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इस चुनाव को क्यों याद किया जाएगा?

-पार्थ अनिल

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16वीं लोकसभा चुनने के लिए हुआ आम चुनाव पिछले सभी आम चुनावों की तुलना में कई मायनों में खास रहा। खास इस मायने में कि इस बार अकेले किसी एक व्यक्ति यानी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी नाम पर सर्वाधिक वोट पड़ने की बात की जा रही है और मोदी जिस तरह इस चुनाव को अपनी तैयारियों से अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव जैसा बनाना चाहते थे उसमें वे काफी हद तक कामयाब भी रहे।
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खास इस मायने में भी कि इस बार चुनाव प्रचार भौंडेपन के निम्नतम स्तर पर पहुंचा और किसी भी खेमे ने अपने प्रतिद्वंद्वी पर व्यक्तिगत रूप से अपने कीचड़ उछालने में कोई कोताही नहीं की। इस सिलसिले में आधुनिक संचार सुविधाओं का भी अभूतपूर्व इस्तेमाल हुआ।

इस बार के चुनाव खास इसलिए भी रहे कि एक्जिट पोल के नतीजे आने के पहले ही शेयर बाजार कुलांचे भरता हुआ रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचता दिखा और डॉलर टूटने लगा। जिस तरह से बाजार एक्जिट पोल के ठीक पहले से उछलने लगा था, वह नतीजों के दिन तक कितने लोगों को मालामाल कर देगा, यह कहना मुश्किल है।

यह चुनाव इसलिए भी खास रहा कि चुनाव आयोग के चुनाव सुधार सबंधी तमाम दावों के बावजूद इस बार जिस तरह पानी की तरह पैसा बहाया गया, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। बेतहाशा खर्चीले चुनाव प्रचार का स्वाभाविक असर मीडिया और सर्वे एजेंसियों पर भी दिखा और उन पर भी एक व्यक्ति यानी नरेन्द्र मोदी का रंग छाया रहा।

यह भी संभव है कि सर्वेक्षण करने वाली कंपनियों ने सट्टेबाजी और मुनाफावसूली का खेल खेला हो। कहा जा सकता है कि मोदी की हवा बनाने में मीडिया और चुनाव सर्वेक्षणों की भी बड़ी भूमिका रही।

बहरहाल, यह तो तय है कि नरेन्द्र मोदी की वजह से भाजपा को इस चुनाव में जबरदस्त बढ़त मिलती दिख रही है। 2009 के आम चुनाव में तो भाजपा का वोट प्रतिशत महज 18.80 ही रह गया था।

इस चुनाव में एक्जिट पोल के नतीजे बता रहे हैं कि मोदी ने अपने धुआंधार प्रचार से या यूं कहें कि अपने मार्केटिंग कौशल से भाजपा का ग्राफ न सिर्फ उसके पारंपरिक प्रभाव क्षेत्रों में बढ़ाया है, बल्कि वहां भी उसकी वापसी कराई, जहां पहले कभी उसकी फसल लहलहाती थी।

यही नहीं, मोदी भाजपा को वहां भी ले जाने और जमाने में सफल रहे हैं, जो भाजपा के लिए एक तरह से बेगाने रहे हैं। एक्जिट पोल के मुताबिक भाजपा का वोट लगभग दो गुना हो गया है, पर असल में कितना बढ़ा है यह चुनाव के वास्तविक नतीजों से ही पता चलेगा।

यह भी चुनाव नतीजों से ही साफ होगा कि यह मोदी इफेक्ट सिर्फ भाजपा का वोट बढ़ाने वाला ही रहा या इसने उसकी सीटों में भी इजाफा किया है। फिलहाल यह तो कहा ही जा सकता है कि इस बार जो रिकॉर्ड मतदान हुआ है, उसमें 'मोदी लहर' का भी हाथ है।

रिकॉर्डतोड़ मतदान के लिए यह दलील भी दी जा सकती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा हजारे की अगुवाई में चले आंदोलन के वक्त से पैदा हुई जनचेतना ने भी लोगों की अपने मताधिकार के प्रति सतर्कता बढ़ाई है। यह भी कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग और सरकारी प्रयासों से भी लोगों की यह चेतना बढ़ी है।

लेकिन इस सबके बावजूद इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी से भी एक-एक वर्ग बहुत उत्साहित होकर वोट डालने निकला।

यह तर्क भी दिया जा सकता है कि अगर मोदी के पक्षधर बहुत उत्साह से सामने आए तो उनसे नफरत करने वालों की जमात भी काफी बड़ी है जिसने ज्यादा शोर भले ही न मचाया हो, पर वह वोट डालने जरूर गई।

इस सबके अलावा मतदान का प्रतिशत बढ़ाने में आम आदमी पार्टी की चुनाव मैदान में मौजूदगी के योगदान को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता जिसने अपनी आंदोलनकारी राजनीति से एक बड़े तबके को प्रभावित किया है।

इस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा था- प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी। कांग्रेस भी पूरे चुनाव अभियान के दौरान मोदी को रोकने की रणनीति पर ही काम करती दिखी।

कोई व्यक्ति मोदी का समर्थक हो या विरोधी, उसे यह तो मानना ही पड़ेगा कि देश की मौजूदा राजनीति में सबसे चर्चित और विवादास्पद इस व्यक्ति ने उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे इलाकों में भी अपने नाम का डंका बजवा लिया है और देश के बाकी हिस्सों में भी भाजपा के किसी भी अन्य नेता से ज्यादा चर्चा उनके नाम की है।

