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हक शिक्षा और शिक्षक का

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सिद्धार्थ झा

हाल ही में लोकसभा में एक विधेयक पारित हुआ है जिसके कानून बन जाने की सूरत में देश में लगभग 8 लाख शिक्षकों की कमी हो जाएगी। पारित हुए विधेयक के अनुसार 31 मार्च 2019 तक सभी सरकारी, गैरसरकारी शिक्षकों को बीएड की डिग्री हासिल करनी है अन्यथा वे कहीं पढ़ाने योग्य नहीं रहेंगे।
 
लोकसभा में पारित मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार संशोधन विधेयक में हुई चर्चा में यह बात सामने आई कि इस समय निजी स्कूलों में 5 लाख और सरकारी स्कूलों में ढाई लाख से ज्यादा गैर-प्रक्षिशित लोग पढ़ा रहे है, जो काफी नुकसानदायक है। फिलहाल ये विधेयक राज्यसभा में जाएगा और देश की खस्ताहाल शिक्षा व्यवस्था का भविष्य तय करेगा।
 
अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू भी देखें। देश वर्तमान में 12 से 14 लाख शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है। आपको याद होगा कि कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने एक सवाल किया था कि आखिर युवा क्यों नहीं शिक्षक बनना चाहते हैं? देश में शिक्षकों की भारी कमी है। युवा शिक्षक बनना नहीं चाहते, ये दोनों बातें एकसाथ कैसे मुमकिम है?
 
बाजार का सिद्धांत कहता है कि जहां मांग होती है, वहीं आपूर्ति होती है लेकिन इस मामले में विरोधाभासी परिणाम क्यों है? और सरकार, जो लोकसभा में विधेयक लाई है, वो आग में घी का काम करेगा। यदि किसी कारणवश ये शिक्षक डिग्रियां नहीं ले पाए तो 20 लाख से ज्यादा शिक्षकों की कमी से शिक्षा व्यवस्था का हाल बेहाल होगा। 
 
अब जरा एक बानगी देखिए। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा पिछले वर्ष जारी एक रिपोर्ट में दावा किया गया कि देश में 1 लाख 5 हजार से ज्यादा स्कूल ऐसे हैं, जो सिर्फ 1 शिक्षक के भरोसे पर चल रहे हैं। इस मामले में सबसे खराब दशा मध्यप्रदेश की है, जहां 17,884 स्कूलों में 1 अध्यापक है जबकि दूसरे नंबर पर उत्तरप्रदेश है। यहां भी आंकड़ा 17,000 के पार है और तीसरे नंबर पर राजस्थान है। यानी स्थिति साफ है कि सरकार अपने स्कूलों को बेहतर कर पाने में लाचार साबित हुई है, मगर निजी स्कूलों को कैसे बर्बाद किया जाए, इसमें भी कोई कसर नहीं छोड़ी है।
 
इसकी शुरुआत शिक्षा के अधिकार के कानून से शुरू हुई। मंशा पर कोई शक नहीं है लेकिन जो तौर-तरीके अपनाए गए हैं, वे ही गले की हड्डी बन गए। हर 1 किलोमीटर के दायरे में प्राथमिक स्कूल तो खुल गए लेकिन उसकी बेहतर सुचारु ढंग से व्यवस्था कैसे हो, इस पर काम नहीं किया गया। नतीजन एक ही गांव के दायरे में कई-कई स्कूल खुल गए और ग्रामीणों ने अपनी सुविधानुसार ब्राह्मणों व दलितों के स्कूलों में बांट लिया। बिहार में शिक्षा व्यवस्था पर अपनी एक रिपोर्ट बनाने के दौरान ये बात सामने आई।
 
मास्टरजी रामभरोसे निकले। कहने को तो वे शिक्षा मित्र थे, मगर दुश्मन ज्यादा नजर आए। यही हालत उत्तरप्रदेश के भी स्कूलों के थे, जहां प्राथमिक शिक्षक इसी तर्ज पर रखे गए थे। दिल्ली में भी पिछले कुछ सालों में ज्यादातर सरकारी स्कूलों को सिर्फ इसलिए बंद करना पड़ा, क्योंकि यहां छात्रों की संख्या बेहद कम थी। यानी ये स्थितियां दर्शाती हैं कि लोगों का सरकारी स्कूलों से मोहभंग हुआ है।
 
अपने आसपास कई रिक्शा चलाने वाले या ठेले पर सामान बेचने वालों से बात करने पर पता चलता है कि उनके बच्चे किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं। ये बताते हुए उनके चेहरों पर सुकून के भाव देखने लायक होते हैं, जहां उनकी आमदनी का अच्छा-खासा हिस्सा खर्च होता होगा, मगर सरकारी में मुफ्त शिक्षा की तरफ वे नजर नहीं उठाते हैं।
 
