Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

आइए, वंशवादी नेतृत्व के चंगुल से लोकतंत्र को बचाएं

हमें फॉलो करें आइए, वंशवादी नेतृत्व के चंगुल से लोकतंत्र को बचाएं
webdunia

अवधेश कुमार

राजतंत्रीय शासन व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यही माना जाता है कि उसमें वंशानुगत नेतृत्व की परंपरा होती है। राजा का पुत्र या राजा द्वारा नामित व्यक्ति ही युवराज होता है तथा बाद में राजा। विवेक यह नहीं कहता कि किसी वंश में जो भी पैदा होगा उसमें शासन चलाने के लिए आवश्यक सारे गुण होंगे ही। उसमें आवश्यक क्षमताएं होंगी ही। हालांकि राजतंत्र में भी अनेक राजा अपने पुत्रों या वारिसों में सबसे गुणी, सबसे क्षमतावान को प्रश्रय देते थे। राजकुमारों को बचपन से ही आवश्यक शिक्षाएं प्रदान की जातीं थीं एवं उन्हें अनेक कठोर परीक्षणों से गुजरना होता था।
 
किसी स्वाभाविक लोकतंत्र में वंशवादी नेतृत्व की कल्पना भी नहीं की जानी चाहिए। 'लोकतंत्र' का मतलब है, जनता के बीच से संघर्ष करते हुए, लोकप्रियता पाते हुए नेतृत्व का उभरना। इसीलिए कुछ लोग 'लोकतंत्र' को आज की स्थिति में श्रेष्ठतम शासन प्रणाली मानते हैं। सच्चे लोकतंत्र में नेता लोक के बीच से उभरना चाहिए। हम यह नहीं कहते कि भारतीय राजनीति में एकदम ऐसा नहीं हो रहा है, हो रहा है लेकिन धीरे-धीरे उसका परिमाण घट रहा है तथा वंशवादी नेतृत्व हावी हो रहा है। 
 
हालांकि किसी राजनीतिक परिवार में जन्म लेने का यह अर्थ नहीं है कि उस परिवार के किसी दूसरे सदस्य को राजनीति करने का अधिकार ही नहीं होना चाहिए। अगर उसमें योग्यता है, क्षमता है तो उसे राजनीति में काम करना चाहिए। वह अपनी बदौलत यदि राजनीति में स्थान बनाता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। वंशवाद न हो इसलिए किसी योग्य व्यक्ति को देश की सेवा से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
 
किंतु यह सोच कि एक वंश से ही नेतृत्व निकल सकता है और उसे ही दल और बहुमत मिलने पर सरकार का नेतृत्व सौंपा जाना चाहिए या वह जिसे चाहे उसे नेतृत्व सौंपकर पीछे से परोक्ष शासन करे, यह लोकतंत्र की वास्तविक अवधारणा के ही प्रतिकूल है। लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण का द्योतक है। 
 
दुर्भाग्य से भारत में यह प्रवृत्ति जोर पकड़ी है। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के साथ वंशवादी नेतृत्व का प्रश्न फिर से सतह पर आ गया है। हम राहुल के गुणों और क्षमताओं पर यहां कोई बात नहीं करना चाहते किंतु यह तो स्वीकार करना होगा कि वे अगर नेहरू-इंदिरा वंश से नहीं होते, स्व. राजीव गांधी के पुत्र नहीं होते तो कांग्रेस के लोग उनको अध्यक्ष बनाने पर 'विचार' तक नहीं करते। सोनिया गांधी के साथ भी ऐसा ही था। राजीव गांधी की विधवा होने का लाभ उन्हें मिला और सबसे ज्यादा 18 वर्षों तक अध्यक्ष बने रहने का रिकॉर्ड उन्होंने बना लिया। 
 
लेकिन क्या इस मामले में सोनिया और राहुल अकेले हैं? क्या कांग्रेस पार्टी इस मामले में अपवाद है? नहीं। आप नजर उठा लीजिए, आपको अनेक पार्टियां एक परिवार के नेतृत्व तक सिमटी दिखाई देंगी। दिल्ली के पड़ोस उत्तरप्रदेश में चले जाइए। समाजवादी पार्टी डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का वारिस स्वयं को मानती है। लोहियाजी ने जीवनभर वंशवादी नेतृत्व के खिलाफ आवाजें उठाईं। समाजवादी पार्टी में आज यह कल्पना ही नहीं की जा सकती कि मुलायम परिवार के अलावा कोई दूसरा पार्टी या बहुमत आने पर सरकार का नेतृत्व कर सकता है।
 
पड़ोसी बिहार में राष्ट्रीय जनता दल को देखिए। लालू प्रसाद यादव और उनका परिवार ही पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। लालू स्वयं अध्यक्ष रहेंगे या जिसे चाहें अध्यक्ष बनाएंगे लेकिन निर्णय का सूत्र उनके हाथों ही रहेगा। जब वे चारा घोटाले में जेल गए तो अपनी अनपढ़ पत्नी राबड़ीदेवी को सत्ता सौंपा और एकाध अपवाद को छोड़कर पूरी पार्टी ने इसे सहजता से स्वीकार कर लिया। अगर सूची बनाने बैठें तो बिहार में ही लोक जनशक्ति पार्टी, आंध्रप्रदेश में तेलुगुदेशम से लेकर एआईएमआईएम, तमिलनाडु में द्रमुक, उड़ीसा में बीजू जनता दल, महाराष्ट्र में शिवसेना, झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा, पंजाब में अकाली दल तक एक बड़ी श्रृंखला बन जाएगी।
 
