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नेहरूवाद की मौत का तराना किसने रचा, किसने गुनगुनाया

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अनिल जैन

छह महीने पहले ही देश ने जवाहरलाल नेहरू की 50वीं पुण्यतिथि मनाई थी और अभी-अभी उनकी 125वीं जयंती मनाई है। दोनों ही मौके ऐसे थे, जब देश अपने स्वाधीनता संग्राम के इस एक बड़े योद्घा-नायक और पहले प्रधानमंत्री के तौर पर लंबे समय तक देश का नेतृत्व करने वाले राष्ट्रनिर्माता को शिद्दत से याद कर सकता था, लेकिन वह ऐसा करने में नाकाम रहा। दोनों ही मौकों पर सत्तापक्ष और विपक्ष ने अपने इस युग-पुरुष को याद करने में अपनी चारित्रिक कृतघ्नता और मानसिक कृपणता का परिचय दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों ही अवसर खासकर नेहरू की सवा सौवीं जयंती जितनी गरिमामय और विचारोत्तेजक हो सकती थी, उतनी ही फूहड़ राजनीतिक प्रहसन बनकर रह गई। चूंकि देश में इस समय नेहरू-विरोधी विचारधारा के वाहक सत्ता पर काबिज हैं, लिहाजा उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती थी। लेकिन जो पार्टी अपने को नेहरू की वैचारिक वारिस मानती है और जिसने देश पर लंबे समय राज किया है, उसने भी अपने सबसे बड़े पुरखे की सवा सौवीं जयंती को यादगार बनाने के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जिससे उसकी संजीदगी की झलक मिलती हो।
 
हमारे देश को आजाद हुए 67 वर्ष हो चुके हैं। इस दौरान सबसे लंबे समय तक देश पर प्रधानमंत्री के रूप में जवाहरलाल नेहरू ने शासन किया। इस नाते अपने साढ़े छह दशक से अधिक के सफर में देश को हासिल कई उपलब्धियों का श्रेय अगर कुछ लोग नेहरू के द्वारा रखी गई नीतिगत बुनियाद को देते हैं तो देश आज जिन चुनौतियों से रूबरू है उसके लिए भी कुछ लोग कहीं न कहीं नेहरू को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। हालांकि प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू की सफलताओं और विफलताओं का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन होना अभी शेष है। लेकिन इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि वे भारत-राष्ट्र और भारतीय मन को लगातार झकझोरते हुए उसे नया बनाने की जद्दोजहद में पूरे मन से लगे रहे। ऐसा करने के दौरान वे रास्ते भी भटके और कई मोर्चे पर नाकाम भी रहे लेकिन वे ऐसे नायक रहे जिसने कभी हार नहीं मानी। फ्रांसीसी चिंतक आंद्रे मार्लो ने एक बार नेहरू से पूछा था कि उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी चुनौती क्या रही? तो उन्होंने जवाब दिया था कि संकीर्ण धार्मिक दीवारों में कैद धर्मभीरू समाज को एक सर्वधर्म-समावेशी समाज में बदलना!
 
