहा लखनऊ' में उन बातों का जिक्र किया है, जिनका उल्लेख इतिहास की पुस्तकों में भी नहीं है। अनुभव समृद्ध लालजी टंडन ने अपने जीवन के आठ दशकों के अनुभव और अनुभूतियों को उंडेलकर अपनी पुस्तक में कुछ ऐसा रचा है, जिसे पढ़ना एक अपूर्व अनुभव होगा। यह पुस्तक लखनऊ से जुड़ी 'नवाब और कबाब' की प्रचलित धारणा का खंडन करती है।

लखनऊ का नाम आते ही एक ऐसे शहर की परिकल्पना उभरती है जहां अय्याशी में डूबे नवाब हों और खाने के नाम पर तरह-तरह के कबाब आदि मांसाहारी व्यंजन हों, जबकि लखनऊ सिर्फ भोग की ही नहीं, बल्कि योग, भोग और शौर्य की संगम भूमि रही है। यह धरती का वह विशिष्ट भूखंड है जहां आठों पहर सोना बरसता है। कुछ खास है यहां, जो कहीं और नहीं है। किसी भी अन्य स्थान से ज्यादा रौनक रही है यहां। किसी भी अन्य स्थान से ज्यादा खुशहाली रही है यहां। तपस्वियों, ॠषि-मुनियों का यह क्षेत्र रहा। दिव्य शक्तियों का यहां से वास्ता रहा। अपने-अपने समय के विशिष्ट लोगों ने यहां आना चाहा। यह रामराज्य अवध का सर्वप्रमुख केन्द्र रहा।
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भौतिकता और आध्यात्मिकता का सुंदर समन्वय यहां स्थापित हुआ। शौर्य की पराकाष्ठा यहां रची गई। तभी तो प्रभु श्रीराम ने अपने प्रिय अनुज लक्ष्मण के लिए इस स्थान को चुना और लक्ष्मणपुरी, लक्ष्मणावती, लखनौती, लखनपुर से होते हुए आज का लखनऊ विश्व का बेजोड़ शहर कहा गया। यहां की हर चीज मशहूर हो गई। इसके आकर्षण की चर्चा समूचे संसार में होती रही। परंपरा, आधुनिकता और नई चेतना का समृद्ध केन्द्र होने के कारण लखनऊ हमेशा से विश्व का विशेष प्रसिद्ध नगर रहा। अवध की समृद्ध संस्कृति के इस स्वर्णिम चेहरे को हमारे इतिहासकारों ने अपनी तंगदिली से किस कदर बदरूप कर दिया, यह आज हम सबके सामने है।

अपनी पुस्तक 'अनकहा लखनऊ' के बारे में लालजी टंडन का लिखना है कि लखनऊ खास क्यों है? लखनऊ की संस्कृति सबसे अलग क्यों दिखती है? यहां ऐसा क्या है जो कहीं और न मिलता है, न दिखता है, न महसूस होता है? किसी एक शहर की संस्कृति तो अलग होती नहीं है फिर क्यों चर्चा होती है लखनऊ की संस्कति की? और बार-बार यह क्यों कहा जाता है कि तमाम गिरावटों और विकृतियों के बाद भी यहां की संस्कृति अक्षुण्‍ण है? लक्ष्मणपुरी से लखनऊ तक की सहस्राब्दियों की यात्रा को जब हम सम्पूर्णता में देखते हैं और इस सांस्कृतिक प्रवाह के विभिन्न पड़ावों को समझने की कोशिश करते हैं तब कहीं इन प्रश्नों के जवाब मिलते दिखते हैं। कुछ वर्ष, कुछ लोग, कुछ घटनाएं, कुछ अनुभूतियां, कुछ चर्चाएं या फिर कुछ किताबों के दायरे से बाहर निकलकर और खंड-खंड में देखने की प्रवृत्ति को त्यागकर ही हम अपनी महान विरासत और सम्पन्न संस्कृति को जान-समझ सकते हैं।