अब आरटीई पर एक बार फिर आते हैं। इनमें कुछ जरूरी शर्तें हैं निजी स्कूल संचालकों के लिए, जैसे माध्यमिक या प्राथमिक स्कूल का भूखंड कितना हो, कितने भवन हो, लाइब्रेरी हो यानी लंबी-चौड़ी लिस्ट मौजूद है। उस पर तुर्रा ये है कि अब उसको सरकार द्वारा तय वेतन भी उसको देना है, जो काफी अधिक है सरकारी स्कूलों के अध्यापक जितना।
 
सोचिए, किसी क्लास में 30 बच्चों का जैसे-तैसे उसने एडमिशन किया। सबसे 500-700 फीस लेता है। कुल 15 से 17 हजार एक क्लास से आता है जिसमें से उसको सरकार द्वारा निश्चित 30,000 वेतन देना है, स्कूल के दूसरे खर्च निकालने हैं। क्या ये संभव है? ऐसे में उसको फीस बढ़ानी होगी जिसका सीधा असर निम्न आय वर्ग पर होगा और उसकी लाचारगी की आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
 
अब थोड़े से स्टैंडर्ड स्कूल की बात करते हैं, जहां नियमानुसार उसको 25 प्रतिशत निम्न आय वर्ग के लोगों के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देनी है। सरकार थोड़ा-बहुत वहन करती है। आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि 25 प्रतिशत निम्न आरक्षित वर्ग के छात्रों की फीस का भार 75 प्रतिशत निम्न मध्यम वर्ग के छात्रों के अभिभावकों की जेबों पर पड़ा है, क्योंकि स्कूलों के मालिकों की नीयत साफ है कि वे अपने प्रॉफिट पर आंच नहीं आने देना चाहते। यानी जो सरकार अपने सरकारी स्कूलों के हालात को ठीक नहीं कर पाई, वो निजी स्कूलों को बदतर जाने-अनजाने में बनाती जा रही है।
 
जहां तक सरकारी स्कूलों की बात है वहां भी वे सर्वोदय, केंद्रीय, सैनिक स्कूल, प्रतिभा विद्यालय, नवोदय जैसे भागों में बंटे हुए हैं। सरकारी में भी एकरूपता नहीं है फिर दुनियाभर के बोर्ड्स हैं। क्या नवोदय, केंद्रीय या प्रतिभा विद्यालयों में आरटीई के नियम पूरे होते हैं? बगल में रहने वाले को क्या वहां दाखिला मिल जाता है? और यदि नवोदय या प्रतिभा विकास विद्यालयों में लिखित परीक्षा के आधार पर दाखिला मिलता है तो क्या ये नियमों के खिलाफ नहीं है?
 
स्कूल का मतलब बड़ा भूखंड, बड़ी बिल्डिंग व लाइब्रेरी होता तो कब का सरकारी स्कूलों का बेड़ा पार हो जाता लेकिन सरकार ने बुनियादी बातों को छोड़कर इस पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखा। नतीजा सबके सामने है जबकि निजी स्कूलों ने कम संसाधनों के बावजूद उम्दा प्रदर्शन किया है, मगर सरकार के इस तरह के बेसिरपैर के नियम इसको भी खत्म कर देंगे।
 
सरकारी ऑफिस में बाबू, मंत्री या नेता बनने की कोई योग्यता हो या न हो लेकिन टीचर बीएड ही चाहिए। ये जानते हुए भी इसमें दाखिला लेना और कोर्स पूरा करना कितना मुश्किल है खासतौर से काम करने वाले शिक्षकों के लिए। आदर्श स्थिति तो ये होती कि समुदाय अपना स्कूल अपनी देखरेख में चलाते, सरकार सिर्फ निगरानी करती या छात्रों को हर माह छात्रवृत्ति देते जिससे वो अपना स्कूल अपनी मर्जी से चुनते।
 
अभी भी प्रत्येक छात्र पर सालाना 20 से 30 हजार रु. सरकार औसत खर्च करती है, भले ही आपका बच्चा किसी निजी स्कूल में पढ़ता हो। दूसरी बात, जो शिक्षक बरसों से पढ़ा रहे हैं और काम करने के दौरान अपना अनुभव अर्जित किया है उनको शून्य मान लेना कितना उचित है?
 
सरकार को गंभीरता से सोचना है कि उसको नियामक बनाकर दूर खड़े होकर निगरानी करनी है या हवाई जहाज, ट्रेन, स्कूल चलाकर उसकी बेचारगी का रोना, रोना है। उसके घाटे की भरपाई के लिए दुनियाभर के टैक्स लगाने हैं, मगर शिक्षण संस्थानों के प्रति सरकारों का रुख देखकर यही कहा जा सकता है कि इस सूरत में अहित छात्रों का ही होगा।
 

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