दरअसल, नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री ही नहीं थे, वे लंबे समय तक गुलाम रहे मुल्क को उसकी समृद्घ सांस्कृतिक विरासत से जोड़ते हुए उसे स्वर्णिम भविष्य की राह पर ले जाने वाले एक स्वप्नदर्शी स्टेट्‌समैन भी थे। समाजवाद और लोकतंत्र दोनों को एकसाथ लेकर बढ़ा जा सकता है, इस परिकल्पना को जमीनी शक्ल देने का श्रेय नेहरू को ही जाता है। जब विकसित देशों तक में सभी वयस्कों को मताधिकार नहीं मिला था, तब भारत में बिना जाति, धर्म, वर्ग और शिक्षा का ख्याल किए वयस्क मताधिकार की योजना कोई साधारण बात नहीं थी। 1952 के पहले आम चुनाव से लेकर 1967 के आम चुनाव तक हर बार विदेशी आलोचक भविष्यवाणी करते रहे कि यह भारत में आखिरी आम चुनाव है, इसके बाद तानाशाही आ जाएगी लेकिन नेहरू ने लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर नहीं होने दिया। इतिहास की गहरी समझ रखने वाले नेहरू के उत्साही और ऊर्जावान व्यक्तित्व में मर्मस्पर्शी मोहकता थी। इसी वजह से आजादी की लड़ाई के दौर में भी तथा आजादी के बाद प्रधानमंत्री के तौर पर भी वे लंबे समय तक देश की जनता के लाड़ले-दुलारे बने रहे। नेहरू की राजनीति और उनकी विचारधारा से मतभेद हो सकते हैं और होने ही चाहिए। उनकी रणनीति और उनके लिए गए कई फैसलों पर सवाल भी खूब उठे। कभी उनके सहयोगी रहे लोगों ने भी उन पर आलोचना के तीखे तीर चलाए। लेकिन इस सबके बावजूद प्रधानमंत्री के रूप में आज 67 साल बाद भी वही रोल मॉडल हमारे राजनेताओं के सामने है जिस पर खरा उतरने की भाव-भंगिमा अटल बिहारी वाजपेयी ने भी दिखाई थी और आज नरेन्द्र मोदी भी प्रकारांतर से उसकी ही नकल करते दिखाई दे रहे हैं।
 
नेहरू को आज उनके जन्म के 125वें और मृत्यु के 50वें साल में याद करने का आशय और उद्देश्य आखिर क्या होना चाहिए? आज सत्ता में जो लोग बैठे हैं वे तो घोषित रूप से नेहरू की विचारधारा के विरोधी हैं और देश के समक्ष मौजूद कई समस्याओं को नेहरू की ही देन मानते हैं, लिहाजा उन्होंने तो अनमने ढंग से ही नेहरू को याद करने की रस्म अदायगी की। हालांकि ऐसा करके उन्होंने अपने राजनीतिक बौनेपन का ही परिचय दिया। लेकिन नेहरू की विचारधारा की वारिस होने का दावा करने वाली कांग्रेस ने भी इस मौके पर ऐसा कुछ नहीं किया जिसे यादगार कहा जा सके या यह माना जा सके वह अपने संसदीय इतिहास की सबसे शर्मनाक पराजय के क्षणों में अपनी पुरानी गलतियों से कोई सबक सीखने इच्छुक है। उसने नेहरू की याद में जिस जलसे का आयोजन किया उसमें उसने कई दूसरे राजनीतिक दलों और विदेशी नेताओं को तो बुलाया लेकिन देश के प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी या उनकी पार्टी के किसी नुमाइंदे को न बुलाने की तंगदिली दिखाने से वह बाज नहीं आई। ऐसा करके वस्तुतः उसने असहमति का भी सम्मान करने वाले नेहरू के आदर्शों मखौल ही उड़ाया।
 
तीन दिन के इस आयोजन में कांग्रेस ने कहीं से भी इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि देश के पहले प्रधानमंत्री और अपने सबसे बड़े राजनीतिक पुरखे की जयंती मना रही है। उसने इस मौके का इस्तेमाल भी धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और समाजवाद से जुड़े घिसे-पिटे जुमलों के सहारे भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधने में किया। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके बेटे तथा पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जो कुछ कहा उसका सार यही रहा कि कुछ ताकतें देश में नेहरू की विरासत और विचारधारा को मिटाने की कोशिश कर रही हैं। कुछ दिनों पहले नेहरू की 50वीं पुण्यतिथि पर आयोजित एक कार्यक्रम में भी सोनिया गांधी ने फरमाया था कि समाजवादी आर्थिक नीतियां और सच्ची धर्मनिरपेक्षता कांग्रेस की मूल सोच रही है और इन नेहरूवादी मूल्यों को मौजूदा राजनीतिक माहौल में कुछ लोगों से चुनौती मिल रही है।
 
