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कांग्रेस की सत्ता से बेदखली का ऐतिहासिक जनादेश, देश को मिली दूसरी आजादी

आम चुनाव की कहानी-1977

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-पार्थ अनिल
आजाद भारत के चुनावी इतिहास में 1977 का आम चुनाव हमेशा बेहद शिद्दत से याद किया जाएगा, क्योंकि यह आम चुनाव इससे पहले और इसके बाद अब तक हुए सभी आम चुनावों से कई मायनों में अलग था।
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छठी लोकसभा चुनने के लिए हुए इस चुनाव ने देश में सत्ता का पर्याय बन चुकी कांग्रेस को न सिर्फ सत्ता से बेदखल कर राजनीति की धारा पलट दी थी बल्कि देश में लोकतंत्र की पुनर्स्थापना भी की थी। एक तरह से यह चुनाव देश की दूसरी आजादी का संघर्ष था। इस चुनाव में कांग्रेस सिर्फ सत्ता से ही बेदखल नहीं हुई बल्कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी चुनाव हार गईं।

1971 के आम चुनाव में 'गरीबी हटाओ' का नारा देकर अपनी पार्टी कांग्रेस को दो-तिहाई बहुमत दिलाने वाली इंदिरा गांधी का करिश्मा 1974 आते-आते समाप्त होने लगा। गरीबी तो नहीं हटी, लेकिन 1977 में कांग्रेस जरूर सत्ता से हट गई।

1971 के आम चुनाव के कुछ महीने बाद माह बाद बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम को लेकर हुए युद्घ में पाकिस्तान को करारी शिकस्त देकर इंदिरा गांधी दुर्गा के अवतार के रूप में उभरी थीं। इस युद्ध में पाकिस्तान के करीब 1 लाख सैनिकों ने भारतीय सेना के समक्ष समर्पण किया।

युद्ध के 2 साल बाद 18 मई 1974 को इंदिरा गांधी ने पोखरण में पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण करवाकर जहां भारत को दुनिया परमाणु शक्ति संपन्न देशों की जमात के समकक्ष खड़ा कर दिया, वहीं 1975 में सिक्किम का भारत में विलय कर देश के नक्शे का आकार बढ़ाया।

इंदिरा गांधी के रूप में पहली बार किसी नेता ने देश के भूगोल का विस्तार किया। लेकिन उनकी इन्हीं अप्रतिम उपलब्धियों के समानांतर जयप्रकाश नारायण (जेपी) के आंदोलन की आहट भी सुनाई देने लगी। पहले गुजरात और फिर बिहार में शुरू हुए इस आंदोलन की लपटें देश के दूसरे हिस्सों में भी पहुंचने लगीं।

इसी बीच इंदिरा गांधी के खिलाफ 1971 के उनके चुनाव पर इलाहाबाद हाई कोर्ट फैसला आ गया जिसमें उनके निर्वाचन को रद्द करते हुए उन्हें 5 वर्ष के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया।

इस पूरे घटनाक्रम से देश की राजनीति जबरदस्त रूप से गरमा गई। जेपी आंदोलन ने इस कदर जोर पकड़ा कि इंदिरा गांधी और उनकी सरकार बुरी तरह हिल गई।

अपने खिलाफ आए इलाहबाद हाई कोर्ट के फैसले के मद्देनजर इंदिरा गांधी ने इस्तीफा देने के बजाय 26 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू कर दिया। विपक्षी दलों के तमाम नेताओं और हजारों कार्यकर्ताओं को आंतरिक सुरक्षा कानून (मीसा) के तहत जेल में डाल दिया गया।

इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी निरंकुश और संविधानेत्तर सत्ता के केंद्र बन गए। उनके परिवार नियोजन कार्यक्रम के नाम पर हुई जोर-जबरदस्ती ने हाहाकार मचा दिया।

आपातकाल के दौरान वह सब कुछ हुआ जिसकी एक आजाद और लोकतांत्रिक मुल्क में कोई उम्मीद भी नहीं कर सकता। प्रेस सेंसरशिप के नाम पर समाचार माध्यमों की आजादी का गला घोंट दिया गया था।

