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भारत बना दुनिया की लिंचिंग राजधानी

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-सीएसएसएस टीम
 
 
'कानून किसी व्यक्ति को मुझसे स्नेह करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता, परंतु वह उसे मुझे लिंच करने से रोक सकता है' ये शब्द मार्टिन लूथर किंग जूनियर के हैं। यह उन्होंने उस समय कहा था, जब अमेरिका में नस्लीय भेदभाव अपने चरम पर था और अफ्रीकी-अमरेकियों की लिंचिंग आम थी, जो एक घृणाजनित अपराध थी तथा श्वेतों और अश्वेतों के बीच गहरी खाई को रेखांकित करती थी। आज ये शब्द शायद भारत पर भी लागू होते हैं, जहां मुसलमानों, दलितों और अन्य वंचित समुदायों की लिंचिंग आम हो गई है। निर्दोष नागरिकों को खून की प्यासी भीड़ें अपना निशाना बना रही हैं। पारंपरिक और सोशल मीडिया के प्रचार के जरिए एक समुदाय में दूसरे समुदाय के प्रति भय का भाव भर दिया जाता है।
 
केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा एकत्रित आकड़ों के अनुसार वर्ष 2014 से लेकर 3 मार्च 2018 के बीच देश में मॉब लिंचिंग की 40 घटनाएं हुईं जिनमें 45 लोग मारे गए। सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म (सीएसएसएस) द्वारा इस तरह की घटनाओं पर नजर रखी जाती है। इस संस्थान ने अंग्रेजी के 3 समाचार-पत्रों के संस्करणों में जनवरी 2014 से 31 जुलाई 2018 के बीच प्रकाशित खबरों के आधार पर देश में मॉब लिंचिंग की हुईं 109 घटनाओं को संकलित किया है। इनमें गौरक्षा, लव जेहाद, बच्चा चोरी आदि से जुड़ीं घटनाओं के अतिरिक्त मुस्लिम टोपी और हिन्दू श्रेष्ठतावादी नारे लगाने के लिए मजबूर किए जाने से जुड़ीं घटनाएं शामिल हैं।
 
इन घटनाओं में से 22 महाराष्ट्र, 19 उत्तरप्रदेश और 10 झारखंड (तीनों भाजपा शासित राज्य) में हुई हैं। इन घटनाओं में 78 लोग मारे गए और 174 लोग घायल हुए। मृतकों में 32 मुसलमान, 21 हिन्दू, 6 दलित और 2 आदिवासी थे। 17 मामलों में समाचार-पत्रों की खबरों में यह स्पष्ट नहीं था कि लिंचिंग का शिकार व्यक्ति किस धर्म या समुदाय का था? जो 174 लोग घायल हुए उनमें से 64 मुसलमान, 42 दलित, 21 हिन्दू और 6 आदिवासी थे जबकि 41 मामलों में संबंधित व्यक्ति की सामाजिक व धार्मिक पृष्ठभूमि स्पष्ट नहीं थी।
 
इन आंकड़ों से साफ है कि मॉब लिंचिंग का शिकार होने वालों में मुसलमानों और दलितों की संख्या काफी अधिक है। सीएसएसएस ने पाया कि वर्ष 2014 से मॉब लिंचिंग की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। प्रधानमंत्री द्वारा अनमने ढंग से इन घटनाओं की निंदा किए जाने का कोई असर नहीं हुआ है। इसका कारण यह है कि मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर क्षोभ व्यक्त करने के बाद उन व्यक्तियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही में तेजी नहीं लाई गई। इससे यह पता चलता है कि संस्कृति और धर्म के स्वनियुक्त रक्षकों पर कोई लगाम नहीं है।
 