अब नेहरूवादी मूल्यों को किन लोगों से चुनौती मिल रही है और कौन लोग नेहरू की विरासत को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं, यह तो सोनिया और राहुल ने साफ नहीं किया है लेकिन मध्य-वाम विचारधारा के प्रति प्रतिबद्घता जताने वाली उनकी ये टिप्पणियां ऐसे समय सामने आईं जब दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी रुझान वाले नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं इसलिए समझा जा सकता है कि कांग्रेस नेतृत्व का इशारा नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा की ओर ही है।
 
इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा (और उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ) शुरू से ही अर्थव्यवस्था, विदेश नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और धर्मनिरपेक्षता संबंधी नेहरू के विचारों और कार्यों की आलोचक रही है। पिछले लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान भी नरेन्द्र मोदी और अन्य भाजपा नेता देश के समक्ष मौजूद तमाम समस्याओं के लिए नेहरू और उनकी सोच को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं इसलिए सोनिया-राहुल की उनके प्रति शिकायत में कोई नई बात नहीं है। मगर सवाल उठता है कि कांग्रेस नेतृत्व को नेहरू की वैचारिक विरासत अभी ही क्यों याद आ रही है और यह भी कि नेहरू की अनदेखी करने या उनके रास्ते से भटक जाने के अपराध से कांग्रेस कैसे बरी हो सकती है जिसका नेतृत्व पिछले लगभग डेढ़ दशक से खुद सोनिया गांधी कर रही हैं। कहा जा सकता है कि कांग्रेस नेतृत्व की रुदनभरी टिप्पणियों में गंभीरता और नेहरू के लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष तथा समाजवादी विचारों के प्रति आस्था कम तथा राजनीतिक पाखंड और अवसरवाद ज्यादा दिखा।
 
इसमें कोई दो राय नहीं कि नेहरू को अपने जीवनकाल में तो जनता से बेशुमार प्यार और सम्मान मिला लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनकी लगातार अनदेखी होती गई और उनकी प्रतिष्ठा में कमी आई। कहा जा सकता है कि ऐसा कांग्रेस विरोधी राजनीतिक पार्टियों की ताकत बढ़ने के कारण हुआ लेकिन हकीकत यह भी है कि खुद कांग्रेस भी उनकी मृत्यु के बाद उनसे लगातार दूर होती चली गई। केंद्र और राज्यों में रहीं कांग्रेस सरकारों ने बड़ी-बड़ी सरकारी परियोजनाओं को तो नेहरू का नाम जरूर दिया लेकिन व्यवहार में वे उनकी वैचारिक विरासत से दूर होती चली गईं, फिर वह मामला चाहे आर्थिक नीतियों का हो, धर्मनिरपेक्षता का हो या फिर लोकतांत्रिक संस्थाओं के सम्मान का। दरअसल, सोनिया और राहुल आज जिन नेहरूवादी मूल्यों का 'पुण्य-स्मरण' कर रहे हैं, उनकी मौत का तराना तो नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ने ही रच दिया था, जो न सिर्फ उनके शासनकाल में बल्कि बाद में उनके बेटे और यानी सोनिया के पति राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में भी जोर-शोर से गुनगुनाया गया।
 
नेहरू असंदिग्ध रूप से लोकतंत्रवादी थे और असहमति का भी सम्मान करते थे लेकिन इसके ठीक उलट इंदिरा गांधी ने राजनीति में बहस और संवाद को हमेशा संदेह और हिकारत की नजरों से देखा। उनकी इस प्रवृत्ति की चरम परिणति 1975 में जेपी आंदोलन के दमन और आपातकाल लागू कर अपने तमाम विरोधियों को जेल में बंद करने के रूप में सामने आई। कुल मिलाकर उन्होंने अपने पिता की वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाने या उसे गहराई देने के बजाय उसे सुनियोजित तरीके से नुकसान ही पहुंचाया। नेहरू के प्रशंसक रहे एक अमेरिकी पत्रकार एएम रॉसेनथल ने आपातकाल के दौरान 1976 में भारत का दौरा करने के बाद सामाजिक असमानता और धार्मिक आधारों पर बंटे भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना में नेहरू के साहसी और संघर्षशील योगदान को रेखांकित करते हुए लिखा था कि अगर इस दौर में नेहरू जिंदा होते तो उनका जेल में होना तय था, जहां से वे अपनी प्रधानमंत्री को नागरिक आजादी, लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थानों के महत्व पर पत्र लिखते।
 
