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भारत रत्न की चयन प्रक्रिया पर सवाल

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-सोनाली बोस
भारत रत्न पर कभी किसी भी तरह की कोई गहन चर्चा तब तक नहीं हुई थी जब तक कि भारत रत्न के नियमो में बदलाव करके भारत सरकार या फिर यूँ कहें कि राहुल गांधी या फिर 10 जनपथ से चलने वाली सरकार ने भारत रत्न के चयन के बने बनाएं नियमो में बदलाव नहीं किया था।
 
भारत रत्न पहले खेल के क्षेत्र में भारत का नाम रोशन करने वालों को नहीं दिया जाता था पर जब तक एक प्राइवेट क्लब (जैसा कि बीसीसीआई ने सुप्रीम कोर्ट को अपने हलफनामे में दिया है) के लिए खेलने वाले महान क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने का मन नहीं हुआ था। सचिन को भारत रत्न मिलते ही खेल जगत में, भारत के झंडे के लिए खेलने वाले और भारत का दुनिया भर में नाम रोशन करने वाले सभी महान खिलाड़ियों की अनदेखी से ही पहली बार भारत रत्न की चयन प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगा और सोशल मीडिया से लेकर खबरिया चैनल तक, दैनिक अखबारों से लेकर साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक खबरिया दुनिया ने जमकर चर्चा की और इस फैसले की मजम्मत भी की, पर आखिर में जिसकी लाठी उसी की भैंस वाली कहावत को सार्थक करते हुए सरकार अपने फैसले पर अडिग रही और मेजर ध्यानचंद, मिल्खासिंह, कपिल देव आदि महान खिलाड़ियों के योगदान को नज़रंदाज करके खेल जगत का पहला ‘भारत रत्न’ सचिन तेंदुलकर को दे दिया गया।
 
सचिन को क्यों? सवाल यह नहीं बल्कि सवाल यह है कि क्या मेजर ध्यानचंद, मिल्खा सिंह आदि का योगदान कम महान था या फिर इनके पास किसी पोलिटिकल पार्टी के किसी बड़े आका का आशीर्वाद प्राप्त नहीं था? ये कैसी विडंबना है ना कि जिस खिलाड़ी के जन्मदिन को भारत में 'राष्ट्रीय खेल दिवस' के तौर पर मनाया जाता है, उसी को ‘भारत रत्न’ से नवाज़ने की कवायद में हम सभी न जाने कब से जुटे हुए हैं। हम सभी जानते हैं कि मेजर ध्यानचंद की बदौलत कई सालों तक हॉकी में भारत का दबदबा बना रहा। ध्यानचंद को फुटबॉल में पेले और क्रिकेट में डॉन ब्रैडमैन के बराबर माना जाता है। 
 
ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त, 1905 को इलाहाबाद (उत्तरप्रदेश) में हुआ था। चौदह वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली बार हॉकी स्टिक अपने हाथ में थामी थी। सोलह साल की आयु में वह आर्मी की पंजाब रेजिमेंट में शामिल हुए। चौथाई सदी तक विश्व हॉकी जगत के शिखर पर जादूगर की तरह छाए रहने वाले मेजर ध्यानचंद का 3 दिसंबर, 1979 को नई दिल्ली में देहांत हो गया था। इसे मेजर साहब की हॉकी के प्रति दीवानगी ही कही जाएगी कि मेजर ध्यानचंद का अंतिम संस्कार किसी घाट पर नहीं किया गया बल्कि उनका अंतिम संस्कार झांसी के उस मैदान पर किया गया, जहां वो हॉकी खेला करते थे।
 
भारतीय फील्ड हॉकी के खिलाड़ी और कप्तान रहे ध्यानचंद को भारत और दुनिया भर के क्षेत्र में सबसे बेहतरीन खिलाडियों में शुमार किया जाता है। ध्यानचंद तीन बार उस भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा रहे जिसने ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीता था। उसमें 1928 का एम्सटर्डम ओलम्पिक, 1932 का लॉस एंलिजल्स ओलंपिक और 1936 का बर्लिन ओलम्पिक शामिल है। जब ध्यानचंद ब्राह्मण रेजीमेंट में थे, उसी समय मेजर बले तिवारी से हॉकी सीखी थी। ध्यानचंद सेना की ही प्रतियोगिताओं में हॉकी खेला करते थे। दिल्ली में हुई वार्षिक प्रतियागिता में जब इन्हें सराहा गया तो इनका हौसला बढ़ा और 13 मई 1926 को न्यूजीलैंड में पहला मैच खेला था। मेज़र ध्यानचंद ने अप्रैल 1949 को प्रथम श्रेणी की हॉकी से संन्यास ले लिया था। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मैचों में 400 से अधिक गोल किए। ध्यानचंद ने हॉकी में जो कीर्तिमान बनाए, उन तक आज भी कोई खिलाड़ी नहीं पहुंच सका है।
 
गौरतलब है कि ध्यानचंद को देश का शीर्ष नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किए जाने की सिफारिशें केंद्र सरकार को मिली हैं और उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय को भेज दिया गया है। हम सभी जानते हैं कि भारत रत्न देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है और इसे मानवीय व्यवहार से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों में अभूतपूर्व सेवा या उच्च क्षमता का प्रदर्शन करने वाले नागरिक को प्रदान किया जाता है। वैसे तो भारत रत्न के लिए किसी औपचारिक सिफारिश की जरूरत नहीं है, लेकिन स्वर्गीय मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न प्रदान किए जाने के बारे में विभिन्न सिफारिशें मिली हैं और शायद इसी वजह से इन सिफारिशों को प्रधानमंत्री कार्यालय को विचार करने के लिए भेज दिया गया है।
 
ये बात तो क़ाबिले गौर है कि अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न मिलना ‘भारत रत्न’ के लिए खुद एक सम्मान की बात है, लेकिन अब सवाल यह भी उठता है कि क्या किसी गैर भाजपाई सरकार और राजनीतिक पार्टी को वाजपेयी का भारतीय राजनीति में योगदान अभी तक क्यों नजर नहीं आया था? सवाल तो डॉ. मदन मोहनमालवीय के इतने महान योगदान के बाद इतनी देर से भारत रत्न मिलने पर भी उठता है। कब तक इस तरह की महान हस्तियों की महानता पर कोई किसी ऐसी समिति का सदस्य सवालिया निशान लगाता रहेगा? कब तक देश की महान हस्तियों के साथ यूँ ही खिलवाड़ होता रहेगा?
 
आज देश के प्रधानमंत्री हर किसी कार्य या फिर योजना को लागू करने से पहले आम जनता की राय को सबसे पहले रखते हैं, मानते हैं साथ ही किसी भी योजना को लागू करने से पहले कई तरह के प्रचार करके आम जनता को ज़्यादा से ज़्यादा अपनी राय रखने को प्रेरित करके आम जनता को अपनी राय रखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं तो क्या भारत रत्न के साथ और दूसरे सभी महत्त्वपूर्ण सम्मानों को भी किसी चाटुकार सदस्य के हवाले न करके सीधा जनता के हवाले क्यों नहीं कर देते हैं? ताकि फिर किसी मदनमोहन मालवीय के इतने महान योगदान के बाद भी सम्मान मिलने में इतनी देर न हो साथ ही किसी पोलिटिकल आका की वजह से फिर किसी मेजर ध्यानचंद की अनदेखी न हो। 

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