इंदिरा गांधी चापलूसों और चाटुकारों से घिरी हुई थीं। कहीं से कोई प्रतिरोध की आवाज नहीं उठ रही थी, लिहाजा इंदिरा गांधी को लगा कि पूरा देश उनके साथ है और अगर ऐसे में चुनाव कराए जाएं तो जीत फिर उन्हीं की होगी। उनकी खुफिया एजेंसियों ने भी उन्हें इसी आशय की सूचनाएं दी।

इसी सबके चलते अति आत्मविश्वास से भरी इंदिरा गांधी ने 1977 के जनवरी महीने में आम चुनाव कराने की घोषणा कर दी। अंततः 19 महीने बाद आपातकाल खत्म हुआ। जेलों में बंद लगभग नेता रिहा कर दिए गए। देश में 1977 का छठा आम चुनाव हुआ। इस चुनाव में दो ही मुद्दे थे- आपातकाल और नसबंदी।

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पहली बार विपक्ष एकजुट हुआ, जगजीवन राम और बहुगुणा ने कांग्रेस छोड़ी : इस आम चुनाव में पहली बार लगभग समूचा विपक्ष एकजुट हुआ। जेपी की पहल पर कम्युनिस्टों को छोड़कर सबने अपनी-अपनी पार्टियां समाप्त कर जनता पार्टी बनाई। भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ और संगठन कांग्रेस के विलय बनी इस पार्टी में कांग्रेस से बगावत कर बाहर आए चन्द्रशेखर, रामधन, मोहन धारिया, कृष्णकांत आदि नेता भी शामिल थे।

चुनाव की घोषणा के ठीक बाद कांग्रेस को उस वक्त तगड़ा झटका लगा, जब इंदिरा गांधी की सरकार के वरिष्ठ मंत्री बाबू जगजीवन राम और उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने कांग्रेस से इस्तीफा देने का ऐलान कर दिया।

दोनों नेता हालांकि शुरू में जनता पार्टी में शामिल नहीं हुए और उन्होंने 'कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी' के नाम से अपनी अलग पार्टी बनाई लेकिन चुनाव उन्होंने जनता पार्टी के साथ मिलकर ही लड़ा। कम्युनिस्टों में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) भी जनता पार्टी के साथ थी, जबकि भाकपा कांग्रेस के साथ थी।

उत्तर और दक्षिण ने पकड़ी अलग-अलग राह : 1977 के चुनाव की कई विशेषताएं थीं। कांग्रेस तो सत्ता से बाहर हुई ही थी लेकिन पहली बार भारतीय मतदाताओं की मानसिकता और व्यवहार में उत्तर और दक्षिण का विभाजन भी दिखा।

लोकसभा की 542 सीटों पर हुए इस चुनाव में कांग्रेस 492 सीटों पर लड़ी थी और उसे 157 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। उसके 18 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी।

उसका मत प्रतिशत घटकर 34.5 फीसदी रह गया। दिलचस्प यह रहा कि उत्तर भारत में उसका सफाया हो गया था, लेकिन दक्षिण के राज्यों खासकर आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में उसने सबका सफाया कर दिया था।

आंध्र की 42 में से 41 सीटें कांग्रेस के खाते में गई, जबकि कर्नाटक में वह 28 में से 26 सीटें जीतने में कामयाब रही। उसने तमिलनाडु और केरल में भी क्रमशः 13 और 11 सीटों पर जीत दर्ज की।

हैरान करने वाली बात यह भी रही कि जिस गुजरात से जेपी आंदोलन का आगाज हुआ था उस गुजरात में भी कांग्रेस 26 में से 10 सीटें जीतने में कामयाब रही। महाराष्ट्र और असम में भी उसने क्रमशः 20 और 10 सीटों के साथ अपनी असरदार उपस्थिति बनाए रखी।

उत्तर भारत के चुनाव नतीजे दक्षिण के ठीक विपरीत रहे। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और हिमाचल की करीब 240 सीटों में कांग्रेस को मात्र 2 ही सीटें मिली थीं। उसे कुल मिली 154 सीटों में से 92 सीटें दक्षिण भारत की थीं।