खंड-खंड में देखने की बढ़ती प्रवृत्ति का नतीजा है कि आज हर बड़ी चीज छोटी नजर आने लगी है। यही वजह है कि महान विरासत से जुड़ी अवध की संस्कृति को आज हम महज सौ साल के नवाबी काल के आइने में ही देखना, जानना, समझना चाह रहे हैं। दिलचस्प यह है कि इतिहासकार सिर्फ इस छोटे से दायरे में ही कैद नहीं रहना चाहते, बल्कि वह इसमें भी सिर्फ चुनिंदा नवाबों और उसमें भी उनके किसी खास पहलू पर ही बात करने में सुकून पाते हैं, यह इस कदर है कि वह अपने प्रिय पात्र नवाब वाजिद अली शाह के भी सभी पहलुओं को रोशन नहीं करना चाहते। क्या उस लखनऊ का इतिहास चंद इमारतों, चंद नवाबों और चंद बेगमों तक सिमटकर रह जाएगा जो लखनऊ सनातन संस्कृति का प्रतीक स्थल रहा हो, जिस अवध की संस्कृति से सारा संसार प्रेरणा पाता हो, जहां आज भी रामराज्य के अवशेष दिखते हों।

जिस अवध में योग, भोग और शौर्य का संगम रहा हो, वहां क्या हम सिर्फ भोग को चित्रित करेंगे। जहां की खाद्य परंपरा सबसे समृद्ध रही हो वह लखनऊ क्या कबाब-बिरयानी तक सीमित हो जाएगा। जहां के शौर्य ने स्वतंत्रता संग्राम को ऊर्जा से भर दिया हो, वहां क्या सिर्फ विलासिता की चर्चा होगी। जहां कभी मजहब को प्रमुखता नहीं मिली हो, वहां क्या अब सिर्फ मजहब के आधार पर ही बातें होंगी। जहां दुनिया की सभी पूजा पद्धतियों और पंथों के आस्था स्थल हों और जो 'सर्वधर्म समभाव' का नायाब नमूना हो वहां क्या सिर्फ किसी विशेष मजहब के स्थलों पर ही हम अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे।

जिस अवध में आम आदमी को प्रमुखता हासिल रही हो, उस 99 फीसदी जनता को क्या हम इतिहास में कोई स्थान नहीं देंगे। जहां अलग-अलग समाज की अपनी-अपनी संगीतिक पहचान रही हो, उसे हम नजरअंदाज कर देंगे और जिस अवध में हर चीज सम्पूर्णता में हो, सम्पूर्णता ही जिसकी पहचान हो, उस अवध को क्या हम टूटे हुए आइने में ही देखेंगे? टंडन जी लिखते हैं कि यहीं पैदा हुआ, पला-बढ़ा मैं इन प्रश्नों के बीच आज जब बीते 80 वर्षों के एक-एक कदम को जोड़ता हूं और जीवनभर जो देखा, सुना, समझा, भोगा उसको एक सूत्र में पिरोता हूं तो एक ऐसे अनंत प्रवाह में खुद को पाता हूं, जहां न पूर्वाग्रह है, न जाने-अनजाने चली आईं संकीर्णताएं हैं और न ही अब कोई दुराव, छिपाव है।

जीवन के अनुभव-रस के इस निर्मल प्रवाह ने ही मुझे लखनऊ के पवित्र स्वरूप को आत्मसात करने की ताकत दी है और यहां की अनमोल विरासत के रहस्यों को परत-दर-परत समझने की दृष्टि दी है। यह दृष्टि सम्पूर्णता की ओर ले जाती है। एक दौर वो था जब यहां वैदिक संस्कृति थी। फिर एक दौर रामायणकालीन था, जब लक्ष्मण जी द्वारा यहां लक्ष्मणपुरी की स्थापना की गई, फिर कुषाणकाल, गुप्तकाल के दौर से होते हुए एक दौर उनका भी आया जिनका यहां की संस्कृति, इतिहास, परंपरा से कोई लेना-देना नहीं था। उन्हें तो बस यहां की समृद्धि, यहां की संस्कृति को लूटना और नष्ट करना था। ऐसे तुगलक, खिलजी जैसे सुलतानों से होते हुए शेख, पठान, मुगलकाल और अंत में नवाबी काल, फिर ब्रिटिश काल और आधुनिक लखनऊ तक के विविध पड़ाव गवाह हैं हमारे सांस्कृतिक प्रवाह के और समृद्ध विरासत के। भारी उतार-चढ़ाव के बावजूद यह सांस्कृतिक प्रवाह कभी रुका नहीं। लखनऊ एक शहर और बाजार नहीं 
ये गुम्बद-ए-मीनार नहीं
इसकी गलियों में मोहब्बत के फूल खिलते हैं
इसके कूचों में फरिश्तों के पते मिलते हैं।
 