आश्चर्य नहीं कि 109 घटनाओं में से 82 भाजपा शासित प्रदेशों में हुईं, 9 समाजवादी पार्टी के शासनकाल में, 5 कांग्रेस सरकारों वाले राज्यों में और 4 तृणमूल कांग्रेस शासित प्रदेश में। इन 109 घटनाओं में से 39 बच्चा चोरी से जुड़ी थीं और इतनी ही गौरक्षा से जबकि 14 घटनाएं अलग-अलग धर्मों के महिलाओं और पुरुषों के बीच मित्रता के चलते भड़कीं।
 
देश में मॉब लिंचिंग की घटनाओं में वृद्धि की पृष्ठभूमि में उच्चतम न्यायालय ने 17 जुलाई 2018 को तहसीन पूनावाला बनाम भारतीय संघ प्रकरण में अपने फैसले में लिंचिंग की कड़ी निंदा करते हुए ऐसी घटनाओं को रोकने और दोषियों को सजा दिलवाने के लिए एक तंत्र की स्थापना करने का निर्देश दिया। निर्णय में यह कहा गया कि ऐसी घटनाओं की रोकथाम की जानी चाहिए और अगर वे होती हैं, तो दोषियों को सजा दिलवाने की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए। यह निर्णय 2 कारणों से समयानुकूल और महत्वपूर्ण है। पहला, उच्चतम न्यायालय ने बिना किसी लाग-लपेट के इस तरह की हिंसा की कड़ी निंदा की और जोर देकर कहा कि ये असंवैधानिक हैं, प्रजातांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने वाली हैं और बहुवाद के लिए खतरा हैं। दूसरे, निर्णय में ऐसी प्रणाली विकसित करने का निर्देश दिया गया जिससे इस तरह की घटनाओं से निपटा जा सके। परंतु इस निर्णय में कुछ महत्वपूर्ण पक्षों को नजरअंदाज किया गया है।
 
याचिकाकर्ता की वकील इंदिरा जयसिंह ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि मॉब लिंचिंग की घटनाओं में ऐसे नागरिकों को शिकार बनाया जा रहा है, जो अल्पसंख्यक समुदायों के हैं और समाज के निचले वर्गों से आते हैं। केंद्र और राज्यों की सरकारों को इस तरह की घटनाएं रोकने के लिए पर्याप्त कदम उठाने चाहिए। निर्णय में न्यायालय ने राज्य को यह याद दिलाया कि हिंसा को रोकना उसका कर्तव्य है और उसे यह पता लगाना चाहिए कि सांप्रदायिक विद्वेष क्यों और कैसे बढ़ रहा है? न्यायालय ने यह भी कहा कि सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करने की जिम्मेदारी राज्य की है। न्यायालय ने यह भी कहा कि विविधता और बहुवाद का बना रहना आवश्यक है और भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेना बहुवाद के लिए बहुत बड़ा खतरा है।
 
किसी भी संवैधानिक प्रजातंत्र में स्वतंत्रता और जीवन का अधिकार सबसे महत्वपूर्ण है। राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह सभी नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करे फिर चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, नस्ल या वर्ग के हों। 'राज्य का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह धर्मनिरपेक्ष, बहुवादी और बहुसांस्कृतिक सामाजिक व्यवस्था को प्रोत्साहित करे ताकि विचारों और आस्थाओं की स्वतंत्रता बरकरार रह सके और परस्पर विरोधी परिप्रेक्ष्यों का सह-अस्तित्व बना रहे'।
 
मॉब लिंचिंग और अन्य अपराधों के बीच विभेद करते हुए न्यायालय ने कहा कि लिंचिंग की घटनाओं के पीछे के उद्देश्यों और उसके परिणामों के संबंध में 2 बातें महत्वपूर्ण हैं। पहली, यह कि मॉब लिंचिंग न्याय करने के अधिकार का भीड़ को सौंप देने जैसा है और दूसरी, इससे नागरिकों को उन अधिकारों का उपभोग करने से वंचित किया जा रहा है, जो संविधान उन्हें प्रदान करता है। उच्चतम न्यायालय का निर्णय अत्यंत प्रासंगिक और स्वागतयोग्य है। परंतु वह इस विषय पर कुछ नहीं कहता कि मॉब लिंचिंग की घटनाएं आखिर हो क्यों रही हैं? निर्णय में बहुवाद और प्रजातंत्र जैसे उच्च आदर्शों की चर्चा है और उसमें यह भी कहा गया है कि हर जाति, वर्ग और धर्म के नागरिक के मूल अधिकारों की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है।
 
