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अनिवार्य मतदान यानी एक नए अपराध का सृजन

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अनिल जैन

हमारे देश में अनिवार्य मतदान के औचित्य-अनौचित्य को लेकर बहस काफी पहले से होती रही है। अब गुजरात सरकार के एक फैसले ने इस बहस को फिर से गरमा दिया है। गुजरात में स्थानीय निकायों के चुनाव के लिए प्रावधान किया गया है कि इनमें मतदान करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य होगा। अगर कोई व्यक्ति मतदान नहीं करता है तो उसे इसका कारण बताना होगा। उसका बताया कारण संतोषजनक न पाए जाने पर उसे सजा और जुर्माना भुगतना पड़ सकता है। हालांकि सजा का स्वरूप और जुर्माने क्या होगा, यह अभी साफ नहीं है लेकिन गुजरात सरकार के इस फैसले ने इस अंदेशे को तो जन्म दे ही दिया है कि कहीं निकट भविष्य में ऐसा ही प्रावधान विधानसभा और लोकसभा चुनावों के लिए भी तो निर्धारित नहीं कर दिया जाएगा।
 
यह अंदेशा इसलिए भी पैदा होता है कि इस कानून की परिकल्पना कोई पांच साल पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने की थी, जो अब देश के प्रधानमंत्री हैं। मोदी के मुख्यमंत्री रहते इस सिलसिले में दो बार दिसंबर 2009 और मार्च 2010 में राज्य विधानसभा में विधेयक पारित किया गया था लेकिन तत्कालीन राज्यपाल कमला बेनीवाल ने इसे संविधान के अनुच्छेद 21 के विरुद्ध करार देते हुए अप्रैल 2010 में इसे पुनर्विचार के लिए लौटा दिया था। तभी से लटके हुए इस विधेयक को गुजरात सरकार ने अब अनुकूल राज्यपाल ओपी कोहली से मंजूरी दिलाकर जिस तरह इसे कानूनी रूप दिया है उसके पीछे नरेंद्र मोदी और साथ ही भाजपा की प्रतिबद्घता भी झलकती है, क्योंकि मतदान को अनिवार्य बनाने की बात लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा के घोषणापत्र में भी कही गई थी।
 
बहरहाल, सवाल है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि गुजरात में स्थानीय निकायों के चुनाव में मतदान को अनिवार्य बनाने की जरूरत आ पड़ी, जबकि गुजरात में नगरीय निकायों और पंचायतों के पिछले कई चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि वहां मतदान लगभग साठ से सत्तर फीसदी के बीच होता रहा है, जिसे कमतर नहीं कहा जा सकता। जिस ब्रिटेन को आधुनिक लोकतंत्र की आदि भूमि माना जाता है, वहां भी इसी साल मई में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में महज 36 फीसदी मतदान हुआ था। वहां होने वाले आम चुनावों में सामान्यतया 60 से 70 फीसदी तक मतदान होता है लेकिन वहां मतदान को अनिवार्य बनाने की बात कभी नहीं उठी।
 
मतदान को अनिवार्य बनाने वाले कानून के समर्थकों की दलील है कि हमारे देश में एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जो अपने मताधिकार को लेकर उदासीन रहते हैं और यदा-कदा मतदान करने घर से निकलते भी हैं तो मतदान केंद्रों पर लगी लंबी कतार को देखकर बगैर वोट डाले ही घर लौट जाते हैं।
 इस कानून के समर्थन में एक दलील यह भी है कि कम मतदान के कारण कुल मतदाताओं के एक चौथाई समर्थन से भी कोई उम्मीदवार जीत जाता है या कोई पार्टी सरकार बना लेती है। यानी सरकार बाकी तीन चौथाई लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही होती है, जो कि जनतांत्रिकता के लिए ठीक नहीं है। चुनावों में लोगों की भागीदारी बढ़ाने की यह चिंता जायज है और कोई भी इससे असहमत नहीं हो सकता। लेकिन मतदान में बढ़ोतरी करने के इस तरीके से तो लोकतांत्रिक विवेक रखने वाला कोई भी व्यक्ति सहमत नहीं होगा। यही वजह है कि निर्वाचन आयोग ने भी 'अनिवार्य मतदान' पर एतराज जताया है। दुनिया के कुछ देशों में इस तरह का कानून बना हुआ है, लेकिन कुछ देश ऐसे भी हैं जिन्हें ऐसा कानून बनाने के बाद उसे वापस लेना पड़ा।
 