4 प्रमुख दलों के विलय जनता पार्टी का गठन जरूर हो गया था, लेकिन तकनीकी तौर पर उसे राष्ट्रीय स्तर की मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल का दर्जा हासिल नहीं हुआ था, लिहाजा उसके सारे उम्मीदवार भारतीय लोकदल के चुनाव चिह्न हलधर पर ही चुनाव लड़े।

जनता पार्टी ने 405 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए जिनमें से 295 जीते। उसके मात्र 5 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई। उसे 41 फीसदी से ज्यादा वोट मिले। जगजीवन राम की पार्टी को भी 3 सीटें मिली और उन्होंने चुनाव नतीजे आने के बाद अपनी पार्टी का जनता पार्टी में विलय कर दिया। इस प्रकार जनता पार्टी के सांसदों की संख्या 298 हो गई। माकपा को 22 सीटें मिली जबकि कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ी भाकपा को महज 7 सीटों से ही संतोष करना पड़ा।

उधर तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) में हुए विभाजन से ऑल इंडिया अन्नाद्रमुक उदय हो गया था। एमजी रामचंद्रन के नेतृत्व में अन्नाद्रमुक को राज्य की 39 में से 18 सीटों पर विजय मिली, जबकि एम. करुणानिधि की द्रमुक को मात्र 2 सीटें मिलीं। इस चुनाव में 9 निर्दलीय भी चुनाव जीतने में सफल रहे।

देशभर में कुल 2,439 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था जिनमें से 1,356 की जमानत जब्त हो गई थी। चुनाव मैदान में 70 महिलाएं भी थीं जिनमें से 19 को जीत हासिल हुई और 31 को अपनी जमानत गंवानी पड़ी।

इस चुनाव को बतौर मतदाता 32 करोड़ से ज्यादा लोगों ने देखा। इनमें 16.70 करोड़ पुरुष थे और 15.42 करोड़ महिलाएं थीं, लेकिन मात्र 19.43 करोड़ लोगों ने ही अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया यानी मतदान का प्रतिशत 60.49 रहा।

लोकसभा की कुल 542 सीटों पर हुए इस चुनाव में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 78 थी, जबकि अनुसूचित जनजाति के लिए 38 सीटें आरक्षित थीं। सामान्य श्रेणी वाली सीटों की संख्या 426 थी।

कांग्रेस के दक्षिणी किले में नहीं आई दरार... पढ़ें अगले पेज पर....



कांग्रेस के दक्षिणी किले में नहीं आई दरार : इस चुनाव में जीत-हार का गणित भी कम चौंकाने वाला नहीं था। उत्तर भारत में जनता पार्टी के सभी दिग्गज और दक्षिण भारत तथा पूर्वोत्तर के सभी बड़े कांग्रेसी नेता चुनाव जीतने में कामयाब रहे। तमिलनाडु की मद्रास-दक्षिण सीट से कांग्रेस के नेता आर. वेंकटरमण चुनाव जीते, जो बाद में देश के राष्ट्रपति बने। केरल से व्यालार रवि, सीएम स्टीफन और केपी उन्नीकृष्णन जीते।

आंध्रप्रदेश के तीनों कांग्रेसी दिग्गज पीवी नरसिंहराव, ब्रह्मानंद रेड्डी और विजय भास्कर रेड्डी भी चुनाव जीत गए थे। कर्नाटक से बी. शंकरानंद और सीके जाफर शरीफ की भी जीत हुई थी।

आपातकाल के दौरान 'इंदिरा इज इंडिया' कहकर चाटुकारिता की राजनीति के चरम पर पहुंचे कांग्रेस नेता देवकांत बरुआ भी असम की कलियाबोर सीट से जीतने में कामयाब रहे।

जोरहाट से तरुण गोगोई को भी जीत हासिल हुई थी। मेघालय की तुरा सीट से पीए संगमा और ओडिशा की कोरापुर सीट से गिरिधर गोमांग की भी जीत हुई थी।

महाराष्ट्र के सतारा संसदीय क्षेत्र से यशवंतराव चव्हाण भी जीत गए थे। जम्मू-कश्मीर की उधमपुर सीट से कर्ण सिंह गोवा की मार्मुगाओ सीट से एडुअर्डो फलेरियो भी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत गए थे।

