Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

इस पैंतरेबाजी से तो संसद चलने से रही

हमें फॉलो करें इस पैंतरेबाजी से तो संसद चलने से रही
webdunia

अनिल जैन

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक दिवसीय उपवास संपन्न हो गया। उनके साथ ही उनके मंत्रियों और सांसदों ने भी देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर उपवास किया। उनकी यह कवायद देश के विभिन्न भागों में जारी जातीय और सांप्रदायिक हिंसा या हाल के दिनों में उजागर हुई बलात्कार की पाशविक वारदातों पर रोष जताने या प्रायश्चित करने के तौर पर नहीं थी। यह उपवास विपक्ष के खिलाफ था। प्रधानमंत्री के उपवास रखने की घोषणा विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस पर यह आरोप लगाते हुए की गई थी कि उसने संसद नहीं चलने दी।


उपवास के रूप में प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ दल का यह राजनीतिक उपक्रम अपने आप में असाधारण तो था ही, पूरी तरह औचित्यहीन भी। जो सत्ता में होता है उसके खिलाफ विपक्षी दल या अन्य दूसरे लोग आमतौर पर धरना, प्रदर्शन, अनशन आदि करते हैं। याद नहीं आता कि इस तरह का प्रतिरोधात्मक उपक्रम भारत या दुनिया के किसी भी देश के शासनाध्यक्ष ने कभी किया हो। संसद नहीं चल पाने को लेकर विपक्ष पर प्रधानमंत्री के आरोप और फिर उपवास की कवायद को अगर सालभर बाद होने वाले आम चुनाव के लिए प्रचार अभियान का प्रस्थान बिंदु भी मान लिया जाए तो सवाल है कि अपने उपवास के जरिए प्रधानमंत्री मोदी क्या संदेश देना चाहते थे? क्या उन्होंने कांग्रेस का हृदय परिवर्तन करने के लिए उपवास का उपक्रम किया?

जहां तक संसद की कार्यवाही न चल पाने की बात है, तो संसदीय प्रणाली में इसकी जवाबदेही सत्तापक्ष की होती है। हर सरकार में एक संसदीय कार्य मंत्री होता है, जो सत्र शुरू होने से पहले तथा सत्र के दौरान भी विपक्षी दलों के नेताओं से औपचारिक और अनौपचारिक तौर पर संवाद करता रहता है और संसद की कार्यवाही बेरोकटोक चलती रहे, इसके लिए दोनों पक्षों में यथासंभव तालमेल बनाए रखने की कोशिश करता है। संसद में लोक-महत्व के मुद्दे उठाना और जनहित से जुड़े मसलों पर सरकार को घेरना विपक्ष की प्राथमिक जिम्मेदारी है। लेकिन पिछले 4 वर्षों के दौरान यही देखने में आया है कि सत्तापक्ष प्राय: विपक्ष के सवालों को अपने ऊपर आरोपों की तरह लेता है और उनका तथ्यपरक जवाब देने या उनको लेकर जमीनी कार्रवाई करने के बजाय विपक्ष से सवाल करने और पिछले 60-70 सालों की बात करने में जुट जाता है।

इस तरह अहम मसला दरकिनार हो जाता है और यही सत्तापक्ष का मनोरथ भी होता है। दूसरी तरफ विपक्ष भी कई बार किसी मुद्दे पर इस कदर अड़ जाता कि उसकी परिणति सदन की कार्यवाही ठप होने में ही होती है। जहां तक संसद के पिछले बजट सत्र के बर्बाद होने की बात है, बेशक कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने कई महत्वपूर्ण मसलों पर चर्चा कराने की मांग को लेकर हंगामा किया, लेकिन सबसे ज्यादा हंगामा तो आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु के उन क्षेत्रीय दलों ने अपने-अपने राज्यों से जुड़े मुद्दों को लेकर किया, जो या तो अनौपचारिक तौर पर सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा के सहयोगी हैं या कुछ दिनों पहले तक सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल रहे हैं।

संसदीय लोकतंत्र में संसद चले और जनहित के मुद्दों पर बहस हो, यह जिम्मेदारी विपक्ष की भी होती है, मगर यह जिम्मेदारी सरकार की उससे कहीं ज्यादा होती है। लेकिन पूरे सत्र के दौरान सरकार की ओर से इस तरह की कोई इच्छा या कोशिश नहीं दिखाई दी। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के अलावा आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों के सांसद अपने-अपने सूबे से संबंधित मसलों पर बहस की मांग को लेकर हंगामा करते रहे और पीठासीन अधिकारी उनसे शांति बनाए रखने की औपचारिक अपील कर सदन की कार्यवाही स्थगित करते रहे। लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति की ओर से भी इस सिलसिले में ऐसी कोई संजीदा पहल नहीं की गई जिससे कि सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से चल सके।

इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह रही कि हंगामे के दौरान स्पीकर और सभापति का रवैया ऐसा रहा जिसे देखकर लगा कि उनकी भी रुचि संसद की कार्यवाही चलाने में कम और उसे स्थगित करने में ज्यादा है। यह पहला अवसर रहा, जब संसद के किसी सत्र के दौरान गतिरोध की स्थिति को खत्म करने के लिए स्पीकर और सभापति ने सत्तापक्ष और विपक्ष के नुमाइंदों की बैठक आयोजित नहीं की। दोनों सदनों में हंगामा और कार्यवाही का बार-बार स्थगित होना सरकार के लिए भी बेहद मुफीद रहा। अगर यह स्थिति नहीं बनती और संसद सुचारु रूप से चलती तो सरकार को गिरती अर्थव्यवस्था, नित नए उजागर हो रहे बैंक घोटाले, उन घोटालों में सत्तारूढ़ दल के शीर्ष नेतृत्व से करीबी लोगों की संलिप्तता और उनका विदेशगमन, किसानों और बेरोजगारी का संकट, लड़ाकू रॉफेल विमानों का विवादास्पद सौदा, देश के विभिन्न भागों में जातीय और सांप्रदायिक तनाव, चीनी घुसपैठ, कश्मीर के बिगड़ते हालात आदि सवालों पर विपक्ष के सवालों का सामना करना पड़ता, जो कि उसके लिए आसान नहीं था।

इसके अलावा विपक्ष की ओर से आने वाला अविश्वास प्रस्ताव तथा सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव भी सरकार की मुसीबतों में इजाफा ही करता। जाहिर है कि सरकार भी नहीं चाहती थी कि संसद चले। अलबत्ता सरकार की ओर से संसदीय कार्यमंत्री और अन्य वरिष्ठ मंत्री मीडिया के सामने यह घिसा-पिटा वाक्य जरूर नियमित रूप से दोहराते रहे कि सरकार हर मुद्दे पर चर्चा के लिए तैयार है, लेकिन विपक्ष बहस से भाग रहा है। संसद में जिस तरह का गतिरोध इस सत्र के दौरान बना, उसे देखते हुए कोई डेढ़ दशक पुराना वाकया याद आता है। साल 2003 की बात है। उस समय अटलबिहारी वाजपेयी की अगुवाई में राष्ट्रीय गठबंधन की सरकार थी। अमेरिका ने इराक पर हमला बोल दिया था। तब कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियां संसद में अमेरिका के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कराने की मांग कर रही थीं।

हालांकि विदेश मंत्रालय एक वक्तव्य जारी कर उस हमले की निंदा कर चुका था लेकिन तत्कालीन विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा विपक्ष की मांग के मुताबिक संसद में निंदा प्रस्ताव लाने के पक्ष में नहीं थे। कुछ दिनों तक हंगामे की वजह से संसद में गतिरोध बना रहा। अंतत: वाजपेयी ने सिन्हा और तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री सुषमा स्वराज को बुलाकर उन्हें समझाइश दी कि संसद सुचारु रूप से चले यह सरकार की जिम्मेदारी होती है, लिहाजा हमें विपक्ष से सिर्फ मीडिया के माध्यम से ही संवाद नहीं करना चाहिए बल्कि संसद से इतर अनौपचारिक तौर पर भी बात करते रहना चाहिए। बातचीत के इसी सिलसिले में गतिरोध का हल छिपा होता है। वाजपेयी की इस नसीहत के बाद यशवंत सिन्हा और सुषमा स्वराज की स्पीकर के कक्ष में विपक्षी नेताओं से बातचीत हुई। उसी बातचीत के दौरान निंदा प्रस्ताव के मसौदे पर भी सहमति बनी। इस तरह गतिरोध खत्म हुआ था। इस पूरे वाकए के प्रकाश में अगर मौजूदा सरकार के रवैए को देखें तो कहीं से नहीं लगा कि सरकार में बैठे लोग अपने राजनीतिक पूर्वज अटल बिहारी वाजपेयी की सीख के मुताबिक विपक्ष से अनौपचारिक संवाद करने और संसद चलाने की इच्छा रखते हो। हंगामे से भरे सत्र का एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह भी रहा कि पूरे सत्र के दौरान गतिरोध की स्थिति पर प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे।

उन्होंने चुप्पी तोड़ी भी तो सत्र समाप्ति के बाद नाटकीय और हास्यास्पद अंदाज में। उन्होंने हंगामे के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराया और जो स्थिति बनी उसे अपनी बहुप्रचारित पारिवारिक और जातीय पृष्ठभूमि से जोड़ दिया। उन्होंने कहा कि कहा कि एक पिछड़ी जाति का और गरीब मां के बेटे का प्रधानमंत्री बनना विपक्ष को रास नहीं आ रहा है। संसद के ठप होने पर देश के प्रधानमंत्री की इतनी छिछली प्रतिक्रिया और फिर अपने सहयोगियों के साथ उपवास की संस्थागत नौटंकी किसी भी दृष्टि से शोभनीय नहीं मानी जा सकती। उचित तो यह होता कि जिस संसद की सीढ़ियों पर माथा टेककर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आंसू छलकाए थे, उसी संसद में वे बजट सत्र के दौरान चर्चा के लायक माहौल बनाने की कोशिश करते दिखते।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

अकेलापन बहुत ख़तरनाक है या बेहद फ़ायदेमंद