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इधर जापानी, तो उधर जर्मन धोखा

कैप्टन लक्ष्मी की कहानी, उन्हीं की ज़बानी

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राम यादव

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बड़ी विचित्र स्थिति थी। सिंगापुर में मोहन सिंह को लग रहा था कि जापानी उन्हें धोखा देंगे और बर्लिन में नेताजी बोस को विश्वास हो चला था कि जर्मन उन्हें धोखा दे रहे हैं। 29 दिसंबर 1942 को जापानियों ने- इस बीच जनरल बन गए- मोहन सिंह को उनके पद से हटा कर गिरफ्तार कर लिया। उनकी सेना बिखरने लगी। उधर जर्मनी छोड़ कर जापान पहुँचने के बाद नेताजी बोस 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर आएः 'वहाँ एक हॉल में सभा हुई। रासबिहारी बोस ने उस सभा में कहा कि अब मेरा काम ख़त्म हो रहा है। मेरी उमर भी बहुत हो चुकी है। स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। अब हम एक युवा को यह काम सौंप रहे हैं। हमें पूरी उम्मीद है कि उनके नेतृत्व में आप लोग भारत को आज़ादी दिला पाएँगे।'

इस तरह नेताजी सुभाषचंद्र बोस ही सिंगापुर में मोहन सिंह वाली आज़ाद हिंद फ़ौज के भी अब सर्वोच्च कमांडर बन गए। कैप्टन लक्ष्मी ने बताया, 'तीसरे दिन एक और बड़ी सभा हुई। नेताजी ने कहा कि इस समय जो आज़ाद हिंद फ़ौज है, उसमें वे लोग हैं, जो पहले अंग्रेज़ों के साथ थे। इसलिए इसे क्रांतिकारी फ़ौज नहीं कहा जा सकता। भारत में इसकी बात कोई नहीं सुनेगा। वहाँ तो फ़ौज और जनता के बीच कोई मेल ही नहीं है। जनता फ़ौज से नफ़रत करती है। इसलिए, 18 से 25 साल के बीच के सभी भारतीय नौजवान अब हमारी आज़ाद हिंद फ़ौज में भर्ती हो सकते हैं। इस तरह, तीन ही हफ्तों के भीतर सैनिकों की संख्या दुगुनी हो गई- क़रीब 70 हज़ार।'

70 हज़ार सैनिकों के रहने-खाने और हथियारों की व्यवस्था करने के लिए धन जुटाना भी तो टेढ़ी खीर ही रहा होगाः 'हथियारों के मामले में ऐसा हुआ कि सिंगापुर में आत्मसमर्पण करने वाली बिटिश सेना अपने पीछे खूब हथियार छोड़ गई थी। सैनिक और अफसर इनके इस्तेमाल के तौर-तरीकों से भी भलीभाँति परिचित थे। इसलिए सबको वही हथियार बाँटे गए। बाक़ी ख़र्चों के लिए कर्ज लिया गया- जर्मनी से भी और जापान से भी। विश्वयुद्ध के अंत के साथ लड़ाई थमने से पहले आधा कर्ज लौटा भी दिया गया था।'

महिलाओं ने मंगलसूत्र तक दान कर दि
'नेताजी धनवान स्थानीय हिंदुस्तानियों से कहा करते थे कि आप लोगों की उमर हो गई है, फ़ौज में भर्ती नहीं हो सकते, तो कम से कम फ़ौज का खर्च उठाने में तो हाथ बंटाएँ। इसके लिए हमें यदि भीख माँगनी पड़ी, तो यह आप लोगों के लिए भी तो शर्मिंदगी की बात होगी। उनकी इस अपील के बाद खूब पैसा आने लगा। एक बैंक भी बनाया गया, पहले सिंगापुर में, फिर बर्मा में। औरतें तो अपने ज़ेवर भी, यहाँ तक कि मंगलसूत्र भी उतार कर दान में देने लगीं। नेताजी कहते, इसे हम नहीं लेंगे। इसे आप लोग अपने पास ही रखें। तब औरतें सोनार के पास जाकर और मंगलसूत्र को पिघलवा कर उसके टुकड़े दान में देने लगीं। दो बड़े-बड़े बक्से ज़ेवरों से भर गए थे। बाद की अफरातफरी में उनका क्या हुआ, आज तक पता नहीं चला है।'