उत्तरप्रदेश में जो पार्टी पिछली बार अजित सिंह के लोकदल के सहारे चौथे नंबर पर थी, वह मोदी की बदौलत इस बार अकेले अपने दम पर सबसे आगे दिखी और हर दल ने उसे रोकने की भरसक कोशिश की। ये कोशिशें कितनी कामयाब रही हैं, यह चुनाव नतीजों से ही जाहिर होगा।

यह भी किसी चमत्कार से कम नहीं है कि बिहार जैसे सूबे में तमाम जातिगत ध्रुवीकरण के बावजूद भाजपा सभी जगह मुकाबले में दिखी और एक्जिट पोल के नतीजों के मुताबिक वह सबसे आगे है। उसकी इस उपलब्धि का श्रेय नरेन्द्र मोदी के अलावा और किसे दिया जा सकता है!

हालांकि यह भी सच है कि मोदी का इस तरह खड़े होना भी कॉर्पोरेट घरानों व मीडिया जगत के सहयोग से ही संभव हो पाया। कहा जा सकता है कि जनादेश निर्माण में कौन-कौन तत्व मौजूदा दौर में प्रभावी हो सकते हैं, इसे 'नरेन्द्र मोदी' नामक परिघटना से समझा जा सकता है।

इस चुनाव में 81 करोड़ मतदाताओं में से 51 करोड़ से ज्यादा ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया, जो हमारे लिए गर्व की बात है। लेकिन कई ऐसे मुद्दे बहुत साफ उभर रहे हैं जो बाकी दुनिया के लिए चर्चा और चिंतन का विषय हो न हो, लेकिन हमारे लिए जरूर हैं।

इस बार चुनाव में जिस पैमाने पर पैसा खर्च हुआ, जिस सुविधा से राजनीतिक दलों ने चुनाव को सांप्रदायिक रंग दिया, फिर सुविधा के मुताबिक जातिवादी रंग चढ़ा दिया गया और जिस तरह से मतदान बढ़ा है, उससे साफ है कि चुनाव के साथ ही हमारी राजनीति और समाज में भी बहुत कुछ तेजी से बदला है।

इसमें हम युवा मानस, पहली बार वोट देने वालों की अलग मानसिकता और लोकतंत्र के मजबूत होते जाने का गुणगान कर सकते हैं, पर बात सिर्फ इतनी ही नहीं है।

9 चरणों में हुआ मतदान हमारी चुनावी व्यवस्था की जितनी सफलता बताता है उतनी ही विफलता भी। इतना लंबा चुनाव अभियान भी कुल मिलाकर साधन-संपन्न राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए ही मुफीद हो सकता है।

पिछले कुछ चुनावों की तरह इस बार भी चुनाव आयोग का इस बात के लिए बहुत गुणगान हुआ कि उसने चुनाव में कानफोड़ू शोर-शराबे को खत्म कर दिया और चुनाव प्रचार में झंडे, बैनर, पोस्टर तथा वाहनों के बेतहाशा इस्तेमाल को बेहद सीमित कर दिया जिससे चुनाव में फिजूलखर्ची और कालेधन के इस्तेमाल पर अंकुश लगा है।

लेकिन यह सवाल किसी ने नहीं उठाया कि जब चुनाव में फिजूलखर्ची पर अंकुश लग गया है तो चुनाव आयोग ने एक लोकसभा उम्मीदवार के लिए चुनाव खर्च की सीमा 40 लाख से बढ़ाकर 70 लाख रुपए क्यों कर दी है और यह पैसा कहां खर्च हो रहा है?

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के प्रचार और उनकी इमेज मैकिंग का जिम्मा एक विदेशी कंपनी के पास है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की इमेज मैकिंग पर भी सैकड़ों करोड़ खर्च होने की चर्चा है। जाहिर है कि प्रचार में जो जितना आगे या पीछे है, उसका खर्च भी उसी हिसाब का है।

इस बार कुल चुनाव खर्च का अनुमान 30 हजार करोड़ से 60 हजार करोड़ रुपए तक का है, जो अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव खर्च से ज्यादा है। सिर्फ चुनाव आयोग ने ही 3,500 हजार करोड़ रुपए खर्च किए, जो पिछले चुनाव में हुए खर्च का 3 गुना है।

बहरहाल, इन सारी बातों के साथ ही यह चुनाव हमारे लोकतंत्र के मजबूत होने के तौर पर भी याद किया जाएगा। चुनाव आयोग की जो भी सीमाएं हों, मीडिया की चाहे जैसी भूमिका हो, पर इतना तय है कि इस चुनाव में लोगों ने जिस उत्साह से भागीदारी की है, वह अपूर्व है।

अब कई लोगों को यह विरोधाभास लग सकता है। ऐसा मानने में हर्ज नही है। पर जिस तरह हम अपराध, जातिवाद और सांप्रदायिकता को गलत मानते हुए भी इस तरह के उम्मीदवारों के पक्ष में वोट देते है, वैसे ही इस विरोधाभास में भी यह सचाई छिपी है कि हम बीमारी बढ़ाते हैं तो उसका इलाज भी रखते हैं।

अगर लोकतंत्र रहा, आजादी रही और लोकतंत्र का मतलब बहुमत का अंधा राज नहीं लगाया गया तो वह अपनी बीमारियों का इलाज खुद करने में सक्षम है।

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