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हिन्दी दिवस का सुशासन!!

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जयदीप कर्णिक

केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार जी ने मंच से बहुत अच्छा सवाल दागा – मैं यहाँ इंदौर में हिन्दी में, भले ही बहुत अच्छी ना सही, पर भाषण दे रहा हूँ, क्या आप वहाँ बेंगलुरू में कन्नड़ में आधे घंटे का भाषण दे सकते हैं? उनका सवाल और दर्द, दोनों ही सही थे। एकदम मर्म को छूने वाले। वो हिन्दी भी बहुत अच्छी बोल रहे थे। पर मौका कुछ और था। भाषा पर बहस का मंच और अवसर नहीं था। वो सुशासन पर बोलने आए थे। चूँकि वो केन्द्र में मंत्री हैं - बात ये रखी गई थी कि केन्द्र शासन ने ‘सुशासन’ को ध्येय और लक्ष्य बनाकर काम शुरू किया। उसमें पहला और बड़ा काम ये किया कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन 25 दिसंबर को ‘सुशासन-दिवस’ के रूप में मनाया जाए। विद्यार्थियों से इस विषय पर उस दिन निबंध लिखवाए जाएँ। भाषण प्रतियोगिताएँ हों आदि-आदि।
सवाल ये है कि क्या इस तरह दिवस मना लेने मात्र से सुशासन आ जाएगा? ऐसे कितने दिवस हैं जिन्होंने अपने मूल उद्देश्य को सार्थक किया? क्या वो अधिकांश मामलों में औपचारिक भर होकर नहीं रह गए हैं? जो ख़ास मौके हैं उनके स्मृति दिनों को अलग कर हम ये सवाल पूछें तो बात और भी साफ़ हो पाएगी– आप युवा दिवस पर स्वामी विवेकानंद को याद करेंगे और बाल दिवस पर नेहरू जी को। ठीक है, बाकी बातों में ना भी जाएँ तो ये तिथियाँ याद दिलाती हैं कि इस दिन इन हस्तियों का जन्म हुआ था। लेकिन जब सवाल उठेगा कि क्या हम केवल दिवस मनाकर उनकी स्मृति को सार्थक कर पा रहे हैं? ...बहस लंबी हो जाएगी।
 
ऐसे ही सुशासन की वास्तविक उपयोगिता और उसके अमल की बातें श्रोताओं तक बेहतर पहुँच जाएँ इस गरज से दिवसों की प्रासंगिकता पर सवाल खड़ा किया गया। चूँकि हिन्दी दिवस देहरी पर ही खड़ा था तो उदाहरणार्थ उसका जिक्र हुआ – कि हिन्दी दिवस मनाने भर से कौन-सा हिन्दी का भला हो गया जो सुशासन दिवस से हो जाएगा? 

हिन्दी दिवस का यों औपचारिक महत्व भी है। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन् 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है।
 
बात तो सुशासन और सरकार के प्रयत्नों पर भी हुई पर भाषा का तीर उस मर्म पर चोट कर चुका था। इसीलिए अब हिन्दी दिवस पर उस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश होनी चाहिए। हम हिन्दी क्षेत्रों में ही हिन्दी को सर्व स्वीकार्य नहीं बना पाए हैं। हर रोज़ अंग्रेज़ी का कोई शब्द “प्रचलन” की आड़ में हिन्दी के किसी शब्द का सरे आम स्थान ले रहा है। हिन्दी का जो शब्द चलन से बाहर मानकर स्वनामधन्य पत्रकारों, साहित्यकारों और मीडिया घरानों ने रद्द कर दिया है उसकी सिसकियाँ सुनने वाला कोई नहीं है। इसीलिए अनंत कुमार जी ने मंच से सवाल खड़ा किया और कहा कि आपके यहाँ हिन्दी दिवस औपचारिकता हो सकती है पर आप दक्षिण के राज्यों में जाकर देखिए, वहाँ केरल में, तमिलनाडु में, कर्नाटक में किस तरह हिन्दी दिवस मनाया जाता है! – वो जब ऐसा कह रहे थे तो वो समूचे दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, उस दक्षिण भारत का जिसे बहुत समय तक उत्तर भारत “मद्रास” और वहाँ के लोगों को “मद्रासी” के नाम से ही जानता रहा है। अब वो काल बदल गया है। आवाजाही बढ़ी है। लोगों में मेलजोल बढ़ने से, नौकरियों के लिए वहाँ से यहाँ और यहाँ से वहाँ जा बसने से क्षेत्रीय समझ बढ़ी है। हालाँकि बहुत सारे लोग अब भी हैदराबाद को आंध्र, बेंगलुरू को कर्नाटक और चेन्नई को तमिलनाडु समझते हैं। पर इससे आगे वहाँ की संस्कृति और परिवेश की समझ के मामले में हम कितने गहरे उतर पाए हैं, ये चिंतनीय विषय है। 
 
