Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

क्या सचमुच मसीहा मिल गया है?

मसीहा की तलाश में भटकता हिंदुस्तान

हमें फॉलो करें क्या सचमुच मसीहा मिल गया है?
webdunia

जयदीप कर्णिक

FILE
चुनाव पूर्व के तमाम सर्वेक्षण तो बता रहे हैं कि वो सब हो चुका है जिसे औपचारिक रूप से घोषित करने के लिए डेढ़ महीने लंबी ये कवायद की गई। यानी अच्छे दिन लाने के लिए, यानी अबकी बार मोदी सरकार बनाने के लिए। अब तो मंत्रिमंडल के गठन और विभागों के बँटवारे की तक बात होने लगी है। गोयाकि 16 मई महज एक औपचारिकता रह गई है। उससे आगे की बात ये है कि माहौल तो ऐसा है कि मानो सारे चुनाव ही बस इसीलिए कराए गए कि नरेंद्र मोदी पीएम बन जाएँ... बस।

बहरहाल, लोकतंत्र की ख़ूबी ही ये है कि वो तमाम कयासों, बहस-मुबाहिसों और चर्चाओं की पूरी स्वतंत्रता देते हुए भी आपको चौंकाने का भी पूरा इंतज़ाम रखता है। फिर हम तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, इसीलिए यहाँ बातें कुछ ज़्यादा हों और कैनवास कुछ बड़ा हो तो अचरज ही क्या?

ये पूरे चुनाव भी बाहर से देखने पर एक भव्य पर्दे पर चलने वाली रोचक फिल्म से कम नहीं जिसमें भावनाएँ, उतार-चढ़ाव, सस्पेंस सबकुछ है। बस इस बार फिल्म की अवधि कुछ ज़्यादा लंबी रही और बाद में कुछ उबाऊ भी हो गई। इसीलिए अब लोग समाप्त होने से पहले ही एक्जिट पोल को ही अंत मानकर अपनी सीट छोड़कर जाने लगे हैं।

कुछ लोग जो ये मानते हैं कि पर्दे पर 'द एंड' देखे बगैर जाना नहीं है क्योंकि कुछ भी हो सकता है वो अब भी जमे हुए हैं। ... और अब भी ये देखना दिलचस्प होगा कि आख़िरी गेंद पर परिणाम बदल जाने वाले मैच की ही तरह क्या इस फिल्म में कोई एंटी-क्लायमैक्स तो नहीं छुपा हुआ है...?
इसीलिए मुझे भी 16 मई का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा। परिणाम जो भी हो, कुल मिलाकर हिंदुस्तान के इतिहास के ये सबसे अहम और दिलचस्प चुनाव रहे। ये अहम इसलिए रहे क्योंकि पहली बार केवल एक व्यक्ति को सामने रखकर प्रचार हुआ।

भाजपा ने जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो कांग्रेस ने कोशिश तो बहुत की कि सारा प्रचार उनके इर्द-गिर्द केंद्रित ना रहे। पर हुआ ऐसा ही। भाजपा जहाँ मोदी का प्रचार कर रही थी, वहीं कांग्रेस मोदी का विरोध और मोदी चुनाव की धुरी बन गए। मुद्दे भी थे पर विकास और वैकल्पिक राजनीति के मुद्दों से शुरू हुआ चुनाव आख़िर धर्म और जाति पर आकर टिक गया।

नरेन्द्र मोदी की बात में विश्वसनीयता सिर्फ इसलिए नहीं नज़र आई कि कोई बेहतर विकल्प नहीं था बल्कि उनकी बातों में दम इसलिए भी नज़र आया क्योंकि वो पैराशूट से नहीं उतरे
webdunia
मोदी के अयोध्या ना जाने के फैसले को जहाँ उनकी उदार होने की कोशिश माना जा रहा था वहीं आख़िर मोदी अयोध्या पहुँच ही गए। वो भी अधूरे नहीं, बाकायदा भगवान राम की तस्वीर वाले मंच से भाषण दिया। ऐसा शायद इसलिए भी हुआ कि भाजपा को ये अहसास तो हो ही गया था कि तमाम कोशिशों के बाद भी मुस्लिम वोट उनके ख़िलाफ हो चुका है तो ऐसे में उस परंपरागत हिंदू वोट को तो साध ही लिया जाए जो उनके साथ जुड़ा ही इस वजह से है।