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नेताजी सुभाषचंद्र बोस स्त्री-पुरुष समानता के भी बड़े क़ायल थे। उनके आने से पहले मोहन सिंह ने उस समय की डॉ. लक्ष्मी स्वामीनाथन को अपनी आज़ाद हिंद फ़ौज में भर्ती करने से मना कर दिया था। बदले में उनसे सिंगापुर के 'साइनऑन' रेडियो से ख़बरें और संदेश आदि प्रसारित करने को कहा। अंग्रेज़ इस रेडियो स्टेशन की फ्रीक्वेंसियों को बुरी तरह जाम करते थे कि प्रसारण शायद ही कोई सुन पाता था।

एशिया की पहली महिला रेजीमें
जबकि नेताजी कहा करते थे, 'हर देश में पुरुष भी होते हैं और महिलाएँ भी। महिलाओं को आज़ादी की पुरुषों से ज़्यादा ज़रूरत है, क्योंकि हमारी गुलामी केवल सरकारी नहीं, सामाजिक भी है। वे 1857 की लड़ाई का उदाहरण दिया करते थे। कहते थे, उस समय अंग्रेज़ों ने माना था कि झाँसी की रानी जैसी यदि एक हज़ार भारतीय महिलाएं युद्धभूमि पर कूद पड़ी होतीं, तो वे कुछ नहीं कर पाए होते। अतः हम एक महिला रेजीमेंट भी बनाएँगे। हमें कम से कम एक हज़ार महिलाएं चाहिए। महिला रेजीमेंट बनी। उसमें एक हज़ार तो क्या, लगभग दो हज़ार महिलाएं थीं। अधिकतर को लड़ाई के मैदान में भी जाना पड़ा। लड़ना पड़ा। हथियार चलाना पड़ा। मेडिकल कोर छोड़कर मैं भी कैंप में गई। तीन महीने तक हथियार चलाने की ट्रेनिंग ली। जंगल में छापामार योद्धाओं की तरह गुरिल्‍ला वॉक किया। महिला सैनिकों को इसकी ट्रेनिंग देने की ज़िम्मेदारी भी मुझे ही सौंपी गई थी। यह ट्रेनिंग 1943 में शुरू हुई और 1945 में लड़ाई बंद होने तक चली।'

नेताजी बोस ने अपनी 'रानी झाँसी महिला रेजीमेंट' का प्रमुख लक्ष्मी स्वामीनाथन को ही बनाया था। सारे एशिया की वह पहली महिला रेजीमेंट थी और वे सारे एशिया की पहली महिला कैप्टन (या कर्नल)। नेताजी के नेतृत्व में- और जापानियों की सहायता से- आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिक बर्मा (अब म्यांमार) होते हुए एक समय भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा तक पहुँचने में सफल हो गए थे। जापानियों ने अग्रेज़ों को बर्मा से 1942 में ही खदेड़ बाहर कर दिया था। वहाँ की उपनिवेशी सरकार ने भारत के शिमला में शरण ले रखी थी। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह भी जापानियों के हाथ लग गए थे। उन्हें जापानियों ने नेताजी बोस की अस्थायी सरकार को सौंप दिया। वहाँ भातीय तिरंगा फ़हराया गया। द्वीप समूहों के नाम बदलकर शहीद और स्वराज कर दिए गए। जापान और उसके बाद जर्मनी और इटली ने भी तब नेताजी की अस्थायी आज़ाद हिंद सरकार को मान्यता प्रदान कर दी। अब उनका नारा था 'चलो दिल्ली।'

दिल्ली बहुत दूर निकल
लेकिन, इसे भाग्य की विडंबना ही कहेंगे कि नेताजी और उनके फ़ौजी कभी दिल्ली नहीं पहुँच सके। अप्रैल 1945 आने तक यूरोप में हिटलर विरोधी पश्चिमी मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ जर्मन सेना को रौंदते हुए बर्लिन की ओर कूच करने लगी थीं। एशिया में हिटलर के साथी जापान की सेनाओं को भी हर तरफ़ से पीछे हटना पड़ रहा था। अंग्रेज़ों के नए हमलों के आगे हार मान कर बर्मा में जापानियों के पीछे हटने के साथ ही, अप्रैल 1945 में आज़ाद हिंद फ़ौजियों को भी दिल्ली चलना छोड़कर, बैंकॉक की तरफ भागना पड़ा।

उस समय कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन भी बर्मा के बीहड़ जंगलों में नेताजी बोस के साथ थीं : 'नेताजी ने जब रानी झाँसी रेजीमेंट बनाई, तभी कह दिया था कि यह न सोचें कि हम आपको लड़ाई में बिना लड़े मरने (कैनन फॉडर) के लिए इस्तेमाल करेंगे। लड़कियों के माता-पिता से उन्होंने कहा कि यदि हमारी जीत हुई, तब तो कोई बात नहीं है, लेकिन यदि हमें हार कर पीछे हटना पड़ा, तो हम इन्हें खुद इनके घर पहुँचाएँगे। बर्मा में लड़ रही रानी झाँसी रेजीमेंट की ज्यादातर महिला सैनिक मलाया से आई थीं। जापानियों ने नेताजी से कहा, उन्हें घर पहुँचाने के लिए हमारे पास वाहन नहीं हैं। यानी बर्मा से थाइलैंड तक उन्हें पैदल जाना पड़ेगा। उसके बाद ही उन्हें कोई सवारी मिल सकती है।'

लहूलुहान पैरों से रात-दिन चलते रह
'अतः नेताजी खुद उनके साथ पैदल चल पड़े। जंगलों में वे न जाने कितने दिन उनके साथ पैदल मार्च करते रहे। पैरों में छाले पड़ गए थे। पैर लहूलुहान हो जाते थे। तब भी वे उन युवतियों के साथ चलते रहे। सबको अपने-अपने घर पहुँचाया। मैंने नेताजी से कहा, सिंगापुर में मेरा कोई घर नहीं है, घर तो भारत में है। मैं डॉक्टर हूँ और उस अस्पताल में काम करना चाहती हूँ, जो हमने घायलों, कमज़ोरों और चल-फिर न सकने वालों के लिए बनाया है। वह अस्पताल उत्तरी बर्मा के शान प्रदेश में था। नेताजी ने मुझे वहाँ भेज दिया। हमारे पास कंबल बहुत कम थे। तब भी हमने रेडक्रॉस के लाल कंबल काट कर ऐसे बड़े-बड़े लाल क्रास बनाए थे, जिनको देखकर हर कोई अस्पताल को दूर से ही पहचान सकता था। इसके बावजूद अंग्रेज़ों के हवाई जहाज़ ने आकर उसे बम से उड़ा दिया। हमें एक बार फिर जंगल में छिपना पड़ा। वहाँ भटकते हुए मुझे बंदी बना लिया गया। एक साल नज़रबंद रहना पड़ा। पहले मांडले में, उसके बाद रंगून में। 1946 में मुझे बर्मा से भारत भेजा गया।'

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भारत में काँग्रेस पार्टी के नेताओं ने उन पर बड़े डोरे डाले कि वे काँग्रेस में शामिल हो जाएँ, पर वे नहीं मानीं : 'पंडितजी (नेहरूजी) ने भी कहा, पर मैंने उन्हें सुना दिया कि जिस दिन आपने भारत का बंटवारा करना मान लिया, उसी दिन मैंने तय कर लिया कि मैं काँग्रेस में कतई शामिल नहीं हो सकती। नेताजी ने (1945 में) सिंगापुर से रेडियो पर अपने एक अंतिम भाषण में हाथ जोड़कर कहा था कि आप लोग भारत का बंटवारा नहीं करें। जनता को साथ लेकर अभी और लड़ें। देश का बंटवारा आप लोग अपनी खुशी के लिए कर रहे हैं, जनता के लिए नहीं।'

विमान दुर्घटना- 'यह तो नेताजी का प्लान है'
कैप्टन लक्ष्मी उस समय बर्मा में ही थीं, जब 18 अगस्त 1945 को ताइवान (उस समय फ़ार्मोसा) से मंचूरिया जाते हुए नेताजी बोस के जापानी विमान के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने का दुखद समाचार आयाः 'मुझे ऑल इंडिया रेडियो से पता चला। लड़ाई ख़त्म हो चुकी थी। हम लोग ऑल इंडिया रेडियो सुन सकते थे। जैसे ही मैंने यह ख़बर सुनी, यही कहा, यह तो नेताजी का प्लान है। वे ज़रूर कहीं छिप गए होंगे।

मुझे इस ख़बर पर बिलकुल विश्वास नहीं हुआ। मैं उनकी अस्थाई सरकार के मंत्रिमंडल की एक सदस्य़ भी थी। उनसे आखिरी मुलाक़ात मंत्रिमंडल की बैठक में ही हुई थी। बैठक में नेताजी ने कहा, मैं किसी के हाथ क़ैद नहीं होना चाहता। मैं कहीं और जाउँगा। हम पहले से ही जानते थे कि वे रूस (उस समय सोवियत संघ) जाना चाहते थे। उन्होंने टोक्‍यो में रूसी दूतावास से पूछताछ भी की थी। दूतावास के अधिकारियों ने कहा कि हम कुछ नहीं कर सकते, हमें मॉस्को से पूछना पड़ेगा। उसके बाद ही हम कुछ बता सकेंगे। इस बीच दूतावास के कर्मचारियों को क़ैद कर लिया गया था। नेताजी ने इसके बाद कहा कि वे मंचूरिया जाएँगे। हम लोगों से अंत में उन्होने यही कहा था।'

उल्लेखनीय है कि नेताजी को आनन-फ़ानन में दक्षिण-पूर्व एशिया छोड़कर किसी नए मित्र राष्ट्र की तलाश में इसलिए जाना पड़ा, क्योंकि 8 मई 1945 को जर्मनी द्वारा बिना शर्त आत्मसमर्पण के साथ यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध का अंत हो गया था। अगस्त तक जापान अकेले ही हिटलर-विरोधी गठबंधन के मित्र राष्ट्रों से लड़ता रहा, लेकिन 6 अगस्त 1945 को अमेरिका द्वारा हिरोशिमा पर पहला परमाणु बम और तीन ही दिन बाद नागासाकी पर दूसरा परमाणु बम गिरा देने से जापान की रीढ़ और कमर, दोनों टूट चुकी थीं। 15 अगस्त को उसने भी घुटने टेक दिए। नेताजी शुरू से ही, जर्मनी जाने से पहले ही, मॉस्को जाना और सोवियत सहयोग पाना चाहते थे, पर उस समय के सोवियत तानाशाह स्तालिन को उन में या भारत के स्वाधीनता संग्राम में रत्तीभर भी दिलचस्पी नहीं थी।

नेताजी के अंतिम क्षण- 'हम आख़िरी दम तक लड़ते रहे'
नेताजी की कथित मृत्यु और उनके दाह संस्कार के समाचार को जापान ने दुर्घटना के पाँच दिन बाद जारी किया। भारत की ब्रिटिश सरकार उसे अक्टूबर 1946 तक सही मानने से इनकार करती रही। सभी यही मान रहे थे कि यह नेताजी का एक नया चकमा है। कैप्टन लक्ष्मी ने बताया कि 'मुझे विश्वास तब हुआ, जब (मार्च 1946 में) बर्मा से दिल्ली आने के बाद वहाँ कर्नल हबीबुर रहमान से मुलाक़ात हुई। उन्होंने पूरा किस्सा सुनाया कि किस तरह विमान दुर्घटना हुई और कैसे नेताजी उसमें जल गए। मैंने नेताजी को बचाने की बहुत कोशिश की, हबीबुर रहमान ने कहा- उनका हाथ वगैरह जल गया था। वे होश में नहीं थे। मुझे पहचान नहीं पा रहे थे। बार-बार आबिद हसन को बुला रहे थे। कह रहे थे, 'हसन मेरे पास आओ।' हिंदुस्तान जाकर बता दो कि हम देश की आजादी के लिए आख़िरी दम तक लड़ते रहे। इस लड़ाई को जारी रखना है, जब तक स्वराज नहीं मिल जाता।'

कर्नल हबीबुर रहमान नेताजी के घनिष्ठ विश्वासपात्र थे और उस जापानी सैन्य विमान में उनके साथ बैठे हुए थे, जो ताइपेह के हवाई अड्डे पर से उड़ान भरते समय गिरकर ध्वस्त हो गया। उसमें आग लग गई। विमान में सवार बाकी सभी लोग जापानी थे। आबिद हसन नेताजी के निजी सहायक या सचिव के समान थे। हमेशा उनके साथ रहते थे, पर उस विमान में नहीं थे। विमान में सवार जापानी जनरल शीदेई की भी मृत्यु हो गई।

जापानी सेना का कैप्टन (मेडिकल) तानेयोशी योशीमी संभवतः वह अंतिम व्यक्ति था, जिसने नेताजी बोस को अंतिम बार जीवित देखा था। अपने एक वक्तव्य में उसने कहा, 'मैंने स्वयं तेल के साथ उनके घाव साफ़ किए और मरहमपट्टी की। उनका पूरा शरीर काफ़ी जल गया था। सिर, छाती और जाँघें और भी बुरी तरह जल गई थीं। शुरू के चार घंटे वे आधी बेहोशी में थे। कुछ बुदबुदाते थे, पर होश में कभी नहीं आए। रात क़रीब 11 बजे उनका देहांत हो गया।' नेताजी की अस्थियाँ जापान के एक बौद्ध मंदिर में आज भी बाट जोह रही हैं कि उनका देश एक दिन उन्हें सम्मानपूर्वक अपने यहाँ ले जाएगा।

कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन मार्च 1947 में लाहौर के प्रेम कुमार सहगल के साथ विवाह करने के बाद लक्ष्मी सहगल बन गईं। उनके पति भी आज़ाद हिंद फ़ौज में कैप्टन थे। देश के बंटवारे के बाद दोनों ने कानपुर में नया घर बसाया। वहाँ वे अंतिम समय तक अपने दवाख़ाने में ग़रीबों और बीमारों का इलाज़ करती रहीं और राजनीति में भी सक्रिय रहीं। कैप्टन लक्ष्मी सहगल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बन गईं और 2002 के राष्ट्रपति पद के चुनाव में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के विरुद्ध वामपंथी पार्टियों की उम्मीदवार भी रहीं। भेटवार्ता में उन्होंने कहा, वे शुरू से जानती थीं कि काँग्रेस पार्टी के समर्थन के बिना वे राष्ट्रपति का चुनाव नहीं जीत सकतीं, पर इसलिए चुनाव लड़ना मान गईं कि पहली बार कोई महिला देश का राष्ट्रपति बन सकती थी।

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