गुजरात के अहमदाबाद संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के एहसान जाफरी भी जीते थे, जो 2002 में गोधरा हादसे के बाद गुजरात में हुई भीषण सांप्रदायिक हिंसा के दौरान जिंदा जला दिए गए थे।

कांग्रेस की सबसे आश्चर्यजनक जीत राजस्थान की नागौर सीट से नाथूराम मिर्धा और मध्यप्रदेश की छिंदवाड़ा सीट से गार्गी शंकर मिश्र की थी। समूचे उत्तर भारत में सिर्फ यही 2 सीटें कांग्रेस की झोली में गई थी।

1971 के आम चुनाव में जनसंघ के टिकट जीतने वाले माधवराव सिंधिया इस चुनाव में मध्यप्रदेश की गुना सीट से निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते।

जनता पार्टी के सभी दिग्गज चुनाव जीते : जनता पार्टी की ओर से जीते दिग्गजों में मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, बाबू जगजीवन राम, मधु लिमये, अटल बिहारी वाजपेयी, राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडीस, कर्पूरी ठाकुर, चंद्रशेखर, हेमवती नंदन बहुगुणा आदि शामिल थे।

मोरारजी देसाई गुजरात की सूरत सीट से चुनाव जीते थे। जगजीवन राम भी बिहार की सासाराम सीट से लगातार 6ठी बार लोकसभा में पहुंचे थे। बिहार की बांका संसदीय सीट से मधु लिमये और मुजफ्फरपुर सीट से जॉर्ज फर्नांडीस चुनाव जीते थे।

अटल बिहारी वाजपेयी इस बार नई दिल्ली से और चौधरी चरण सिंह उत्तरप्रदेश की बागपत सीट से जीते। सबसे दिलचस्प जीत समाजवादी नेता राजनारायण की हुई। जिस रायबरेली क्षेत्र से वे 1971 में इंदिरा गांधी से हारे थे उसी रायबरेली से उन्होंने इस चुनाव में इंदिरा गांधी को हरा दिया।

इलाहाबाद से विश्वनाथ प्रताप सिंह को हराकर जनेश्वर मिश्र भी लोकसभा में पहुंचे। अल्मोड़ा से मुरली मनोहर जोशी जीते थे तो उत्तरप्रदेश के बलरामपुर से नानाजी देशमुख की जीत हुई।

चौंकाने वाली जीत नीलम संजीव रेड्डी भी रही। वे आंध्रप्रदेश के नांदयाल लोकसभा क्षेत्र से जीते थे। आंध्रप्रदेश में यही एकमात्र सीट जनता पार्टी को मिली थी बाकी आंध्र की 42 में से 41 सीटें कांग्रेस को मिली थी।

इस चुनाव में जीतकर लोकसभा में पहली बार पहुंचने वाले नेताओं की फेहरिस्त भी लंबी है। 1990 में देश के प्रधानमंत्री बने चन्द्रशेखर उत्तरप्रदेश की बलिया सीट से चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे।

मोहन धारिया, मृणाल गोरे, हरिविष्णु कामथ, लालू प्रसाद यादव, धनिकलाल मंडल, रामविलास पासवान, रामनरेश यादव, राम जेठमलानी, कर्पूरी ठाकुर, शंकर सिंह वाघेला, सिकंदर बख्त, हेमवती नंदन बहुगुणा और उनकी पत्नी कमला बहुगुणा, मुरली मनोहर जोशी, मोहन धारिया, कृष्णकांत, सुब्रमण्यम स्वामी, बापू कालदाते जैसे नेता भी चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे।

मध्यप्रदेश के जबलपुर से शरद यादव चुनाव जीतकर दूसरी बार लोकसभा में पहुंचे थे। बिहार के समस्तीपुर से कर्पूरी ठाकुर, हाजीपुर से रामविलास पासवान और छपरा से लालू प्रसाद यादव जीते थे। समाजवादी नेता हरिविष्णु कामथ मध्यप्रदेश की होशंगाबाद सीट से चुनाव जीते थे।

