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जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभाव

बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन

हमें फॉलो करें जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभाव

संदीपसिंह सिसोदिया

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ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते विश्वभर में हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है। अगर कुछ वैज्ञानिकों की मानें तो यह ग्लोबल वॉर्मिंग एक प्रकृतिजन्य प्रक्रिया का हिस्सा है, जो एक निश्चित समय चक्र पर लगातार होती है।

इसके कारण पृथ्वी पर रहने वाली सभी प्रजातियों को लगातार परिवर्तनशील होना पड़ता है। प्राकृतिक रूप से होने वाली ये प्रक्रियाएँ प्रजातियों के क्रमिक विकास के लिए फायदेमंद होती है।

हालाँकि यह सिद्धांत पूरी तरह मान्य नहीं है और देखा जाए तो मानव गतिविधियों के कारण ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभावों में तेजी से जलवायु परिवर्तन तेज हो गया है। अनेक पर्यावरणविदों व वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते हो रहा जलवायु परिवर्तन निकट भविष्य में कई प्रजातियों के विलुप्त होने का सबसे बड़ा कारण हो सकता है।

जलवायु परिवर्तन का सबसे दूरगामी प्रभाव पड़ता है उस क्षेत्र में रहने वाली प्रजातियों पर। तापमान के कुछ डिग्री सेंटीग्रेट ऊपर-नीचे होने भर से कई प्रजातियाँ के विलुप्तीकरण का खतरा पैदा हो जाता है। ग्लोबल वॉर्मिंग का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव पड़ता है क्षेत्र के स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र पर, जो बहुत ही नाजुक होते हैं।

एक ओवरहीटिंग जलवायु वैश्विक परिस्थितियों में कितना बड़ा परिवर्तन पैदा कर रही है और मौजूदा नाजुक पारिस्थितिकी प्रणालियों में वर्तमान प्रजातियों को कितना नुकसान हो सकता है, नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है-

उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित कनाडा के बर्फीले मैदानों से ध्रुवीय भालू गायब होते जा रहे है, क्योंकि कनाडा में बर्फीला क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है। ध्रुवीय भालुओं के प्राकृतिक रहवास में बर्फ उनकी खाद्य श्रृंखला के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तत्व है। आर्कटिक समुद्र में भालू शिकार के लिए सिर्फ बर्फ पर निर्भर हैं। यह जीव खुले समुद्र में सील व मछलियों का शिकार करते समय बर्फ को एक अस्थायी मंच के रूप में उपयोग करता है।

विशेषज्ञों का मानना है कि आर्कटिक समुद्र में बर्फ प्रति दशक 9 प्रतिशत की दर से पिघल रही है। यह समुद्र ही ध्रुवीय भालू का एकमात्र निवास स्थान है, जहाँ उनके अस्तित्व पर खतरा छा गया है।

दक्षिण अमेरिका में सालाना प्रजनन के लिए समुद्री कछुए ब्राजील के समुद्र तटों पर अपने अंडे देने आते हैं, तटों की नरम रेत पर घोंसले बनाने की सबसे बड़ी वजह है वहाँ का मुफीद तापमान। रेत का तापमान कछुओं के अंडों का लिंग निर्धारण करता है। ठंडी रेत से मादा कछुए और अगर रेत गरम हो तो नर कछुए अंडों से बाहर आते हैं और इस संतुलन से वंशवृद्धि निश्चित होती है।

...लेकिन ग्लोबल वॉर्मिंग से समुद्र का स्तर बढ़ने लगा है और अलग-अलग स्थानों पर दिए गए अंडों के पानी में डूबने का खतरा बना हुआ है। ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण पानी का तापमान भी अनिश्चित हो गया है। इससे रेत के तापमान में घट-बढ़ से अंडों से सभी मादा या नर कछुए पैदा होने का डर है, जिससे इस प्रजाति का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है।

उत्तरी अटलांटिक के सबसे बड़े और शानदार प्राणी व्हेल से मानव द्वारा शोषण का एक लंबा इतिहास जुड़ा है, लेकिन अब समुद्र के पानी के तापमान में वृद्दि के कारण व्हेल का आहार प्रभावित हो रहा है।

प्लांक्टन और कवक पर आश्रित व्हेल को अब खाने की तलाश में काफी दिक्कतें आ रही हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते पानी का तापमान बदला है, जिससे प्लांक्टन और कवक की संख्या में अप्रत्याशित कमी देखी गई है।