नेहरू की राजनीतिक विरासत के क्षरण का जो सिलसिला इंदिरा गांधी के दौर में शुरू हुआ वह उनके बाद उनके बेटे राजीव गांधी के दौर में भी न सिर्फ जारी रहा बल्कि और तेज हुआ, खासकर धर्मनिपेक्षता के मोर्चे पर। उन्होंने नेहरू की धर्मनिरपेक्षता से दूर जाते हुए पहले तो बहुचर्चित शाहबानो मामले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेकते हुए संसद में अपने विशाल बहुमत के दम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। उनके इस कदम से हिन्दू कट्टरपंथियों के हौसले भी बुलंद हुए और उन्हें लगा कि इस सरकार को भीड़तंत्र के बल पर आसानी से झुकाया-दबाया जा सकता है, सो उन्होंने भी इतिहास की परतों में दबे अयोध्या के राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद विवाद को झाड़-पोंछकर एक व्यापक अभियान छेड़ दिया। राजीव गांधी और उनके नौसिखिये सलाहकारों ने हिन्दू कट्टरपंथियों को संतुष्ट करने और उसे मुस्लिम सांप्रदायिकता के बरक्स संतुलित करने के लिए अयोध्या में विवादित धर्मस्थल का ताला खुलवा दिया। बाद में 6 दिसंबर, 1992 को हुआ बाबरी मस्जिद का आपराधिक ध्वंस राजीव गांधी की इसी गलती की तार्किक परिणति थी। कुल मिलाकर दोनों किस्म की सांप्रदायिकताओं के समक्ष बारी-बारी से समर्पण करने के दुष्परिणाम देश ने न सिर्फ तात्कालिक तौर पर भुगते, बल्कि उस समय सांप्रदायिक नफरत की जो आग लगी थी उसकी तपिश देश आज भी महसूस कर रहा है। 
 
वैसे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को कमजोर करने के लिए अकेले राजीव गांधी को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। हकीकत तो यह है कि देश की आजादी के बाद आधुनिक राष्ट्रीयता के विकास के लिए धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करने के जितने भी प्रयास किए गए, वे सबके सब नाकारा साबित हुए हैं। तमाम सत्ताधीशों ने हमेशा धर्मनिरपेक्षता को 'सर्वधर्म समभाव' का नाम देकर रूढ़िवाद और अंधविश्वास फैलाने वाले धार्मिक नेतृत्व को पनपाने का काम किया। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के वास्तविक स्वरूप को लोगों के सामने रखने का कभी साहस नहीं किया। धर्मनिरपेक्षता या कि सर्वधर्म समभाव के बहाने सभी धार्मिक समूहों के पाखंडों का राजनीतिक स्वार्थ के लिए पोषण किया गया और सुधारवादी आंदोलन निरुत्साहित किए गए। चूंकि आजादी के बाद देश में केंद्र और राज्यों के स्तर पर सर्वाधिक समय कांग्रेस का ही शासन रहा इसलिए उसे ही इस पाप का सबसे बड़ा भागीदार माना जाना चाहिए।
 
जहां तक आर्थिक नीतियों का सवाल है, इस मोर्चे पर भी नेहरू के रास्ते से हटने या उनके सोच को चुनौती देने का काम कांग्रेसी सत्ताधीशों ने ही किया और देश की लगभग सभी राजनीतिक धाराओं ने परोक्ष-अपरोक्ष रूप से इसमें सहयोग किया। वैसे नेहरू के रास्ते से विचलन की आंशिक तौर पर शुरुआत तो इंदिरा और राजीव के दौर में ही शुरू हो गई थी लेकिन 1991 में पीवी नरसिंहराव के की अगुवाई में बनी कांग्रेस सरकार ने तो एक झटके में नेहरू के मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले रास्ते को छोड़कर देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह बाजार के हवाले कर उसे विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) का मुखापेक्षी बना दिया। उदारीकरण के नाम शुरू की गई इन नीतियों के रचनाकार थे डॉ. मनमोहन सिंह, जिन्हें बाद में सोनिया गांधी ने ही एक बार नहीं, दो बार प्रधानमंत्री बनाया। सिर्फ प्रधानमंत्री ही नहीं बनाया बल्कि नेहरू के आर्थिक विचारों को शीर्षासन कराने वाली उनकी नीतियों के समर्थन में भी वे चट्टान की तरह खड़ी रहीं। 
 