मध्यप्रदेश के मौजूदा राज्यपाल रामनरेश यादव उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ से जीते थे। जनता पार्टी के सहयोगी अकाली दल के दिग्गज प्रकाश सिंह बादल भी फरीदकोट से चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे।

कम्युनिस्ट नेता ज्योतिर्मय बसु और सोमनाथ चटर्जी भी जीते। पश्चिम बंगाल की डायमंड हार्बर सीट से बसु की और जादवपुर सीट से सोमनाथ चटर्जी की जीत हुई थी।

जनता पार्टी की लहर में गिरे कई कांग्रेसी बरगद...पढ़ें अगले पेज पर....


दक्षिण भारत में जहां अधिकांश कांग्रेसी दिग्गज अपनी-अपनी सीटें बचाने में कामयाब रहे, वहीं उत्तर भारत में चली जनता पार्टी की लहर में कई कांग्रेसी बरगद जमींदोज हो गए। इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी तो हार का स्वाद चखना ही पड़ा, तमाम सूबाई क्षत्रपों को भी करारी हार का सामना करना पड़ा।

इंदिरा गांधी उत्तरप्रदेश की रायबरेली सीट से हारी थीं जबकि संजय गांधी को अमेठी से एक अनाम नेता रवीन्द्र प्रताप सिंह ने हरा दिया था। संजय गांधी का यह पहला लोकसभा चुनाव था। बिहार के दिग्गज कांग्रेसी नेताओ में केदार पांडेय, अब्दुल गफूर, जगन्नाथ मिश्र, भागवत झा आजाद, तारकेश्वरी सिन्हा आदि भी चुनाव हार गए थे।

इसी तरह उत्तरप्रदेश में केसी पंत, विश्वनाथ प्रताप सिंह, जितेन्द्र प्रसाद, शीला कौल, दिनेश सिंह, संत बख्श सिंह सरीखे सभी बड़े नेताओं को हार का मुंह देखना पड़ा। यही हाल मध्यप्रदेश में भी हुआ। भोपाल सीट पर डॉ. शंकरदयाल शर्मा को आरिफ बेग ने और रायपुर में विद्याचरण शुक्ल को पुराने समाजवादी पुरुषोत्तम कौशिक ने हराया।

कांग्रेस के मजदूर संगठन इंटक के अध्यक्ष नंदकिशोर भट्ट इंदौर में सोशलिस्ट नेता कल्याण जैन से पराजित हुए। पश्चिम बंगाल में प्रणब मुखर्जी और प्रियरंजन दासमुंशी की भी करारी हार हुई। एचकेएल भगत और सुभद्रा जोशी दिल्ली से हारे। सुभद्रा जोशी को सिकंदर बख्त ने हराया और भगत को एक अदने से नेता किशोरीलाल ने पराजित किया।

पंजाब में स्वर्ण सिंह, गुरुदयाल सिंह ढिल्लो, बूटा सिंह, दरबारा सिंह और अमरिंदर सिंह भी चुनाव हार गए थे। आपातकाल में ज्यादतियों के लिए बदनाम रहे चेहरों में से एक चौधरी बंसीलाल भी हरियाणा के भिवानी संसदीय क्षेत्र से बुरी तरह हारे।

मतदाताओं ने भाकपा को भी आपातकाल का समर्थन करने की सजा दी। उसके दो बड़े नेता सी. राजेश्वर राव और इंद्रजीत गुप्त चुनाव हार गए। राजेश्वर राव आंध्रप्रदेश की करीमनगर सीट से जबकि इंद्रजीत गुप्त की पश्चिम बंगाल की दमदम सीट से हार हुई।

इस चुनाव में आमतौर पर जनता पार्टी के सभी बड़े नेता चुनाव जीत गए थे, लेकिन पीलू मोदी और रामकृष्ण हेगड़े इस मामले में अपवाद रहे।

हेगड़े को कर्नाटक की कनारा सीट पर हार का मुंह देखना पड़ा, जबकि पीलू मोदी गुजरात की गोधरा सीट से चुनाव हार गए। उस गुजरात से जहां से जेपी आंदोलन की नीवरूपी छात्र आंदोलन की शुरुआत हुई थी।



जेल में रहते हुए जीते थे जॉर्ज फर्नांडीस... पढ़ें अगले पेज पर...

