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हारी तो कांग्रेस, जीते तो राहुल गांधी...

-वेबदुनिया चुनाव डेस्क

हमें फॉलो करें हारी तो कांग्रेस, जीते तो राहुल गांधी...
हालांकि इसकी उम्मीद कम ही है कि केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व में एक बार यूपीए सरकार बन जाए। इसी के मद्देनजर कांग्रेस में ऊपरी स्तर पर चिंतन-मंथन भी शुरू हो गया होगा। यह भी तैयारियां शुरू हो गई हैं कि इस हार का जिम्मेदार किसे ठहराया जाए? पार्टी के युवराज राहुल गांधी और सुप्रीमो सोनिया गांधी को तो कतई नहीं।

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दरअसल, कांग्रेस में सच को स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है। चापलूसी वहां पर हर स्तर पर मौजूद है। कोई भी सोनिया गांधी या राहुल के खिलाफ जाकर सच बोलने की हिम्मत नहीं कर सकता। यूपीए सरकार का कार्यकाल ही देख लें, प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह पर विपक्ष के कई हमले हुए, कभी-कभी तो पार्टी के भीतर से ही उन पर हमले हुए, लेकिन कोई उनके बचाव में सामने नहीं आया। राहुल गांधी सार्वजनिक रूप से अध्यादेश को पुर्जे-पुर्जे कर देते हैं, उसकी आलोचना नहीं होती। लेकिन, जब सोनिया या राहुल गांधी पर हमला होता है तो हर छोटा-बड़ा कांग्रेसी उनके बचाव में मैदान संभाल लेता है। पार्टी ऐसे और भी कई उदाहरण दिए मिल जाएंगे।

पिछला लोकसभा चुनाव सबको याद होगा जब उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों में कांग्रेस ने ठीक-ठाक प्रदर्शन किया था, जीत का सेहरा राहुल के सिर बांधने में तनिक भी विलंब नहीं किया गया और उनकी शान में कांग्रेसियों ने कसीदे पढ़ना शुरू कर दिया था। जब पिछले ‍विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली तो राहुल को पीछे कर दिया गया और हार की जिम्मेदारी कांग्रेस पार्टी और उसके सभी नेता और कार्यकर्ताओं पर मढ़ दी गई। यदि कप्तान (राहुल गांधी) को जीत का श्रेय दिया जा सकता है तो फिर हार ठीकरा उसके सिर क्यों नहीं फोड़ा जा सकता।

एक्जिट पोल के नतीजे के साथ ही एक बार फिर कांग्रेस में हार का ठीकरा फोड़ने के लिए माथा ढूंढ़ने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ ने तो बयान भी जारी कर दिया है। उन्होंने इस बात को खारिज कर दिया कि चुनाव में संभावित खराब प्रदर्शन राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता की कमी का संकेतक होगा। कमलनाथ ने कहा कि राहुल कभी संप्रग सरकार का हिस्सा नहीं थे। अर्थात कमलनाथ की मानें तो इस हार के लिए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ही जिम्मेदार हैं क्योंकि वे ही सरकार का नेतृत्व कर रहे थे।

कमलनाथजी शायद यह भूल गए कि चुनाव प्रचार के दौरान तो पार्टी ने राहुल को ही ज्यादातर समय आगे रखा था, मनमोहनसिंह तो बेचारे प्रचार के दौरान कहीं दूर-दूर तक भी नहीं दिखाई दिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि राहुल को आलोचना से बचाना पार्टी के हर नेता का दायित्व है, लेकिन इस हद तक नहीं कि वह चापलूसी लगने लगे और राहुल स्वयं अपनी हकीकत से रूबरू न हो पाएं। इससे तो पार्टी का नुकसान ही होगा।

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