दरअसल दुनिया के किसी भी बड़े और स्थापित लोकतंत्र में मतदान की अनिवार्यता का प्रावधान नहीं है। अनिवार्य मतदान के संदर्भ में दुनिया के जिन देशों का हवाला दिया जाता है, उनमें पनामा, अल साल्वाडोर, होंडुरास, कोस्टारिका, मैक्सिको, यूनान, मिस्र आदि देशों में मतदान अनिवार्य तो है, लेकिन इस अनिवार्यता का उल्लंघन करने पर किसी तरह के दंड का प्रावधान नहीं है। लग्जमबर्ग, साइप्रस आदि देशों में दंडात्मक प्रावधान होने के बावजूद उन्हें लागू नहीं किया गया है। अलबत्ता इक्वाडोर में जरूर यह व्यवस्था है कि प्रमाणित रूप से अशिक्षित होने अथवा 65 वर्ष की उम्र होने पर मतदान न करने वाले व्यक्ति को कोई दंड नहीं दिया जा सकता। अपने देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते ऐसी व्यवस्था भी लोगों के लिए परेशानी का सबब बन सकती है, खास तौर पर बुजुर्ग, अशक्त और गरीब लोगों के लिए।
 
किसी भी चुनाव में मतदाताओं की शत-प्रतिशत भागीदारी बेशक लोकतंत्र के लिहाज से आदर्श स्थिति है लेकिन सवाल है कि क्या लोकतंत्र केवल शत-प्रतिशत मतदान से मजबूत होता है? दरअसल, लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव ही नहीं होता। लोकतंत्र की सबसे सुगम और मान्य परिभाषा है-जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन। क्या हमारे राजनीतिक दल और शासक इस परिभाषा की कसौटी पर वाकई खरे उतरते हैं? क्या जनता के वोटों से चुनी जाने वाली सरकारों में उन सभी सामाजिक घटकों का समुचित प्रतिनिधित्व होता हैं जो अपनी विविधताओं से जनता तत्व का निर्माण करते हैं?
 
सही मायनों में जनता के लिए, जनता की सरकार बनाने के लिए क्या हमारी चुनाव प्रणाली ऐसी नहीं होना चाहिए कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी चुनाव में उम्मीदवार बन सके और जीतकर सरकार में भागीदार बन सके। क्या राजनीतिक दलों की यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे साफ-सुथरी छवि के अपने साधनहीन कार्यकर्ताओं को भी अपना उम्मीदवार बनाकर चुनाव मैदान में उतारे और भ्रष्ट तथा आपराधिक रिकार्ड वाले लोगों को टिकट देने से परहेज करे? क्या जनता को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि उसका चुना हुआ व्यक्ति अगर उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप काम नहीं कर रहा है तो वह उसे वापस बुला सके? आखिर ये सारी बातें भी तो हमारी चुनाव प्रणाली और लोकतंत्र की मजबूती से जुड़ी हुई हैं। इन पर क्यों नहीं गंभीरता से सोचा जाता। दरअसल, कोई एक-दो की नहीं बल्कि कमोबेश किसी भी राजनीतिक दल की चुनाव सुधार लागू करने में जरा भी दिलचस्पी नहीं है। इसलिए कहना न होगा कि चुनाव सुधार लागू किए बगैर ही मतदान को अनिवार्य करना तो भ्रष्ट और आपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं को एक तरह से वैधता प्रदान करने जैसा ही है।
 
इसमे दो राय नहीं कि लोकतंत्र वास्तव में अधिकाधिक मतदान से ही मजबूत और समृद्ध होता है। क्या हम स्कूली शिक्षा के जरिए ही बच्चों में मतदान के महत्व का संस्कार नहीं डाल सकते ताकि वे वयस्क होने पर खुद ही अपने मताधिकार के प्रति जागरूक रहें। वैसे भी हमारे यहां चुनाव दर चुनाव मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी हो रही है, जिसके पीछे लोगों में बढ़ रही जागरूकता और निर्वाचन आयोग तथा कुछ सामाजिक संगठनों की अहम भूमिका है। हालांकि संपन्न और खाए-अघाए तबके में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो दिन-रात राजनीति और राजनेताओं को गरियाते रहते हैं, लेकिन मतदान के दिन छुट्टी मनाते हुए मतदान केंद्र तक जाने के बजाय घर पर ही मौज-मस्ती करते हैं या सैर-सपाटे पर निकल जाते हैं। कई लोग ऐसे भी होते हैं जो जायज वजहों से चाहते हुए भी मतदान नहीं कर पाते हैं और कई बार व्यवस्था की कमियां इसके लिए जिम्मेदार होती हैं। 
 
हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली हर वयस्क नागरिक को मताधिकार देती है। अब यह जनता पर निर्भर है कि वह इसका इस्तेमाल करे या न करे। इसे बाध्यकारी बना देने के बाद यह अधिकार कहां जाएगा। यह तो वैसे ही हो गया जैसे यातायात के नियमों का पालन करना और रोड टैक्स भरना जरूरी है और ऐसा न करने वाले के लिए दंडात्मक व्यवस्था है। हर चुनाव के बाद जनता की अपने निर्वाचित प्रतिनिधि से अपेक्षा रहती है कि वह विधायिका में जाकर उसकी आवाज उठाएगा, उसके हित में कानून बनाएगा और चुनाव के दौरान उससे किए गए वायदों को पूरा करेगा। लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है। ज्यादातर जनप्रतिनिधि चुनाव के बाद जनता से कट जाते हैं और दलालों से घिर जाते हैं। उनका सारा समय सत्ता की जोड़तोड़ और अपनी संपत्ति में इजाफा करने में बीतता है। इन स्थितियों में क्या उसे सजा नही मिलनी चाहिए? जब नागरिक को वोट न डालने के लिए सजा मिल सकती है तो जिन वादों पर वोट लिए जाते है, उन्हें पूरा न करने पर जनप्रतिनिधि को सजा क्यो नहीं होनी चाहिए? बड़ी  मशक्कत के बाद हमें 'नोटा' यानी सभी उम्मीदवारों को नकारने का अधिकार मिला है। अब 'राइट टु रिकॉल' यानी जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार भी मिलना चाहिए। 
 
अनिवार्य मतदान को गुजरात में या भारत जैसे देश में लागू करने में सैद्धांतिक के साथ-साथ व्यावहारिक दिक्कतें भी हैं। एक ओर प्रधानमंत्री लोगों पर से कानूनों का बोझ करने का इरादा जता रहे हैं, वहीं गुजरात सरकार मतदान को अनिवार्य करने का कानून बनाकर एक नई किस्म के अपराध का सृजन कर रही है। इस कानून का पालन करने वाला गुजरात का नागरिक अब अपराधी माना जाएगा, जिसके दंड का निर्धारण अभी होना है। क्या गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात और देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के स्वरूप से नावाकिफ हैं। क्या वे यह नहीं समझते कि इस नए कानून से सरकारी अधिकारी अमीरों को तो नहीं, पर गरीब और भोले-भाले लोगों को कितना सताएंगे?
 
अमीर व्यक्ति तो अपने पैसे और तिकड़मों के बल पर किसी भी तरह के कानून से बच निकलने में माहिर होता है। लोकतंत्र को व्यापक और समृद्ध बनाने के नाम पर मतदान को अनिवार्य बनाने वाला कानून एक तरह से लोकतंत्र की वास्तविक संप्रभु जनता को बंधक बनाने का ही प्रयास है। स्वतंत्रता लोकतंत्र की आत्मा होती है। किसी बात का समर्थन या विरोध करने का अधिकारी भी इसी स्वतंत्रता में निहित है। मतदान को अनिवार्य करने का कानून इस स्वतंत्रता का सरासर हनन है। आखिर क्यों हम अपने देश हर मसले का हल आखिर कानून से ही क्यों करना करना चाहते हैं? 
 
क्यों हम अपने लोकतंत्र में ऐसा प्रयोग करना चाहते हैं जिसकी न तो कोई जरूरत है और न ही कोई औचित्य। किसी भी तरह के लोकतांत्रिक लक्ष्य को पाने के लिए जरूरी है कि लोकतंत्र का लचीलापन बनाए रखा जाए। ऐसा न हो कि लोकतंत्र के साधनों के चक्कर में उलझकर हम लोकतंत्र के साध्य को ही बिसरा दें। भारत जैसे विशाल और समर्थ लोकतंत्र में हमें साधन और साध्य के बीच संतुलन कायम करने की दरकार है। यह संतुलन मतदान की अनिवार्यता से कतई कायम नहीं हो सकता।

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