भाषा का संस्कृति और संस्कारों से गहरा सरोकार है। भाषा ही वह सेतु है जिस पर चढ़कर हम किसी भी संस्कृति और उसके संस्कारों तक पहुँच सकते हैं। बिना भाषा के किसी प्रदेश या वहाँ के लोगों को समझने की कोशिश करना वैसा ही है जैसे दुकान में काँच के भीतर सजी वस्तुओं को बाहर से निहारते हुए निकल जाना या फिर असली से दिखने वाले फ़ूलों को गुलदान में सजाना। आप देखिए ना कि दुनिया की अब तक प्रमाणित सबसे पुरानी सभ्यता – सिंधु घाटी के लोगों और उनके जीवन को लेकर हम केवल कयास क्यों लगा रहे हैं? क्यों अनभिज्ञ हैं? क्योंकि उनकी भाषा को हम अब तक पढ़-समझ नहीं पाए हैं? सोचिए इतिहास के कितने बड़े और रोमांचक सच से हम इतने पास होते हुए भी इतनी दूर क्यों हैं? क्योंकि हम उस भाषा से अनजान हैं। पु.ल. देशपांडे के साहित्य का असली आनंद लेने के लिए मराठी आनी चाहिए वैसे ही के. शिवराम कारंथ को समझने के लिए कन्नड़।....  तो फिर भाषा के इस अहम सवाल पर हम इतने उलझे हुए क्यों हैं? हिन्दी के राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित ना हो पाने की गहरी टीस के बीच क्या हमने गंभीरता से विचार किया कि क्यों अंग्रेज़ी इस देश की संपर्क भाषा बन गई पर हिन्दी नहीं? 
 
जवाब उसी टीस में छुपा है जो अनंत कुमार जी की ज़ुबान से मंच पर अभिव्यक्त हुई। वो अच्छी हिन्दी सीख सकते हैं तो हम अच्छी तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलायालम, उड़िया या बांग्ला क्यों नहीं? ये इस देश का बड़ा और कड़वा सच है कि जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है उन्हें विश्वास में लेकर आगे नहीं बढ़ने के कारण, एक अजीब-सी असुरक्षा और चिढ़ के चलते उन्होंने अंग्रेज़ी को तो अपना लिया पर हिन्दी को नहीं, बल्कि हिन्दी के विरोध में उग्र आंदोलन भी हुए। अब भी होते रहते हैं। देश की राजनीति और उत्तर भारतीय प्रदेशों के प्रभाव के चलते बहुत से ऐसे लोगों ने हिन्दी सीख तो ली जिनका इसके बिना काम नहीं चल सकता था पर आम जनता और व्यापक समाज के बीच कभी भी हम हिन्दी को उतना स्वीकार्य नहीं बना पाए हैं।
 
क्या हम ये बता पाए हैं कि हिन्दी की स्वीकार्यता का मतलब मराठी, तमिल, उड़िया, बंगाली या गुजराती का पीछे रह जाना या दबाया जाना नहीं है? ये बात सही है कि दक्षिण के राज्य अपने भाषाई आग्रहों को लेकर बदनाम होते रहे हैं पर महाराष्ट्र और गुजरात जैसे उत्तर भारतीय राज्यों में गहरे तक मौजूद इस तरह के आग्रहों की चर्चा कम ही हो पाती है। एक सवाल ये भी है कि इन आग्रहों में इतना कड़वापन क्यों आया? क्योंकि हमने हमारे बगीचे में बिखरे पड़े भाषा और संस्कृति के इन सुंदर फूलों का ख़ूबसूरत गुलदस्ता बनाने की बजाय इन्हें एक दूसरे के सामने खड़ा कर दिया, लड़वा दिया। इस लड़ाई का फायदा अंग्रेज़ी को मिला। वो संपर्क भाषा बन गई। 
 