तीन टीलों, अस्सी गांवों के कुल सत्ताईस किलोमीटर के रकबे का यह छोटा सा भूखंड हमारी हजारों साल की संस्कृति को संजोता रहा। आज भी इसका मूल स्वरूप बरकरार है, भले ही प्रदूषित हो गया हो। इसी कारण लखनऊ में आकर इस्लामिक संस्कृति में भी बदलाव आया। कट्‌टरता कभी यहां पनप नहीं सकी, उदार इस्लाम का स्वरूप यहां स्थापित हुआ। क्योंकि जो शेखों के समय, पठानों के समय, मुगलों के समय, नवाबों के समय और अंग्रेजों के समय में नहीं हुआ, वो अब हो रहा है। लक्ष्मण टीला जैसी घटनाएं जब होती हैं, हमारी समृद्ध परंपराओं को जब भुलाया जाने लगता है, जब ले-देकर बात नवाबी काल और विलासिता तक अटक जाती है। जब इतिहास बदलने की कोशिशों पर यहां की संस्कृति के व्‍याख्‍याता चुप्पी साध लेते हैं और जब सहस्राब्दियों पुरानी संस्कृति के स्मारकों पर मनमाने ढंग से कब्जा होने लगता है तो मन आशंका से घिर उठता है कि क्या समय की धारा बदल रही है, क्या इतिहास झुठला दिया जाएगा, जिस संस्कृति को हमारे पूर्वज हजारों वर्षों से संजोते चले आए उसे क्या हम सुरक्षित हाथों में आगे नहीं बढ़ा पाएंगे? ऐसे प्रश्न मन को व्याकुल करते हैं, क्रोध और निराशा को जन्म देते हैं।
जबकि लखनऊ ही वह स्थान रहा है जहां आस्थाओं के अलग-अलग रंगों में कभी कोई टकराव नहीं रहा।

जिस एक बिन्दु पर सभी पंथ, मजहब मिलते हैं, वह बिन्दु यहां प्रमुखता से स्थापित रहा, एक-दूसरे को सुख देने की परंपरा कभी कमजोर नहीं पड़ी और योग-भोग के समन्वित आनंद में डूबा एक उदार समाज सभी प्रकार के वैभवों से इस कदर परिपूर्ण रहा कि आम आदमी का चेहरा भी उल्लास से दमकता रहा। यह उल्लास यूं ही नहीं था। लखनऊ के आम आदमी को भी खास होने का रुतबा हासिल था। उसकी भी हैसियत कम नहीं थी। उसे भी भरपूर सम्मान हासिल था। यह यहां की संस्कृति का तो कमाल था ही लेकिन ऐसा इसलिए भी था क्योंकि यहां का हर हाथ किसी न किसी कला से परिपूर्ण था। यह हुनरमंदी एक-दूसरे को अपने आकर्षण में बांधे रखती थी और यह आपसी जुड़ाव समाज की इतनी बड़ी ताकत बन गया था कि यहां 'मजहब' कभी प्रमुखता में नहीं आ पाया।

