प्रीति सोनी
जब दो कवि मन एक दूसरे को जानते-समझते हुए हर चीज के प्रति एक-नजरिया रखते हैं, तो उसका प्रतिबिंब कुछ मेरी-कुछ तुम्हारी काव्य संग्रह के रूप में नजर आता है। श्रीति राशिनकर और संदीप राशिनकर द्वारा रचित यह काव्य संग्रह, मौलिकता और सौम्य-स्वछंद भावों का एक पिटारा है, जिसे समय-समय पर कागज पर उतारा गया है, और अंत में एक किताब में समाहित कर दिया गया है।
संदीप और श्रीति द्वारा लिखित इस काव्य संग्रह में, किसी भी विषय को उसकी प्राकृतिक खूबसूरती के साथ पेश किया गया है। कविताओं के जरिए हर विषय के उन पहलुओं को उकेरा गया है, जो वास्तव में उस विषय के आधारभूत भाव हैं, लेकिन समय के साथ उनके मायने बदल गए हैं। दहलीज जैसी कविताओं में यह बात बहुत साफ तौर पर दिखाई देती है -
सांझ होते ही दहलीज पर,
खड़ी होती थी मां प्रतीक्षारत
परिवार के हर सदस्य के लिए
लेकिन
आज ना वह दहलीज है
ना ही मां...
अर्थ नामक कविता में भी दहलीज के भाव को जिस तरह से अभिव्यक्त किया गया है, वह मन को छूकर पाठकों को एक बार सोचने पर जरूर विवश करती है। खास तौर से उन लोगों को, जो वाकई अपनी दहलीज से जुड़े हैं या उसके प्रति प्रेम और लगाव रखते हैं।
वे जानना चाहते हैं, पूछते हैं मुझसे
मुझसे दहलीज का अर्थ
मैं उन्हें समझाना चाहती हूं, दहलीज यानि
मर्यादा, संस्कार और संस्कृति
लेकिन दहलीज का अर्थ समझने के लिए
मैं ढूंढती हूं दहलीज
जो समय के साथ गुम हो गई है...
संदीप और श्रीति ने कविता के माध्यम से अपने मन में उठती कई छोटी-छोटी बातों को कागज पर उतारा है, जो शहरीपन से दूर ठेठ और सामान्य जीवन के प्रति ध्यान आकर्षित करता है। हाट जाती महिलाएं कविता इसका एक उदाहरण है -
हाट जाती महिलाएं
झोपड़ियों से निकलते वक्त
ध्यान नहीं देती अपने लिबास पर
ना ही सज धज कर तैयार होना पड़ता है उन्हें
बच्चों को भी ले जाती हैं वे कंधे पर बिठाकर...
विज्ञापन कविता में चकाचौंध भरी दुनिया और स्तरीय जीवन से हटकर, ऐसी कई बातों पर प्रकाश डाला गया है, जो विज्ञापन के पोस्टर के पीछे दबी जरूर हेती हैं लेकिन कभी उन पर जगह नहीं पाती। उसमें विज्ञापनों की नकली जीवन के प्रति उठता सवाल दिखाई देता है, तो कभी अपनेपन, प्रेम और खुशनुमा जीवन के लिए बनावटीपन की जरूरत पर।
विज्ञापनों में नहीं दिखते
गरीबी से जूझते लोग या फिर
दूध के लिए तरसते बच्चे
काश किसी दिन ये भी हो जाए सच
या फिर हम निकल आएं बाहर इस आभासी चकाचौंध से....
विश्वास कविता के जरिए कवयित्री श्रीति ने आपसी रिश्तों के अलावा विश्वास शब्द की उस गहराई पर प्रकाश डाला है, जो केवल इंसान ही नहीं बल्कि जीव-जंतु भी करते हैं निर्जीव से लेकर सजीव वस्तुओं पर। एक तरफ श्रीति की कविताओं में सौम्य विषय और भाव को दर्शाया गया है, वहीं संदीप की कविताओं में गंभीरता और अनुभव का संयोजन दिखाई देता है।
पिता की मौत के बाद मिलते ही किसी पूर्व पीरिचित से
कहने लगे, अब दिखने लगे हो कुछ-कुछ अपने पिता से
याद आया, कहते हैं मृत्यु के बाद
लौट आते हैं पिता अपने पुत्र में
वे लौटते हैं बातचीत में, लहजे में ....
संदीप की कविताओं में गांभीर्य होते हुए भी भारीपन नहीं लगता। कुछ कविताएं उनके प्रकृति और पंछियों के प्रति प्रेम को दर्शाती हैं, तो कुछ आपसी संबंधों की मिठास और गर्माहट को बयां करती हैं। संदीप और श्रीति दोनों की ही कविताओं में गौरेया और आंगन के प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति प्रेम दिखाई देता है। कुछ कविताओं में मन की वह आवाज है, जो केवल खुद से कही और सुनी जाती है और अपना रास्ता भी खुद ही बनाती है।
* जब कभी तुम मिला करो
फूलों सा खिला करो
खिलने से तुम्हारे खिलता है मधुमास....
* गर कहीं भी उतरती है कविता
तो सच मानिए
कहीं भी आसपास होगी गोरैया....
* मैं चस्पा होना चाहता हूं
बनकर पहचान अजनबी की आंखों में
मैं बनना चाहता हूं आवाज बेजां...
श्रीति और संदीप राशिनकर का संयुक्त काव्य संग्रह कुछ मेरी-कुछ तुम्हारी, प्रत्येक इंसान के अंत:करण में उठते विचारों का आईना सा लगता है, जो अनकहे होते हैं। इस संग्रह में मन और मस्तिष्क की सतह और गहराई में तैरते भावों को अभिव्यक्त किया गया है। वे भाव और विचार कभी फुरसत में तो कभी व्यस्तता के बीच हर इंसान के मन में होते तो हैं लेकिन उनकी अभिव्यक्ति नहीं होते। वे भाव और विचार, जो किसी स्तर विशेष से अलग हटकर एक सामान्य इंसान के मन में अप्रत्यक्ष, अनजाने और अनाभिव्यक्त होकर रह जाते हैं। मन के कच्चेपन के सौंदर्य से सराबोर ये कविताएं जमीन से जुड़ी हुईं महसूस होती है। इसलिए ये कहीं भी तराशी हुई नजर नहीं आती। बल्कि असली मिट्टी की खुशबू पाठकों तक पहुंचाती हैं।
नाम- कुछ मेरी, कुछ तुम्हारी
कवि - श्रीति राशिनकर, संदीप राशिनकर
प्रकाशक - अंसारी पब्लिकेशन
कीमत - 250 रुपए