परंतु माननीय न्यायाधीशों ने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि मॉब लिंचिंग एक ऐसा संगठित अपराध है जिसे सत्ताधारी पार्टी के नेताओं का संरक्षण प्राप्त है और यह भी कि शासक दल की विचारधारा मॉब लिंचिंग को औचित्यपूर्ण सिद्ध करती है। यह अनेक चुने हुए संवैधानिक पदाधिकारियों के वक्तव्यों और उनके प्रकाश में पुलिस द्वारा ऐसे मामलों में अपर्याप्त कार्यवाही किए जाने से जाहिर है। जहां कुछ राजनीतिक नेता इस तरह की घटनाओं की गंभीरता को कम कर बताने का प्रयास करते हैं वहीं कई उन्हें औचित्यपूर्ण भी ठहराते हैं।
 
सत्ता से जुड़े प्रमुख व्यक्तियों के वक्तव्यों के आधार पर निष्कर्ष निकालना गलत न होगा कि सरकार, लिंचिंग की घटनाओं को रोकने के संबंध में बहुत गंभीर नहीं है। लिंचिंग को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है और इन घटनाओं को अंजाम देने वालों के मन में तनिक भी भय या संकोच नहीं है। अगर भीड़ द्वारा लिंचिंग रोकने के लिए कोई नया कानून बनाया जाता है तो राजनीतिक नेतृत्व को भी उसकी जद में रखा जाना चाहिए, क्योंकि वही इस तरह के अपराधों के प्रति पुलिस के नरम दृष्टिकोण के लिए उत्तरदायी है। कई मामलों में तो यह भी देखा गया है कि पीड़ितों की मदद और उनकी रक्षा करने के बजाय पुलिस अपराधियों का साथ देती है।
 
यह सच है कि पुलिस के अपने पूर्वाग्रह हैं, परंतु यह भी सच है कि राजनीतिक नेतृत्व के रुख और उसकी विचारधारा का भी पुलिस के आचरण पर गहरा असर पड़ता है। पुलिस अपने राजनीतिक आकाओं के निर्देशों को अनसुना नहीं कर पाती, भले ही वे कानून के विरुद्ध हों। यद्यपि निर्णय में यह कहा गया है कि हर जिले में लिंचिंग की घटनाओं को रोकने और ऐसी घटनाएं होने पर आवश्यक कार्यवाही करने के लिए नोडल अधिकारियों की नियुक्ति की जाए तथापि पुलिस तभी निष्पक्षता से व्यवहार करेगी।
 
बड़े पैमाने पर ऐसी घटनाएं होने से मुसलमानों और दलितों का दानवीकरण हो रहा है, सामाजिक ताने-बाने पर असहनीय दबाव पड़ रहा है और सामाजिक सौहार्द को गहरी चोट पहुंच रही है। न सिर्फ यह, बल्कि इससे वे प्रजातांत्रिक और संवैधानिक संस्थाएं भी कमजोर हो रही हैं, जो जनता के जीवन और उसकी स्वतंत्रताओं की रक्षा करने के लिए जिम्मेदार हैं। हम अपने समाज को बर्बर नहीं बनने दे सकते। भीड़ द्वारा लिंचिंग केवल कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं है। यह कमजोर समुदायों को समाज से बाहर करने का भयावह राजनीतिक औजार है। नफरत की इस राजनीति का मुकाबला करना जरूरी है। (सप्रेस)
 

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