विडंबना देखिए कि इनमें से ज्यादातर पार्टियां कांग्रेस के विरुद्ध विद्रोह के भाव से पैदा हुईं। ऐसे में उनके अंदर शुद्ध लोकतांत्रिक संस्कार होना चाहिए था। किंतु समय की विकृतियों ने उन पार्टियों को वंशवादी अधिनायकवाद में परिणत कर दिया है। लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। कारण, जिन पार्टियों का स्वयं ही लोकतांत्रिक चरित्र नहीं होगा, वे हमारे संसदीय लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रक्रियाओं का पालन कहां से करेंगे? दुर्भाग्य देखिए कि इन सभी पार्टियों को अपने-अपने राज्यों में वोट मिलता है। ये कभी सत्ता में होते हैं तो कभी विपक्ष और केंद्रीय शासन में भी इनकी भूमिका होती है।
 
एक समय भारत में वंशवाद बहुत बड़ा मुद्दा था और यह कांग्रेस के विरुद्ध जाता था। देश की ज्यादातर पार्टियां इस आधार पर कांग्रेस का विरोध करती थीं कि हमें वंशवाद को खत्म करना है। यह विरोध उचित भी था, क्योंकि लोकतंत्र में वंशवादी नेतृत्व का कोई औचित्य नहीं है। कांग्रेस को इसके कारण झटका लगा भी। पहला झटका 1967 में लगा, जब कई प्रदेशों में उसकी पराजय हुई और संविद सरकारें बनीं। दूसरा बड़ा झटका उसे 1977 में लगा, जब केंद्र से भी उसकी सत्ता चली गई।
 
वैसे 1977 की पराजय में आपातकाल और उस दौरान जबरन नसबंदी की मुख्य भूमिका थी लेकिन वंशवादी अधिनायकवाद भी उस समय एक बड़ा मुद्दा था। ऐसा लगा कि देश की राजनीति बदलेगी, आपातकाल के संघर्ष के विरुद्ध निकले हुए नेता और पार्टियां राजनीति और सत्ता में शुद्ध लोकतांत्रिक संस्कार पुनर्स्थापित करेंगे। यह उम्मीद समय के थपेड़ों के साथ टूट गई। आज वंशवादी नेतृत्व वाली जितनी पार्टियां हैं उनके ज्यादातर नेता आपातकाल के संघर्ष से चमके हुए हैं।
 
सच कहा जाए तो ये सब लोकतंत्र के अपराधी हैं। लेकिन इनको वोट तो हम-आप ही देते हैं। अगर हम-आप वोट न दें तो वंशवादी नेतृत्व का अपने-आप अंत हो सकता है। हम जाति, क्षेत्र, संप्रदाय, भाषा, संस्कृति आदि के आधार पर बंट जाते हैं या यों कहें कि इस आधार पर ये हमारे अंदर संकुचित और कहीं-कहीं उपराष्ट्रीय भावनाएं भड़काते हैं और हम उस चक्कर में आ जाते हैं। तो दोषी केवल ये ही नहीं हैं, हम-आप भी हैं, जो इनका समर्थन करते हैं। आखिर यह प्रश्न सबसे पहले हमें अपने-आपसे करना चाहिए कि इनका अपने-अपने क्षेत्रों में इतना व्यापक समर्थन आधार क्यों है? अगर देश के लोग केवल विचार करने लगें और इसके आधार पर मतदान का निर्णय करें तो वंशवादी नेतृत्व का नामोनिशान मिट जाएगा।
 
वंशवादी नेतृत्व ने हमारे देश को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। इस मायने में सच्चा लोकतंत्र हमारे देश में है ही नहीं। इससे सबसे बड़ी क्षति तो यह होती है कि राजनीति में स्वाभाविक नेता पैदा होने की संभावना खत्म हो जाती है। कोई जमीन से संघर्ष करके यदि राजनीति में आना चाहे जिसके अंदर ईमानदारी और योग्यता दोनों हो, तो उसे राजनीति में उपयुक्त स्थान शायद ही मिले। उसे नेता की जी-हुजूरी करके ही अपने को पार्टी में बनाए रखना होगा। कई बार कुछ नेता यदि उभरने लगते हैं तो वंशवादी नेतृत्व भय से उसका दमन कर देते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं।
 
यह सामान्य समझ की बात है कि जब राजनीति में ईमानदार और योग्य लोगों के आने का रास्ता अवरुद्ध हो जाएगा तो फिर देश का वर्तमान और भविष्य अच्छा हो ही नहीं सकता। वंशवादी नेतृत्व का राजनीति में रहने के पीछे एक निहित स्वार्थ होता है तथा वैसा ही निहित स्वार्थियों का समूह उसके इर्द-गिर्द पनप जाता है। इस कारण जमीनी सच्चाई भी उस तक नहीं पहुंचती। विखंडित राजनीति में ये मिल-जुलकर सरकार बनाते हैं तथा योग्यता-अयोग्यता को दरकिनार करते हुए अपने प्रति निष्ठा रखने वालों को मंत्री बनाते या बनवाते हैं। ऐसे लोग देश या प्रदेश का कितना भला करते होंगे, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
 
जाहिर है, यदि हमें भारत में कल्पना के अनुरूप सच्चे लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करना है तो वंशवादी नेतृत्व के चंगुल से इसे निकालना होगा। मुख्य प्रश्न यही है कि आखिर यह होगा कैसे? जो लोग भी देश में सच्चे लोकतंत्र के हिमायती हैं, चाहे वे किसी विचारधारा के हों, उन सबको इस विषय पर फोकस करना होगा। 
 
आइए, हम सब मिलकर एक बार विचार तो करें कि इससे देश को छुटकारा कैसे मिले?

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

भारत-ईरान एक तरफ, चीन-पाकिस्तान दूसरी तरफ