नई आर्थिक नीतियों के आगमन के सिलसिले में सबसे पहले इंदिरा गांधी ने अस्सी के दशक में दोबारा सत्ता में आने के बाद आईएमएफ से भारी-भरकम कर्ज लेकर भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से जोड़ा। उसके बाद राजीव गांधी ने भी इस सूत्र को मजबूत किया। फिर आई समाजवादी मंत्रियों से भरी विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार, जिसके योजना आयोग में गांधीवादी, समाजवादी, मार्क्सवादी बुद्घिजीवी सितारों की तरह टंके हुए थे। लेकिन इन लोगों ने भी थोड़ी-बहुत वैचारिक बेचैनी दिखाने के बाद विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों द्वारा तैयार उस ढांचागत सुधार कार्यक्रम के आगे अपने हथियार डाल दिए, जिसे हम नई आर्थिक नीति के रूप में जानते हैं। उस दौर में एक समय समाजवादी रहे चंद्रशेखर इसलिए विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के आलोचक बने हुए थे कि वह औद्योगिक क्षेत्र में विदेशी पूंजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दरवाजे खोल रही है। लेकिन जैसे ही कांग्रेस के समर्थन से वे खुद प्रधानमंत्री बने, वैसे ही उन्होंने अपना पहला कार्यक्रम आईएमएफ के प्रबंध निदेशक से मुलाकात का बनाया। 
 
वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रति अनुराग दिखाने में भाजपा भी पीछे नहीं रही। 1991 में जब पीवी नरसिंहराव की सरकार ने आईएमएफ के निर्देश पर व्यापक स्तर पर सुधार कार्यक्रम लागू करते हुए वैश्विक पूंजी निवेश के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे पूरी तरह खोल दिए और कोटा-परमिट प्रणाली खत्म कर दी तो तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी की प्रतिक्रिया थी कि कांग्रेस ने हमारे जनसंघ के समय के आर्थिक दर्शन को चुरा लिया है। इतना ही नहीं, 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी तो 'स्वदेशी' के लिए कुलबुलाते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच को वाजपेयी और आडवाणी ने साफ कह दिया था कि 'स्वदेशी' सुनने में तो अच्छा लगता है लेकिन मौजूदा दौर में यह व्यावहारिक नहीं है। वाजपेयी ने तो एक मौके पर स्वदेशी के पैरोकार संघ नेतृत्व से सवाल भी किया था- 'और सब तो ठीक है लेकिन हिन्दू इकोनॉमिक्स में पूंजी की व्यवस्था कैसे होगी?' यही नहीं, संघ के बढ़ते दबाव को उतार फेंकने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की धमकी भी दे डाली थी। कुल मिलाकर आर्थिक नीतियों के मामले में नेहरू के रास्ते को अलविदा कहने में देश की लगभग सभी राजनीतिक जमातों में आम सहमति रही और कांग्रेस ने इस पापकर्म की अगुवाई की। इसलिए अब चुनाव में शर्मनाक शिकस्त खाने और अपनी पार्टी के सत्ता से बेदखल होने के बाद सोनिया-राहुल का यह रुदन बेमतलब है कि मौजूदा माहौल में नेहरूवादी मूल्यों को कुछ लोगों से चुनौती मिल रही है।
 