पूरे चुनाव में जहाँ भारतीय जनता पार्टी बहुत नियोजित तरीके से अपने प्रचार अभियान को संचालित करती नज़र आई वहीं कांग्रेस पूरी तरह से दिशाहीन। कब किस मुद्दे को उठाना है, सरकार की उपलब्धियाँ गिनानी हैं या मोदी का विरोध करना है, ये ही वो तय नहीं कर पाई। जब तक प्रियंका और राहुल मोदी को लेकर आक्रामक होते, देर हो चुकी थी।

भाजपा को नंबर इस बात के लिए भी दिए जाने चाहिए कि उसने बहुत सूझ-बूझ के साथ सरकार विरोधी लहर को 'मोदी लहर' में परिवर्तित कर लिया। जनता संप्रग सरकार से नाराज़ थी, लगातार सामने आए घोटालों और महँगाई को लेकर।

इसी नाराज़ी को नवंबर में हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों में साफ पढ़ा जा सकता था। आम आदमी पार्टी की सफलता भी इसी नाराजी की लहर पर सवार थी। ये ही आम आदमी पार्टी दिल्ली के बाद पूरे देश में भाजपा को उतना नहीं तो फिर भी बड़ा नुकसान पहुँचा सकती थी, पर केजरीवाल हिट विकेट आउट हो गए। उसकी हताशा उनके पूरे अभियान में नज़र भी आई। आम आदमी पार्टी का पूरा कुनबा ही बिखरा हुआ नज़र आया। हर प्रत्याशी अपने दम पर चुनाव लड़ रहा था।

ये तो ख़ैर 16 मई को ही पता चलेगा कि आँकड़े ठीक-ठीक क्या आते हैं पर टीम मोदी और संघ के नेटवर्क ने जो दमखम इस चुनाव में दिखाया वो उनकी लंबी तैयारी और योजना को दर्शाता है। 8 दिसंबर 2013 को जब पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम आए थे तब राहुल गाँधी ने कहा था कि वो आम आदमी पार्टी से भी सीखने को तैयार हैं। उन्हें शायद संगठन का ढाँचा खड़ा करने और लंबी तैयारी के बारे में सीखने के लिए अब भाजपा, संघ और मोदी की तरफ रुख करना होगा। अब सवाल ये है कि इस सब में जनता कहाँ है? 2014 के चुनाव में मतदाता सूची में 80 करोड़ से ज़्यादा लोगों का नाम था। इनमें से 10 करोड़ से ज़्यादा तो नए मतदाता थे जो पहली बार जुड़े।

1600 राजनीतिक दल, 9 लाख 25 हज़ार बूथ थे। ये सारी कवायद 543 सांसद चुनने के लिए हुई। मतदान भी रिकॉर्ड तोड़ हुआ। 66 फीसदी लोगों ने अपने मताधिकार का उपयोग किया। यानी लगभग 54 करोड़ लोगों ने मतदान किया। ये सब आँकड़े हैं और लोकतंत्र की भौतिकता है। पर भारतीय मानस की आत्मा क्या ढूँढ़ती है? एक मसीहा जो आकर सबकुछ ठीक कर देगा। अवतारों के इंतज़ार में सदियाँ गुजार देने वाले इस हिंदुस्तान में सपने बेचना इसीलिए तो आसान है। अरविंद केजरीवाल ने भी वो सपने बेचे और वो बना दिए गए थे अवतार। उनसे मोहभंग हुआ तो लोग उन्हें थप्पड़ मारने लगे और स्याही से उनका दामन भी काला किया गया। अब नरेंद्र मोदी ने कहा कि वो इस देश को बेहतर बनाने का माद्दा रखते हैं। उनकी बात में विश्वसनीयता सिर्फ इसलिए नहीं नज़र आई कि कोई बेहतर विकल्प नहीं था बल्कि उनकी बातों में दम इसलिए भी नज़र आया क्योंकि वो पैराशूट से नहीं उतरे। मिट्टी में तप कर, देश की ख़ाक छानकर लंबी कवायद के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर पहुँच चुके थे और अभी चौथी पारी खेल रहे हैं।

पर क्या फिर भी सचमुच भारत को वो मसीहा मिल गया है जो सारे दु:ख-दरिद्र को दूर कर देगा?.... 16 मई को इससे आगे बात करेंगे...।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi