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विनोद मेहता : विलक्षण पत्रकार का खामोश हो जाना

हमें फॉलो करें विनोद मेहता : विलक्षण पत्रकार का खामोश हो जाना

आलोक मेहता

विनोद मेहता का जाना भारतीय पत्रकारिता जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। भारतीय पत्रकारिता में परंपरा और प्रोफेशन के बीच कुशल संयोग आज के समय में कम ही दिखाई दे रहे हैं ऐसे समय में उनका खामोश हो जाना निश्चित रूप से आघात है। 

 
 
वे एक संघर्षशील पत्रकार रहे। डेबूनियर (1974), संडे ऑब्‍जर्वर (1980), इंडियन पोस्‍ट (1987), द इंडिपेंडेंट (1989), पायेनियर (दिल्‍ली) और आउटलुक (1995) के साथ उनकी पत्रकारिता यात्रा इतनी विलक्षण रही कि हर पत्र-पत्रिका और प्रकाशन समूह के साथ उनके अनुभव विशिष्ट रहे। डेबूनियर उन दिनों जब अपनी तस्वीरों के लिए चर्चित हुआ करता था उस समय भी उनके गंभीर साक्षात्कारों ने भारतीय पत्रकारिता को नई चमक दी। 
 
उन्होंने अपनी व्यावसायिक आचार संहिता से समझौता कभी नहीं किया। अपनी शर्तों पर उन्होंने पत्रकारिता के मानदंड स्थापित किए। यह उनकी ही विशेषता रही कि अगर उनके किसी करीबी पर भी अगर तथ्यात्मक विरोधी जानकारी भी आई तो कभी आपत्ति नहीं ली, वहीं विरोधी पक्ष के सकारात्मक विचारों के लिए भी उनके संपादन में उतना ही स्थान रहा। राजनेताओं से करीबी रिश्ते भी उनकी लेखनी को प्रभावित नहीं कर सके। यह उनकी ही काबिलियत थी कि उनकी तीखी से तीखी टिप्पणी के बावजूद उनके राजनीतिक रिश्तों पर कभी आंच नहीं आई। व्यक्तिगत रूप से उनके किसी से संबंध खराब नहीं हुए। 
 
देश-विदेश के कई बड़े संपादकों, राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के साथ उनकी मुलाकात होती रही लेकिन इस बात का अभिमान उनके व्यक्तित्व में कभी शामिल नहीं हुआ। उनकी डायरी खासी लोकप्रिय रही। अपने नैतिक साहस के कारण वे हमेशा चर्चा में रहे। वे अपने बारे में खुद कहा करते थे कि मैं शायद अब तक का सबसे ज्‍यादा निकाला जाने वाला संपादक हूं।  
 
उनकी लिखी संजय गांधी और मीना कुमारी की जीवनी भी उतनी ही चर्चित रही जितना कि 2001 में प्रकाशित उनके लेखों का संग्रह Mr. Editor! how close are you to the PM? 
 
उनके साथ काम करने पर जाना कि पत्रकारीय बेचैनी क्या होती है? रात भर जागना, एक-एक कॉपी को चेक करना और प्रकाशन के पहले की व्यग्रता उनकी शख्सियत में शामिल थीं।  उनका जाना समूची पत्रकारिता के लिए कष्टप्रद है। श्रद्धासुमन। 

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