जेल में रहते हुए जीते थे जॉर्ज फर्नांडीस : इस चुनाव में सबसे ऐतिहासिक जीत बिहार के मुजफ्फरपुर संसदीय क्षेत्र से जॉर्ज फर्नांडीस की हुई थी। फायर ब्रांड समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस ने जनता पार्टी के टिकट पर यह चुनाव जेल में रहते हुए लड़ा था, क्योंकि इंदिरा गांधी की सरकार ने उन्हें बहुचर्चित बड़ौदा डायनामाइट कांड के सिलसिले में राजद्रोह का अभियुक्त बनाया था।

जॉर्ज उस समय दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद थे और जेल में रहते हुए ही उन्होंने चुनाव में अपनी नामजदगी का पर्चा दाखिल किया था। वे जेल में रहते हुए भी कांग्रेस के नीतीश्वर प्रसाद सिंह के मुकाबले 3 लाख से भी ज्यादा वोटों से जीते थे। चुनाव नतीजे आने के बाद ही जॉर्ज जेल से बाहर आ पाए थे।

संसद का सफर तय करने में दृष्टिहीनता बाधक नहीं बनी : उत्तर भारत में चली कांग्रेस विरोधी लहर में चुनाव जीतने वालों में एक उम्मीदवार ऐसे भी थे, जो पूरी तरह दृष्टिहीन थे। जनता पार्टी के टिकट पर मध्यप्रदेश के रीवा संसदीय क्षेत्र से जीतने वाले ये दृष्टिहीन उम्मीदवार थे समाजवादी नेता यमुना प्रसाद शास्त्री।

वे भारत के संसदीय इतिहास में एकमात्र ऐसे सांसद बने, जो देख नहीं सकते थे। यमुना प्रसाद शास्त्री कुदरती तौर पर दृष्टिहीन नहीं थे, बल्कि आजाद भारत में पुलिसिया जुल्म ने उनकी आंखें छीन ली थीं।

उन्होंने ने डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में चले गोवा मुक्ति आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की थी। आंदोलन के दौरान पुर्तगाली पुलिस ने उन्हें इस कदर पीटा था कि उनकी दाहिनी आंख की रोशनी 1955 में चली गई।

जो दूसरी आंख बची थी उसकी रोशनी 1975 में आपातकाल के ठीक पहले तब चली गई, जब वे मध्यप्रदेश विंध्य क्षेत्र में सोशलिस्ट पार्टी के झंडे तले हुए किसान आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे।

उस आंदोलन के दौरान पुलिस ने इस कदर जुल्म ढाया कि उनकी बाईं आंख की रोशनी भी चली गई। लेकिन उनकी नेत्रहीनता उनके संघर्षशील राजनीतिक सफर में बाधक नहीं बन सकी। वे 1962 से 1967 तक मध्यप्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे।

आपातकाल के दौरान पूरे 19 महीने जेल में रहे यमुना प्रसाद शास्त्री 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर रीवा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़े। इस चुनाव में उनका मुकाबला रीवा रियासत के पूर्व महाराजा मार्तण्ड सिंह से, था जो कांग्रेस समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार थे।

यमुना प्रसाद शास्त्री दूसरी बार 1989 में भी इसी क्षेत्र से जनता दल के टिकट पर फिर लोकसभा के लिए चुने गए। इस बार उन्होंने रीवा राजघराने की ही प्रवीण कुमारी देवी को हराया।

दृष्टिहीन होते हुए भी 2 बार लोकसभा का चुनाव जीतकर यमुना प्रसाद शास्त्री ने जो कीर्तिमान बनाया उससे साबित हो गया कि भारतीय लोकतंत्र में मन की आंखों से देखने वालों के लिए भी जगह है। देश के समाजवादी आंदोलन के माध्यम से राजनीति में लंबा सफर तय करने वाले यमुना प्रसाद शास्त्री का 20 जून 1997 को निधन हो गया।

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