एक और बात जो अनंत कुमार जी ने कही वो ये कि पहले अटलजी और अडवाणी जी के भाषणों का अंग्रेज़ी या कन्नड़ में अनुवाद जारी करना पड़ता था। अब वो स्थिति नहीं है। हिन्दी में आसानी से भाषण दे सकते हैं। ये अच्छी स्थिति है। इसके बहुत से अपवाद भी हैं और इस सिक्के का दूसरा पहलू भी है। पर उसे अभी छोड़ भी दें तो हिन्दी को लेकर जितना काम हिन्दी प्रदेशों के बाहर इस आधुनिक समय में हुआ है वो तो तथाकथित हिन्दी प्रदेशों में भी नहीं हो रहा। यही एक बड़ा दर्द है। यहीं पर हिन्दी दिवस एक ज़्यादा बड़ा मज़ाक बनकर रह गया है। मैंने रूस में मॉस्को विश्वविद्यालय के छात्रों को जिस आत्मीयता से और अधिकार के साथ हिन्दी में बोलते सुना वो हतप्रभ करने वाला था। हिन्दी साहित्य की कई ऐसी रचनाओं का उन्होंने मुझसे जिक्र किया जिसके बारे में हम बहुत सारे हिन्दी वाले इतने विस्तार से बात नहीं रख सकते।
 
एक और महत्वपूर्ण अंतर ये है कि कोई भी तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, मराठी, बांग्ला, उड़िया या अन्य कोई भारतीय भाषा जानने वाला व्यक्ति जब अंग्रेज़ी, हिन्दी या कोई अन्य भाषा सीख लेता है तब भी अपनी मातृभाषा से लगाव बनाए रखता है। वो अपनी भाषा का साहित्य या उसके समाचार पत्र या वेबसाइट पढ़ना बंद नहीं करता। पर हिन्दी में अधिकांश स्थिति ये है कि अंग्रेज़ी आई नहीं कि हिन्दी की ज़रूरत ख़त्म-सी हो जाती है। एक अजीब-सा हीनता का भाव आ जाता है, अपनी ही हिन्दी से। बड़ी दिक्कत इसी हीनता बोध से है। भाषा कोई सी भी ख़राब नहीं है। अंग्रेज़ी सीखने में कोई बुराई नहीं है। पर फिर उसी को सब मान लेना, उसकी दासता स्वीकार कर लेना उन शब्दों को सरल और अपने शब्दों को क्लिष्ट मान लेना, अंग्रेज़ी के बढ़िया से बढ़िया शब्दकोश से संदर्भ लेकर अपनी “वॉकेबुलरी” स्ट्रॉन्ग करना और हिन्दी के शब्द भंडार को समृध्द करने के लिए कोई प्रयत्न ही ना करना, दिक्कतें यहाँ हैं।
 
ये बहुत अच्छी बात है कि पूरे दक्षिण भारत में हिन्दी दिवस अच्छे से मनाया जा रहा है। अभी तो समस्या वो है ही नहीं। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की भी नहीं है। अभी तो हिन्दी के ही अंग्रेज़ी के सामने घुटने टेक बैठे लोगों के आत्मसम्मान को जगाना ज़्यादा बड़ी चुनौती है। 
 
तो बात हो रही थी हिन्दी दिवस और सुशासन की..... !! दो अलग विषय थे संयोग से मंच पर जुड़ गए, पर ये योग इतना बेमेल भी नहीं था। ये ज़रूरी है कि हम अपने सुशासन के ज़रिए ऐसी व्यवस्था लागू करें जहाँ सभी भारतीय भाषाओं के लिए फलने-फूलने का उतना ही स्थान हो। उसके लिए ज़रूरी है कि प्राथमिक स्तर पर ही भारतीय भाषाओं को अनिवार्य रूप से सिखाएँ। आज हम विद्यालयों में फ्रेंच और जर्मन तो सिखा रहे हैं पर गुजराती, उड़िया, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ या अन्य भारतीय भाषाएँ क्यों नहीं? 
 
केन्द्रीय विद्यालय में तो फिर भी अन्य भाषाओं के लोक-गीत सिखाए जाते हैं, अनिवार्य वो भी नहीं, पर बाकी सब? जैसे हम केन्द्रीय प्रशासनिक सेवा में संबंधित राज्य की भाषा अनिवार्य रूप से सिखाते हैं वैसा ही पहले प्राथमिक स्तर से क्यों नहीं? त्रिभाषा के फॉर्मूले को किसने और क्यों तिलांजलि दी? अगर हम इन सवालों के जवाब खोज पाएँ तो हम निश्चित ही दिवसों की औपचारिकता से परे जाकर एक बेहतर और सांस्कृतिक रूप से समृध्द भारत का निर्माण कर पाएँगे। 

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