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मॉब लिंचिंग पर मीडिया का दोहरा रवैया सामाजिक ताने-बाने के लिए घातक है

हमें फॉलो करें मॉब लिंचिंग पर मीडिया का दोहरा रवैया सामाजिक ताने-बाने के लिए घातक है
, सोमवार, 30 जुलाई 2018 (21:34 IST)
डॉ. शुचि चौहान
 
भारत में 'मॉब लिंचिंग' शब्द नया नहीं है, परंतु पिछले कुछ समय से यह कुछ ज्यादा ही सुनने में आ रहा है। ऐसा भी नहीं कि पहले मॉब लिंचिंग की घटनाएं होती नहीं थीं, पर वे सुर्खियां नहीं बनती थीं। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों को ढूंढ-ढूंढकर मारा गया। गर्भवती महिलाओं तक को भीड़ ने नहीं छोड़ा। 1990 में मॉब लिंचिंग द्वारा ही कश्मीरी पंडितों से घाटी खाली करा ली गई। महीनों तक चले नरसंहार के बाद भी 'मॉब लिंचिंग' शब्द अपरिचित ही रहा।
 
 
इसकी गूंज लोगों को पहली बार सितंबर 2015 में तब सुनाई दी, जब अखलाक भीड़ का शिकार बना और देश के कई तथाकथित बुद्धिजीवियों ने घटना के विरोधस्वरूप अपने पुरस्कार वापस कर दिए। इसके बाद भी मॉब लिंचिंग की अनेक घटनाएं सामने आईं- सीट विवाद पर जुनैद की हत्या हुई, दिल्ली में घर के बाहर अपने छोटे से बच्चे के साथ क्रिकेट खेल रहे डॉ. नारंग को अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों के समूह ने मार दिया, कासगंज में गणतंत्र दिवस पर तिरंगा यात्रा में शामिल चंदन की हत्या हुई, गो-तस्करी में लिप्त पहलू खान भीड़ का निशाना बना, अब एक और तस्कर अकबर की पिटाई और फिर पुलिस कस्टडी में उसकी मौत की खबर आई। इसे भी मॉब लिंचिंग का ही नाम दिया गया।
 
जिस दिन अलवर के ललावंडी गांव में गो-तस्करी और फिर आरोपी की पिटाई की घटना घटी, उसी दिन बाड़मेर में एक दलित युवक खेता सिंह की किसी मुस्लिम लड़की के साथ कथित प्रेम-प्रसंग के चलते लड़की के परिजनों द्वारा हत्या कर दी गई। कश्मीर में सुरक्षा बलों का पत्थरबाजों की भीड़ द्वारा घायल होना पहले ही कोई नई बात नहीं।
 
अब यदि हम ऊपर दी गई घटनाओं पर गौर करें और उनकी एनालिसिस करें तो हमें एक पैटर्न नजर आएगा। जिन घटनाओं में कोई मुस्लिम व्यक्ति भीड़ का शिकार हुआ, वे राष्ट्रीय मीडिया में छा गईं और भीड़ को वहशी, भड़काया हुआ आदि कहकर दोषी सिद्ध करने की कोशिश की गई।
मरने वाले का नाम ले-लेकर 'मुस्लिमों को सताया जाना' बताया गया। इसके उलट जिन घटनाओं में कोई 'गैरमुस्लिम मरा', उन्हें स्थानीय चैनलों व समाचार पत्रों में भी मुश्किल से जगह मिली और इन घटनाओं को साधारण रोड रेज बताकर इन पर राजनीति न करने की सलाह दी गई। खबर चलाने वालों को समाजतोड़क तक कहा गया।
 
इन घटनाओं में विक्टिम को ही दोषी करार देने के प्रयास हुए। कई बार तो नैरेटिव सेट करने के लिए कई तरह की कहानियां भी गढ़ी गईं, जो बाद में झूठी साबित हुईं। जैसे अखलाक पर गो-कशी और घर में गाय का मांस रखने के आरोप थे, परंतु इन आरोपों को झूठा कहकर उसे निरपराध बताते हुए उसकी मौत को अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों का अत्याचार साबित करने की कोशिश की गई जबकि बाद में अखलाक के घर में मिले मांस की मथुरा की एक लैब में जांच कराए जाने पर वह गाय का ही पाया गया।
 