धर्म, पंथ, जाति के नाम पर होने वाली दूरियां, छुआछूत, वैमनस्यता अवध की संस्कृति में कभी नहीं दिखी। यहां का समाज कभी बंटा-बंटा नहीं दिखा। सभी एक-दूसरे से किसी न किसी रूप में बंधे हुए थे। ऐसा अन्योन्याश्रित समाज शायद रामराज्य के प्रतीक के रूप में यहां विद्यमान रहा। जिस समाज का रंगरेज इतनी ताकत रखता था कि उसके नाम से आज गामा का पुल है, हिन्दू धोबी का इतना सम्मान था कि जिस गांव में उसकी बेटी की शादी हुई है, वहां मुस्लिम बुजुर्ग गए तो बेटी का विवाह होने के कारण पानी तक नहीं पिया, लड्‌डन मियां जब पक्षियों को पाठ पढ़ाने घरों में पहुंचते तो सभी उनका ध्यान रखते, छोटा सा काम करने वाले मैकू की शानदार खयालगो होने के कारण शोहरत बड़ी थी, सफाईकर्मी को भी हमारे घरों में बच्चों को खिलाने का अधिकार था और हम उन्हें 'काकी' का सम्मानजनक संबोधन देते थे, जन्माष्टमी की साज-सज्जा मुस्लिम हाथों द्वारा होती थी तो ताजिए के नीचे से निकलने की होड़ में हिन्दू आगे रहते थे। मुस्लिम, हिंदू का भेद कहीं नहीं दिखता था।

यहां आनंद की अखंड परंपरा स्थापित थी। राजा-महाराजा, नवाब-सुल्तान के इर्दगिर्द नहीं बल्कि सर्वसाधारण पर केन्द्रित यहां की संस्कृति के कारण ही नवाबी काल में भी लखनऊ सर्वधर्म समभाव का मॉडल बना रहा और जब नवाब वाजिद अली शाह अपनी जनता को छोड़कर मटियाबुर्ज चले गए तो ऐसे आपदाकाल में भी सर्वसाधारण की ताकत ही सामने आई और अंग्रेजों को लोहे के चने चबाने पड़े। राजा के चले जाने के बाद प्रजा का ऐसा प्रतिरोध विश्व इतिहास में कहीं नहीं मिलता। यह थी लखनऊ के आम आदमी की ताकत। यह था लखनऊ का अपना वैशिष्ट्‌य। लोग तो लोग यहां पशु-पक्षी भी बड़े ही मौज में रहे। किस कदर उनकी देखभाल होती थी, कितना लाड़-दुलार उन पर लुटाया जाता था। उनका मीनू तैयार करने में कितनी मशक्कत होती थी। गृहस्थों के साथ-साथ साधु, संन्यासी, फकीरों को भी लखनऊ खूब रास आता था।

देशभर के किन्नर यहां आकर मेला लगाते थे। सूफी संतों के रूप में इस्लाम का आध्यात्मिक संस्करण यहां प्रमुखता से स्थापित था। शाहमीना की मजार आज भी मौजूद है। शिया, सुन्नी, कानखाई भी यहां आनंद से रहते थे। नानकशाही संगतों की यहां भरमार थी तो कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट ईसाई भी अपने आस्था के स्थलों को सजाते-संवारते रहे। छाछी कुआं हनुमान मंदिर तुलसीदास जी के आने का गवाह है तो बड़ी कालीजी का मंदिर शंकराचार्य के आने की पुष्टि करता है।

गुरु तेग बहादुर यहियागंज में ठहरे थे, जहां आज उनके नाम से गुरुद्वारा है। हुमायूं को यहां के आतिथ्य का आनंद मिला था तो बादशाह अकबर सहित तमाम बादशाहों के लखनऊ आने की चर्चाएं भी रही हैं। सभी महापुरुषों के आकर्षण का केन्द्र रहा लखनऊ कभी भी अंधेरे में नहीं रहा, हमेशा इसकी रोशनी लोगों को आनंद मार्ग दिखाती रही। रामराज्य से चली आ रही जीवन को सुख से भरे रखने वाली परंपराएं, कलाएं आज भी किसी न किसी रूप में अवध में विद्यमान हैं। ऐसी महान संस्कृति को सामने लाने की कोशिश है यह पुस्तक।

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