चीन के विशाल पांडा का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है। इसके आवास दक्षिण पश्चिमी चीन के पहाड़ी क्षेत्रों में पाए जाने वाले बाँस के वन अब खंडित हो चुके हैं। विशाल पांडा की आबादी अब नगण्य है और इनका मुख्य आहार बाँस है। चीन के बाँस के जंगल एक नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र है और ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हैं।

इंडोनेशिया में पाया जाने वाला एशिया का एकमात्र 'एप' ओरंगुटान भी इस समस्या से दो-चार हो रहा है और गहरी मुसीबत में है। ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते इंडोनेशिया के वर्षा वन में स्थित अपने अंतिम प्राकृतिक आवास की कमी झेलते इस एप के अगले एक दशक में लुप्त हो जाने का डर है।

यहाँ हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे की आवृत्ति में वृद्धि के साथ-साथ जंगल में आग (बुशफायर) का भी लगातार खतरा बना हुआ है। पिछले दो साल में यहाँ कई बार भयानक दावानल भड़क चुके हैं।

इसी तरह अफ्रीका में हाथियों के रहने और विचरने की जगह में हर साल 12 प्रतिशत की कमी आ रही है, जिसकी वजह से उन्हें अकसर स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष करना पड़ रहा है।

अपने मवेशियों के लिए चरागाहों में इनसान कभी जंगली जानवरों को सहन नहीं करता है और नतीजा अकसर हाथी के लिए घातक सिद्ध होता है। अफ्रीका में लगातार और लंबे समय तक सूखे की अवधि उनके अस्तित्व पर अधिक दबाव डाल रही है।

प्राकृतिक आवास और आहार की कमी से आने वाले कुछ दशकों में हाथियों के खिए खुद को बचा पाना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। कमोबेश इसी तरह की समस्या एशियाई हाथियों के साथ भी है।

ऑस्ट्रेलिया में पशु और वनस्पतियों की ऐसी कई अनोखी प्रजातियाँ हैं, जो पूरे ग्रह में और कहीं नहीं मिलतीं। यहाँ जलवायु परिवर्तन से ऑस्ट्रेलिया की मेंढ़क प्रजातियों में से कई का प्रजनन चक्र प्रभावित हो रहा है। चूँकि मेंढ़क मुख्यत: पानी पर निर्भर रहता है इसलिए इस नस्ल को पानी की कमी या वर्षा अनुपात बदलने की भारी कीमत चुकाना पड़ रही है।

जलवायु परिवर्तन यहाँ के मेंढकों की प्रजनन क्षमता को प्रभावित कर रहा है। उच्च तापमान के परिणाम के रूप में टेडपोल और अंडे खत्म हो रहे हैं। वयस्क मेंढ़कों के मरने का कारण भी सूखे की स्थिति है। अत्यधिक गरमी के कारण बहुत से मेंढ़क अपनी त्वचा का पानी सूखने से लगभग झुलसी हालत में मिले हैं।

हाल ही में वन्य जीव संरक्षण विभाग द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में ऑस्ट्रेलिआई कुआला भालू की संख्या पिछले छह साल में एक लाख से घटकर 43 हजार रह गई है।

भारत में विशेषज्ञों का अनुमान है कि बाघों के सबसे बड़े क्षेत्र सुंदरवन डेल्टा में लगातार मैंग्रोव के जंगल गायब होते जा रहे हैं। दुनिया के सबसे बड़े मैंग्रोव क्षेत्र को समुद्र के स्तर में वृद्धि का भयानक परिणाम अपनी गोद में पल रही कई अनमोल प्रजातियों की जान से चुकाना पड़ रहा है।

मानव प्रजाति के भी खतरे में आने की शुरुआत हो चुकी है। बेतहाशा आबादी और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन ग्लोबल वॉर्मिंग को तेज कर रहा है। प्रकृति की हर प्रजाति कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़ी है, एक प्रजाति का सर्वनाश दूसरी प्रजाति पर आसन्न खतरे को अधिक विकट बनाता है। घटते संसाधनों और बढ़ती माँग ने इस समस्या को और भी जटिल बना दिया है, जिसे जल्दी सुलझाना पूरी पृथ्वी के हित में होगा।

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