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काला करिकालन : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

काला करिकालन शुरू होने के कुछ देर बाद आप इस सोच में पड़ जाते हैं कि यह 2018 चल रहा है या 1980 क्योंकि 'काला' उस दौर की फिल्मों की याद दिलाने लगती है। सुपरस्टार रजनीकांत ने उस दौर में कई ऐसी फिल्में की होगी और उन्हीं बासी फॉर्मूलों को फिर से 'काला' में पेश किया गया है जो अब उबाने लगते हैं। 
 
गरीबों की बस्ती पर बिल्डर की नजर। ये एक लाइन की कहानी है जिस पर 166 मिनट की फिल्म बना डाली है। फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले कभी नहीं देखा गया हो। हजारों बार दोहराई गई बातों को बिना किसी नवीनता के फिर दोहराया गया है, लिहाजा फिल्म देखते समय आप थक और पक जाते हैं। 
 
काला करिकालन (रजनीकांत) धारावी का राजा है। धारावी की कीमती जमीन पर भ्रष्ट नेता हरी दादा (नाना पाटेकर) की नजर है। वह मुंबई को स्वच्छ बनाना चाहता है और धारावी उसे गंदा दाग नजर आती है। वह इस जमीन को लेकर झोपड़ियों की जगह बिल्डिंग खड़ी करना चाहता है। काला उसकी राह में सबसे बड़ी बाधा है। 
 
काला और हरी की खींचतान को फिल्म में दिखाया गया है। यह बात इतनी लंबी खींची गई है कि बेमजा हो जाती है। काला के अतीत की प्रेम कहानी को भी फिल्म में जगह दी गई है। ज़रीन (हुमा कुरैशी) से काला शादी करना चाहता था, लेकिन नहीं हो पाई। जो कारण दिए गए हैं वो बचकाने हैं। काला और ज़रीन ने बाद में दूसरों से शादी क्यों की, यह भी बताया नहीं गया है। बिना मतलब के इस बात को ढेर सारे फुटेज दे डाले हैं।
 
फिल्म में कई ऐसे सीन हैं जिनकी लम्बाई बहुत ज्यादा है, जो देखते समय बेहद अखरते हैं। इससे फिल्म ठहरी हुई लगती है। वैसे भी फिल्म को आगे बढ़ाने के मजबूत घटनाक्रम नहीं है। इससे फिल्म आगे बढ़ती हुई महसूस नहीं होती और बोरियत हावी हो जाती है। बीच-बीच में बेसिर-पैर गाने आकर इस बोरियत को और बढ़ा देते हैं। 
 
घिसी-पिटी कहानी में मनोरंजन का भी अभाव है। रोमांस, कॉमेडी, एक्शन सभी की कमी महसूस होती है। मसाला फिल्मों के शौकीनों के लिए भी लुभाने वाले मसाले नहीं हैं। 
 
रजनीकांत की स्टाइल भी फिल्म से गायब है। छाते के जरिये दुश्मनों को मारने वाला सीन, नाना पाटेकर को बस्ती में घेरने वाला सीन और क्लाइमैक्स को छोड़ दिया जाए तो फिल्म में सीटी और ताली बजाने वाले दृश्यों की कमी खलती है जो रजनीकांत की फिल्मों की जान होते हैं। 
 
निर्देशक पा रंजीत का सारा ध्यान रजनीकांत पर ही रहा। उन्होंने मसीहा के रूप में रजनीकांत को पेश किया, लेकिन ढंग की कहानी नहीं चुनी। रजनीकांत को भी वे उस अंदाज में पेश नहीं कर पाए जिसके लिए रजनी जाने जाते हैं। 
 
पा रंजीत ने फिल्म को बेहद लाउड बनाया है। हर कलाकार चीखता रहता है। गाने भी चीख-चीख के गाए गए हैं। बैकग्राउंड म्युजिक आपके कान के परदे फाड़ देता है। फिल्म को वे रस्टिक लुक देने में सफल रहे हैं और उनके इस काम को सिनेमाटोग्राफर ने आसान बना दिया है। 
 
मुरली जी का कैमरा धारावी की संकरी गलियों में खूब घूमा है और उन्होंने क्लाइमैक्स बेहतरीन तरीके से शूट किया है जिसमें रंगों का खूब इस्तेमाल होता है। 
 
फिल्म में देखने लायक एकमात्र रजनीकांत हैं। 67 वर्ष की उम्र में भी उनमें सुपरस्टार वाला करिश्मा बाकी है। कई बोरिंग दृश्यों को भी वे अपने करिश्मे से बढ़िया बना देते हैं। उनके एक्शन दृश्यों की संख्या फिल्म में ज्यादा होनी चाहिए थी। अफसोस इस बात का भी है कि उनके स्टारडम के साथ फिल्म न्याय नहीं कर पाती। 
 
रजनीकांत की पत्नी के रूप में ईश्वरी राव का काम बेहतरीन है और वे हल्के-फुल्के क्षण फिल्म में देती हैं। नाना पाटेकर का वह अंदाज नहीं दिखा जिसके लिए वे जाने जाते हैं। शायद रजनी का कद बढ़ा करने के चक्कर में उनका कद छोटा कर दिया गया। हुमा कुरैशी मुरझाई हुई दिखीं। पंकज त्रिपाठी फिल्म देखने के बाद सोचेंगे कि वह इस फिल्म में कर क्या रहे थे। यही हाल अंजली पाटिल का है। 
 
काला देख कर लगता है कि रजनी ने इसे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को हवा देने के लिए बनाई है जो उन्हें जनता के बीच गरीबों के मसीहा के रूप में प्रतिष्ठित कर सके। 
 
निर्माता : धनुष
निर्देशक : पा रंजीत
संगीत : संतोष नारायणन 
कलाकार : रजनीकांत, नाना पाटेकर, ईश्वरी राव, हुमा कुरैशी, पंकज त्रिपाठी, अंजलि पाटिल 
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 46 मिनट 53 सेकंड 
रेटिंग : 1.5/5 

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