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मैं फिर कहता हूँ गौरेया

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-मधुसूदन आनंद

सबसे पहली कहानी मैंने चिड़िया की सुनी थी जो दाल का दाना चुगकर लाती है और चावल का दाना चुगकर लाए कौवे के साथ मिलकर खिचड़ी बनाती है। कौआ चिड़िया को नहाने भेज देता है और अपने हिस्से की खिचड़ी खाने के बाद चिड़िया के हिस्से की खिचड़ी भी चट कर जाता है।

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इस कहानी ने सहज ही चिड़िया के प्रति एक आत्मीयता जगा दी। सुबह से शाम तक घर में उसकी चहचहाट मोहक लगती थी। घर में ही उसका घोंसला था। चिड़िया और शायद उसका चिड़ा जब अपने नन्हे बच्चे के लिए चोंच में भरकर कुछ लाते थे और वात्सल्य और ममता से उसे खिलाते थे तो एक अजब विस्मय रचते थे। वे उसे उड़ना सिखाते थे। उससे अपनी भाषा में शायद बात करते थे और थोड़े-थोड़े अंतराल पर हमारे घर में चिड़िया के साथ-साथ एक मोहक चहचहाट उतरा करती थी। आज सोचता हूँ तो लगता है कि वह सब कितना सुंदर था।

चिड़िया हमारे करीब रखे दाने चुगती थी लेकिन हमारे जरा से हिलने से भी घबरा उठती थी और फुदककर कपड़े सुखाने के तार पर जा बैठती थी। घर में कोई एक दो नहीं बीसियों चिड़ियाँ उतर आती थीं। फुदकती थीं। चुगती थीं और उड़ जाती थीं।

दुनिया में मनुष्यों के अलावा तमाम पशु-पक्षियों का दिन भोजन की तलाश में ही बीतता है। नन्ही गौरेया के साथ भी ऐसा ही होता होगा। लेकिन पता नहीं क्यों उनके भोजन इकट्ठा करने, सहज आवेग के साथ घोंसला बनाने के लिए तिनका लाने के लिए उड़ने और फिर तेजी से लौटकर उसे दूसरे तिनकों के साथ जोड़कर रख देने में हमें एक आत्मीय खेल नजर आता रहा है पर जब हम नन्ही गौरेया की मेहनत का हिसाब लगाते हैं तो उसके नन्हे सामर्थ्य को देखकर द्रवित हो जाते हैं

उसका फुदकना, नृत्य करना, गर्दन घुमाकर और उठाकर देखना, फुर्ती और चौकन्नापन हमारे बचपन के घरों में चहक और खुशी भरता रहा है।

आज गौरेया हमारे घरों से गायब होती जा रही हैं। दिल्ली जैसे बड़े शहरों में तो उनकी संख्या तेजी से घट रही है। यही हालात रहे तो हो सकता है चिड़िया कविताओं और चित्रों में ही सीमित होकर रह जाए और आने वाली पीढ़ियाँ चिड़ियों के चित्रों को देखकर उस तरह विस्मित हों जैसे हम डायनासोरों के चित्रों को देखकर आश्चर्य से भर उठते हैं।

क्या पता? लेकिन यह एक सच्चाई है जिसे महानगरों में रहने वाले हम लोग जानते हैं। दुनिया भर में गौरेया कम हो रही हैं। विदेशों में लोग जानते हैं कि कितने वर्षों में कितनी चिड़िया कम हुई हैं लेकिन हमारे देश में इसका कोई अध्ययन नहीं हुआ है।

संतोष की बात है कि सरकार का ध्यान अब इस ओर गया है और उसने शानिवार 20 मार्च को दिल्ली में गौरेया दिवस मनाने का फैसला किया। नेचर फॉरएवर सोसायटी ने कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सहयोग से इस दिवस को शहर में गौरेया की संख्या में तेजी से आ रही कमी पर केंद्रित कर दिया है और लोगों से कहा है कि वे सोचें कि यह घरेलू नन्ही चिड़िया आखिर क्यों गायब होती जा रही है और हम सब मिलकर क्या करें कि हमारे शहरों में गौरेया और उसकी मासूम चहचहाट बनी रहे।

ऐसे ही गिद्ध भी तेजी से गायब हो रहे हैं और आज उनकी इतनी कम संख्या बची है कि मरे हुए जानवरों के सड़े हुए माँस को सफाचट कर हमारे पर्यावरण को साफ और संतुलित रखने की समस्या बनी हुई है।

बढ़ता औद्योगिकीरण, शहरीकरण और फसलों में कीटनाशकों का अंधाधुँध प्रयोग गिद्धों की मौत और उनके गायब होने के कारण रहे हैं। शुक्र है कि पिछले सालों में गिद्धों की एक ऐसी प्रजाति जिसे विलुप्त मान लिया गया था, फिर से देखने में आई और पर्यावरण प्रेमी इस बात से खुश हुए कि प्रकृति ने मरे हुए ढोर-डंगरों आदि को खाने का जो काम एक तरह के सफाईकर्मी पक्षी गिद्ध को सौंपा है, वह अभी बचा हुआ है।