जुनैद के केस में मानवाधिकार संगठनों ने यह दावा किया कि जुनैद को उसकी मुस्लिम पहचान के कारण निशाना बनाया गया। जुनैद के भाई हाशिम का बयान आया कि भीड़ ने उनके सिर पर टोपी देखकर यह कहना शुरू कर दिया कि तुम मुसलमान हो, देशद्रोही हो और मीट खाते हो। इसके बाद लोगों ने जुनैद, हाशिम और शाकिर को तब तक पीटा, जब तक कि जुनैद की मौत नहीं हो गई। बाद की जांच में साबित हुआ कि लड़ाई सीट को लेकर थी।
 
डॉ. नारंग की हत्या को सामान्य रोड रेज की घटना के तौर पर प्रस्तुत कर अधिक तूल न देने की बात कही गई। बाद में मुख्य आरोपी नासिर खान के बारे में पता चला कि वह आदतन अपराधी है, नशा करता है और इस कारण वह गुस्से पर काबू नहीं रख पाता। डॉ. नारंग की गलती यह थी कि अपने बेटे के साथ क्रिकेट खेलते समय उनकी रबर की गेंद राहगीर नासिर खान की बाइक को लग गई। वह 'देख लेने' की धमकी देकर चला गया और थोड़ी ही देर में हॉकी-डंडों से लैस अपने साथियों के साथ वापस आ धमका और पीट-पीटकर डॉ. नारंग की हत्या कर दी।
 
कासगंज के चंदन का अपराध इतना था कि वह गणतंत्र दिवस पर मुस्लिम इलाके से निकल रही तिरंगा यात्रा का एक हिस्सा था। मुसलमानों को मुस्लिम बहुल बस्ती से होकर निकलने वाली इस यात्रा पर ऐतराज था। इस घटना पर चारों ओर चुप्पी ही छाई रही। दूसरी ओर पहलू खान मॉब लिंचिंग ने खूब सुर्खियां बटोरीं। इसके विरोध में जुलूस निकले, कैंडल मार्च हुआ, कई सप्ताह तक मामला राष्ट्रीय मीडिया में छाया रहा। इस घटना को फिर बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों पर अत्याचार बताने की कोशिशें हुईं। पहलू खान को मुसलमान होने के कारण फंसाए जाने के एंगल से समाचार बने और लेख छपे। जांच में पता चला कि वह गो-तस्करी में लिप्त था, उसके पास गाय खरीदने व गोवंश परिवहन के वैध पेपर नहीं थे।
 
हाल ही में हुई अकबर की मौत पर फिर बवाल मचा। अकबर अपने साथी असलम के साथ रात में 12.30 बजे गायें ले जा रहा था। ग्रामीणों द्वारा पूछताछ में उनके पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं था। इस पर गांव वालों से उनकी हाथापाई हुई। मौका पाकर असलम भाग गया। ग्रामीणों ने अकबर की पिटाई कर दी और पुलिस को सौंप दिया। बाद में पुलिस कस्टडी में उसकी मौत का समाचार आया। मीडिया में खबर चली कि अकबर पास के ही गांव से अपने किसी रिश्तेदार से गायें खरीदकर ले जा रहा था, परंतु पूछताछ में कथित रिश्तेदार ने बताया कि उसने कोई गाय बेची ही नहीं। एक बार फिर सारे प्रोपेगंडा की हवा निकल गई। उसी दिन घटी अन्य घटना जिसमें दलित युवक खेता सिंह की हत्या हुई, को कोई मीडिया कवरेज नहीं मिला और गंगा-जमुनी तहजीब घुटकर रह गई।
 
