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ग़ालिब का ख़त-19

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मेरी जान,

Aziz AnsariWD
आख़िर लड़के हो, बात को न समझे। मैं तो और तफ्ता का अपने पास होना ग़नीमत न जानूँ। मैंने यह लिखा था कि बशर्त-ए-इक़ामत बुला लूँगा और फिर लिखता हूँ कि अगर मेरी इक़ामत यहाँ की ठहरी तो बे तुम्हारे न रहूँगा, न रहूँगा, ज़िनहार न रहूँगा।

मुंशी बालमुकुंद बेसबर का ख़त बुलंदशहर से दिल्ली और दिल्ली से रामपुर पहुँचा। तलफ़ नहीं हुआ। अगर मैं यहाँ रह गया, तो यहाँ से, और अगर दिल्ली चला गया, तो वहाँ से इस्लाह देकर उनके अशाअ़र भेज दूँगा।

  कल तक क़िस्सा नहीं चुका। मैं जल्दी नहीं करता, दो-एक महाजन बीच में हैं, हफ्ते-भर में झगड़ा फ़ैसल हो जाएगा, ख़ुदा करे, यह ख़त तुमको पहुँच जाए। जिस दिन बारात से फिरकर आओ, उसी दिन मुझको अपने वुरूद-ए-मसऊद की खबर देना।      
बेसबर को अब के बारह महीना-भर सबर चाहिए। वह लिफ़ाफ़ा बदस्तूर रखा हुआ है। अज़बसक़ि यहाँ के हज़रत मेहरबानी फ़रमाते हैं और हर वक्त आते हैं, फ़ुर्सत-ए-मुशाहिदा-ए-औराक़ नहीं मिली। तुम इसी रुक्के़ को उनके पास भेज ‍देना।

14 फरवरी 1860 ई. ग़ालिब

भाई, आज इस वक्त तुम्हारा ख़त पहुँचा। पढ़ते ही जवाब लिखता हूँ। ज़र-ए-सह साला-ए-मुजतम्मा हज़ारों कहाँ से हुए। सात सौ पचास रुपया साल पाता हूँ। तीन बरस के दो हज़ार दो सौ पचास रुपए। सौ रुपए मुझे मदद-खर्च मिले थे वे कट गए, डेढ़ सौ मुतफ़र्रिक़ात में गए, रहे दो हज़ार रुपए। मीर मुख्तार कार एक बनिया है और मैं उसका कर्जदार क़दीम हूँ।

अब जो वह दो हज़ार लाया, उसने अपने पास रख लिए और मुझसे कहा कि मेरा हिसाब कीजिए। सात कम पंद्रह सौ उसके सूद-मूल के हुए। क़र्ज़ मुतफ़र्रिक़ात ग्यारह सौ चुका दे, नौ सौ बाक़ी रहे, आधे तू ले, आधे मुझको दे, परसों चौथी को वह रुपया लाया है।

कल तक क़िस्सा नहीं चुका। मैं जल्दी नहीं करता, दो-एक महाजन बीच में हैं, हफ्ते-भर में झगड़ा फ़ैसल हो जाएगा, ख़ुदा करे, यह ख़त तुमको पहुँच जाए। जिस दिन बारात से फिरकर आओ, उसी दिन मुझको अपने वुरूद-ए-मसऊद की खबर देना।

मई 1860 ग़ालिब

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