दरअसल, नेहरू के साथ उनके मरणोपरांत वही हुआ, जो नेहरू और उनकी कांग्रेस ने महात्मा गांधी के साथ किया था। जिस तरह आजादी के बाद सत्ता की बागडोर संभालते ही नेहरू ने गांधी की स्वावलंबन और हिन्द स्वराज संबंधी सारी सीखों को दकियानूसी करार देते हुए खारिज कर दिया था, उसी तरह नेहरू की मृत्यु की बाद उनके वारिसों ने भी नेहरू के मिश्रित अर्थव्यवस्था के रास्ते को छोड़ दिया। नेहरू को अपने पूरे जीवनकाल में कांग्रेस के भीतर और बाहर भरपूर सम्मान मिला लेकिन आज हालत यह है कि कांग्रेस में वंश विशेष की पूजा और चाटुकारिता में ही अपना करियर तलाशते लोगों को छोड़कर शायद ही कोई उनके समर्थन में खड़ा मिलेगा। उनके विचारों को समझने की इच्छा रखने वालों की तादाद भी नगण्य ही होगी। 
 
1991 में राजीव गांधी की मौत के बाद माना जाने लगा था कि अब देश की राजनीति में नेहरू-गांधी परिवार का प्रभाव खत्म हो जाएगा और भारत के पहले प्रधानमंत्री के विचारों का बेहतर आकलन हो सकेगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि उस समय तक आर्थिक नीतियों संबंधी नेहरू के विचार अपनी प्रासंगिकता खो चुके थे लेकिन उनकी विरासत के कई दूसरे प्रासंगिक हिस्सों को मजबूत किया जा सकता था। मसलन, विधायिका और संसदीय प्रक्रियाओं को लेकर उनकी प्रतिबद्घता, सार्वजनिक संस्थानों को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने की उनकी कोशिशें, धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक बहुलता और लैंगिक समानता जैसे विचारों को लेकर उनकी चिंता तथा वैज्ञानिक शिक्षा और अनुसंधान को प्रोत्साहन देने वाले केंद्रों की स्थापना पर जोर। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका। वस्तुतः नेहरू कभी उस बोझ से मुक्त नहीं हो पाए जो उनके अपने ही वंशजों की देन थी।
 
सोनिया गांधी ने 1998 में तमाम कांग्रेसियों के अनुनय-विनय पर कांग्रेस की बागडोर संभाली थी। तब से लेकर अब तक 16 वर्षों से वे पार्टी की अध्यक्ष बनी हुई हैं। इस दौरान 16वें आम चुनाव से पहले उनके बेटे राहुल को उनका उत्तराधिकारी बनाया जा चुका है। हालांकि आम चुनाव में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को मिली करारी पराजय के बाद उनकी नेतृत्व क्षमता पर दबे स्वरों में सवाल उठने शुरू हो गए हैं लेकिन ऐसे सवाल उठाने वाले अभी भी नेहरू-गांधी परिवार के बाहर झांकने को तैयार नहीं हैं। वे राहुल के विकल्प के तौर पर प्रियंका की ओर देख रहे हैं। मशहूर समाजशास्त्री आंद्रे बेते के शब्दों में 'मरणोपरांत नेहरू की स्थिति बाइबिल की उस मशहूर उक्ति के ठीक विपरीत दिशा में जाती दिखी, जिसके मुताबिक पिता के पापों की सजा उसकी आगामी सात पीढ़ियों को भुगतनी होती है।' 
 
दरअसल, नेहरू के मामले में उनकी बेटी, नवासों, नवासों की पत्नियों और पर-नवासों के कर्मों ने उनके कंधों का बोझ ही बढ़ाया है। संभवतः नेहरू को अपने जीवनकाल में मिली अतिशय चापलूसी का ही नतीजा है कि मरणोपरांत उन्हें पूरी तरह खारिज किया जाने लगा। दुर्भाग्य से यह प्रवृत्ति सार्वजनिक जीवन, राजनीतिक विमर्शों और खासकर साइबर संसार में तेजी से फैली है। लगता नहीं कि जब तक सोनिया गांधी और राहुल गांधी सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहेंगे, तब तक नेहरू के जीवन और उनकी राजनीतिक विरासत को लेकर कोई वस्तुनिष्ठ, न्यायपूर्ण और विश्वसनीय धारणा बनाई जा सकेगी।

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