इन सभी घटनाओं का जो स्वरूप लोगों के सामने आया उससे सामाजिक ताने-बाने को बड़ा नुकसान पहुंचा। इन घटनाओं में डॉ. नारंग, चंदन या खेतासिंह किसी अनैतिक या अवैध गतिविधि में लिप्त नहीं थे फिर भी वे भीड़ का शिकार बने। डॉ. नारंग के केस में उन्मादी भीड़ थी युवाओं की, जो नशा करते थे। चंदन के केस में भीड़ का उन्माद था मजहब, जिसकी नजर में खुद की जनसंख्या बाहुल्य क्षेत्र से तिरंगा यात्रा का निकलना घुसपैठ करने जैसा था। खेतासिंह के मामले में भी उन्माद मजहब का ही था, जो हिन्दू लड़के और मुस्लिम लड़की के प्यार के कारण खतरे में पड़ गया था, जिसकी कीमत उस नौजवान को जान देकर चुकानी पड़ी। अखलाक, पहलू खां तथा अकबर की गतिविधियां कानूनसम्मत नहीं थीं फिर भी उन्हें बेकसूर बताने की जद्दोजहद चली।
 
राजस्थान में आज भी बड़े पैमाने पर गोपालन होता है। गो-कशी से गो-पालकों की भावनाएं आहत होती हैं। ग्रामीण इलाकों में अनेक घरों में गाय आजीविका का साधन है। गोधन बहुतायत में व आसानी से उपलब्ध होने के कारण यहां गाय चोरी व तस्करी की घटनाएं भी होती रहती हैं। तस्करी में हरियाणा के मेवात इलाके के मुसलमानों की लिप्तता अक्सर सामने आती है। यह इलाका राजस्थान की सीमा से लगता हुआ है। तस्कर कच्चे रास्तों से होते हुए बड़ी आसानी से 15-20 मिनट में पैदल ही राजस्थान की सीमा से बाहर निकल जाते हैं। अच्छी सड़कें, कम दूरी और सुस्त प्रशासन के कारण अलवर के रास्ते तस्करी काफी आसान है। कटने के लिए ले जाने वाली गायों को पिकअप या ट्रक में बेदर्दी से ठूंस दिया जाता है जिनमें से कई तो रास्ते में ही मर जाती हैं। इन वाहनों में उन्हें जिस तरह से भरा गया होता है, वह देखकर पता चलता है कि वे पालने के लिए तो हरगिज नहीं ले जाई जा रहीं।
 
गायों की खरीद-फरोख्त और परिवहन के नियम भी कड़े हैं, ऐसे में यदि कोई खरीद व परिवहन के वैध पेपरों के बिना आधी रात को गायें ले जा रहा है तो सोचने वाली बात है कि वह तस्कर नहीं तो और कौन होगा? पूछताछ में वे हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। ऐसी घटनाओं से ग्रामीण भी उत्तेजित होते हैं। इस क्षेत्र में तस्करी की गंभीरता को जानते हुए भी पता नहीं हर बार सवाल गो-रक्षकों पर ही क्यों खड़े किए जाते हैं, गो-तस्करों पर क्यों नहीं?
 
गो-तस्करों के पैरोकार यह क्यों नहीं मानते कि जिस दिन गो-तस्करी रुक जाएगी, उस दिन गो-तस्करों की मौतें भी? ये लोग गोकशी और गो-तस्करी द्वारा उनकी भावनाओं को भड़काते क्यों हैं? क्या हमें पहले उस जुर्म को नहीं रोकना चाहिए, जो दूसरे जुर्म का कारण बनता है?
 
कश्मीर में सुरक्षा बलों की लिंचिंग करने वाली मॉब को भटका हुआ बताने वालों और कभी कार्रवाई के दौरान पत्थरबाजों की भीड़ में किसी पत्थरबाज की मौत पर उसके मानवाधिकारों के पैरोकारों को एक बार सोचना तो जरूर चाहिए कि वे सच से आंखें मूंदकर गुनाहगारों की ही पैरवी कर देश को कौन सी दिशा दे रहे हैं? यह नजरिया देश के सामाजिक सौहार्द के लिए घातक है।

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