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बिखरे और निस्तेज विपक्ष के चलते कांग्रेस फिर बाजी मार गई

-पार्थ अनिल

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, बुधवार, 14 मई 2014 (15:57 IST)
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कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए ने 2009 का चुनाव अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर अपनी सरकार के संतोषजनक प्रदर्शन के सहारे लड़ा। इस चुनाव में उसे उसकी 'मनरेगा' जैसी कल्याणकारी महत्वाकांक्षी योजना के कारण ग्रामीण मतदाताओं का भी भरपूर समर्थन मिला।

हालांकि बिहार में लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) इस चुनाव में यूपीए का हिस्सा नहीं थी, क्योंकि सीटों के बंटवारे को लेकर इन दोनों पार्टियों की कांग्रेस से ठन गई थी। इसके बावजूद यूपीए में कांग्रेस के साथ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस, झारखंड मुक्ति मोर्चा आदि पार्टियां शामिल थीं।

इस चुनाव का सबसे अहम पहलू यह था कि 5 दशक तक देश की राजनीति में सक्रिय रहे भाजपा के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी इस बार अपनी अस्वस्थता के चलते न सिर्फ चुनाव मैदान से, बल्कि पूरे राजनीतिक परिदृश्य से ही गायब हो चुके थे।

भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक जॉर्ज फर्नांडीस भी अपनी बीमारी के चलते सक्रिय राजनीति से करीब-करीब दूर हो गए थे। ऐसी स्थिति में राजग का नेतृत्व अब वाजपेयी और जॉर्ज की जगह लालकृष्ण आडवाणी और जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव के हाथों में आ गया था, लेकिन राजग के कुनबे का आकार काफी घट गया था।

इसमें भाजपा के साथ जनता दल (यू), शिवसेना, अकाली दल, असम गण परिषद और इंडियन नेशनल लोकदल ही बचे थे।

वाम दलों, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राजद, लोजपा, बीजू जनता दल, तेलुगुदेशम, अन्नाद्रमुक, एचडी देवेगौड़ा के जनता दल सेकुलर आदि ने अपने-अपने प्रभाव वाले राज्यों में अकेले ही यह चुनाव लड़ा। कुल मिलाकर विपक्ष इस चुनाव में सत्तारूढ़ गठबंधन के मुकाबले लगभग निस्तेज और निहत्था था।

15वीं लोकसभा के लिए हुए इस चुनाव में 16 अप्रैल से 13 मई तक 5 चरणों में मतदान संपन्न हुआ। 16 मई को चुनाव नतीजे घोषित हुए जिसमें कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन यूपीए को 250 से अधिक सीटें हासिल हुईं।

अकेले कांग्रेस को ही 207 सीटें मिलीं। उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और राजस्थान में यूपीए ने बेहतर प्रदर्शन किया और वह डॉ. मनमोहन सिंह की अगुवाई में एक बार फिर सरकार बनाने की स्थिति में आ गया।

भाजपा की अगुवाई वाले राजग ने इस चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी को अपना प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया था, लेकिन चुनाव में न सिर्फ राजग की हार हुई बल्कि भाजपा को करारा झटका यह भी लगा कि 14वीं लोकसभा के मुकाबले उसकी सदस्य संख्या इस लोकसभा में 138 से घटकर 116 रह गई।

गैर कांग्रेसी-गैर भाजपाई सरकार का सपना पालने वाले वाम मोर्चा का भी इस चुनाव में अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन रहा। पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोर्चा की, तमिलनाडु में जयललिता के अन्नाद्रमुक की, आंध्रप्रदेश में तेलुगुदेशम की और बिहार में लालू यादव तथा रामविलास पासवान की करारी हार हुई।

ओडिशा में बीजू जनता दल अपना किला बचाने में कामयाब रहा और उसने राज्य की 20 में से 14 सीटें हासिल कीं। बिहार में जनता दल (यू) ने भी अपनी ताकत में इजाफा करते हुए राज्य की 40 में से 20 सीटों पर कब्जा किया।

उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी बेहतर प्रदर्शन किया। उन्हें क्रमशः 22 और 21 सीटें मिलीं। यूपीए ने इन दोनों पार्टियों की मदद से फिर केंद्र में सरकार बनाई। यूपीए के पहले कार्यकाल में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री रहीं मीरा कुमार इस लोकसभा की अध्यक्ष चुनी गईं।

यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल का रिकॉर्ड कमोबेश साफ-सुथरा रहा था लेकिन उसका दूसरा कार्यकाल तो मानो घोटालों और घपलों का पर्याय ही बन गया। महंगाई के मोर्चे पर भी यूपीए सरकार बुरी तरह नाकाम रही।

भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल के लिए अण्णा हजारे के नेतृत्व में हुए जनांदोलन ने इस सरकार की चूलें ही हिला दीं। तमाम मोर्चों पर नाकाम रही इस सरकार को लेकर देश के जनमत की अंतिम रूप से क्या प्रतिक्रिया रहती है, इसका पता 16 जून (शुक्रवार) को आने वाले 16वें आम चुनाव के नतीजों से मिल जाएगा।

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