आपको ताज्जुब होगा कि आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में कुछ जनजातियाँ गिद्ध का माँस खाती हैं। इससे गिद्धों पर मंडरा रहे खतरे की गंभीरता को समझा जा सकता है।

मनुष्य ने शायद ही किसी जानवर को छोड़ा हो। कोरिया और चीन में साँप भी खाया जाता है, जबकि हमारे ही नगालैंड में सड़क पर रहने वाले कुत्तों को भी खा लिया जाता है। अफ्रीका में ऊँट, बंदर ही नहीं, मगरमच्छ को भी कुछ जनजातियाँ जीम जाती हैं। लेकिन गौरेया के प्रति प्रायः सभी समाजों में एक तरह से आत्मीयता का भाव रहा है। वह निरीह है जैसे गिलहरी।

उसकी लंबाई मुश्किल से 15 सेंटीमीटर होती है और वजन 25 ग्राम। उसकी फुर्ती देखते ही बनती है और छोटे से आकार में भरी हुई ऊर्जा और आवेग उसे बेहद आत्मीय बना देता है। फिर उसका फुदकना और चहचहाना उसे और सुंदर बनाता है।

गौरेया प्रायः दाना खाती है लेकिन उसके बच्चों को प्रोटीन के लिए नन्हे कीड़े चाहिए होते हैं जिन्हें माँ गौरेया ढूँढकर लाती है और उनके मुँह में अपनी चोंच से डालती है। यों हमारे शहरों में कबूतर, कौए और मैना भी कम हो रहे हैं मगर गौरेया सबसे भयावह स्थिति में है।

कौए और जंगली सलेटी रंग के कबूतर चिड़िया को सबसे ज्यादा चुनौती दे रहे हैं। शहर के मकानों में गाँव और कस्बों की तरह घोंसलों के लिए जगह नहीं होती और जो होती है, उस पर जंगली कबूतर कब्जा कर लेते हैं। शहर में जगह-जगह कबूतरों को दाना, पानी और कामचलाऊ भोजन मिल जाता है लेकिन शहरों में आवास बढ़ने और हरियाली की कमी के कारण चिड़िया को कीड़े-मकोड़े अपने बच्चों की आवश्यक खुराक के लिए नहीं मिल पाते। पेड़ों पर चिड़िया की बजाय दूसरे ताकतवर पक्षियों का कब्जा रहता है।

हम भारतीय लोग अपनी स्मृतियों में जीते हैं और हममें से ज्यादातर छोटे गाँवों और कस्बों से आकर शहरों में बसे हैं और बस रहे हैं। शहरों के हमारे घरों में न आँगन होता है, न पिछवाड़ा। न पेड़, न पानी।

हमारे घर ऐसे बनाए जा रहे हैं जिनके भीतर से न आसमान दिखता है, न चाँद और तारे। न सूरज और न धूप। इन घरों के बरामदे और बालकनियाँ तक कवर कर ली गई हैं। तो चिड़िया कहाँ अपना घोंसला बनाएँ और क्या अपने बच्चों को खिलाएँ। हमारे यहाँ प्रकृति गमलों में कैद रहती है या सार्वजनिक पार्कों में सजी-धजी। एक कृत्रिम वातावरण। यहाँ कोई गौरेया चहके तो कैसे चहके?

हम लोग बड़े-बड़े मसलों पर सोचते हैं और टीवी स्टूडियो में उन पर दैनिक बहसें होती हैं। हम मौसम का हाल बताते हैं और लोगों को कहानियाँ सुनाते हैं। घरों की नहीं मकानों और वस्तुओं की बातें करते हैं। लेकिन गौरेया, मोर, तोतों, कपोतों आदि के बारे में कभी नहीं सोचते। गौरेया के बारे में सोचना एक स्तर पर अपने समूचे वातावरण के बारे में सोचना है।

प्रकृति में एक-एक पत्ते, एक-एक फूल और एक-एक जीव का महत्व है। इन सबसे मिलकर हम बने हैं और ये सब मिलकर हमें बना रहे हैं। गौरेया हमारे जीवन का हिस्सा है और हमारी सात्विक खुशी का। उसे गायब नहीं होने देना है।

वर्षों पहले एक कवि ने एक कविता लिखी थी : 'मैं फिर कहता हूँ चिड़िया' यह कविता एक स्तर पर इस संसार में छोटे से छोटे जीव के अस्तित्व का सम्मान करने की कविता थी। उसी कविता पंक्ति से शब्द उधार लेकर मैं कहना चाहूँगा कि अब समय आ गया है, जब सब लोग मिलकर कहें : मैं फिर कहता हूँ गौरेया। (नईदुनिया)

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