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श्रीलंका में मुस्लिमों के ख़िलाफ़ हिंसा की ये है वजह

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, बुधवार, 7 मार्च 2018 (10:51 IST)
- मोहम्मद शाहिद
 
दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा द्वीप देश श्रीलंका हमेशा से चर्चा में रहा है। मुसलमानों और मस्जिदों पर हमले के बाद वहां आपातकाल लागू कर दिया गया है। 2009 में चरमपंथी संगठन एलटीटीई के ख़ात्मे के बाद लगने लगा था कि इस देश में पूरी तरह शांति स्थापित हो जाएगी लेकिन अब यहां बौद्ध बनाम मुस्लिमों का मुद्दा तूल पकड़ता जा रहा है।
 
श्रीलंका में बौद्धों और मुस्लिमों के बीच हालिया तनाव कैंडी शहर से उपजा है। इसकी वजह एक ट्रैफ़िक सिग्नल से शुरू हुई थी। कहा जा रहा है की कुछ सप्ताह पहले कुछ मुस्लिमों ने एक बौद्ध सिंहली व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। इसकी प्रतिक्रिया में सोमवार को सिंहल बौद्धों ने मुस्लिमों की दुकानों को जला दिया था और मंगलवार को एक मुस्लिम युवक की जली हुई लाश पाई गई थी।
 
श्रीलंका में बौद्ध बनाम मुस्लिम हिंसा पहली बार नहीं हुई है। इसकी शुरुआत 2012 से हुई थी।
 
हिंसा की क्या वजह?
हालिया हिंसा की क्या वजह है? इस सवाल के जवाब में दक्षिण एशिया मामलों के जानकार प्रोफ़ेसर एस।डी। मुनि कहते हैं कि श्रीलंका में मुस्लिम केवल मुस्लिम नहीं हैं, वे तमिल बोलने वाले मुस्लिम हैं और तमिलों का सिंहलियों से विवाद जगज़ाहिर है। हालांकि, तमिल बोलने वाले मुस्लिम कभी भी तमिल राष्ट्र के लिए लड़ने वाले एलटीटीई के साथ नहीं थे।
 
तमिल भाषा के अलावा मुनि हिंसा की वजह राजनीतिक कारणों को भी देते हैं। वह कहते हैं, "हाल में स्थानीय चुनावों के दौरान पूर्व राष्ट्रपति राजपक्षे की पार्टी की ओर से एलटीटीई का डर दिखाकर ध्रुवीकरण किया गया। इस दौरान सिंहली अस्मिता को बढ़ावा दिया गया। ताज़ा हिंसा का कारण यह ध्रुवीकरण भी हो सकता है। हालिया घटना एक रोडरेज की घटना है लेकिन इसके पीछे राजनीतिक हाथ हो सकते हैं।"
 
श्रीलंका में बीते महीने निकाय चुनाव हुए थे, इन चुनावों में पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के दल को अभूतपूर्व जीत मिली। राजपक्षे की पार्टी ने 340 में से 249 निकायों पर कब्ज़ा जमाया। वहीं, प्रधानमंत्री रनिल विक्रमासिंहे के दल ने 42 और राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना के दल ने सिर्फ़ 11 निकायों को जीता।
 
इस समय श्रीलंका में सिरीसेना और विक्रमासिंहे के दलों की गठबंधन सरकार है। हालिया तनाव के लिए एस.डी. मुनि गठबंधन सरकार के बीच जारी रस्साकशी को भी ज़िम्मेदार ठहराते हैं। वह कहते हैं, "ऐसी संभावना है कि सरकार के विरोधी तत्वों ने इस खींचतान का फ़ायदा उठाकर ऐसी घटना को अंजाम दिया हो।"
 
पूर्व राजनयिक राकेश सूद भी मुनि की बात से सहमति जताते हुए कहते हैं कि राष्ट्रपति सिरीसेना और प्रधानमंत्री विक्रमासिंहे के बीच मनमुटाव दिखाई दिए हैं और उन्होंने चुनावों में एकसाथ वैसी गर्मजोशी नहीं दिखाई।
 
सूद कहते हैं, "घरेलू राजनीति जब हिल जाती है तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बनता है। मैं इसको एक प्रक्रिया की तरह देखना पसंद करूंगा। अगर इस वक़्त राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री गठबंधन के बिंदुओं पर ग़ौर करते हुए आगे बढ़ते हैं तो इस घटना को और बढ़ने से रोका जा सकता है।"
 
श्रीलंका में ध्रुवीकरण की राजनीति
ध्रुवीकरण की राजनीति श्रीलंका में कोई नई बात नहीं है। विक्रमासिंहे और सिरीसेना के बीच जब गठबंधन हुआ था तो दोनों ने सबको साथ लेकर चलने की राजनीति पर विश्वास जताया था। लेकिन श्रीलंका में भी वोटबैंक की राजनीति होती रही है। मुनि बताते हैं कि स्थानीय चुनावों में तमिलों और मुस्लिमों ने अलग वोट दिया और सिंहलियों ने अलग वोट दिया।
 
वह कहते हैं कि इसी कारण सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बहुत पहले से है और जो हाल में हिंसा और आपातकाल की घोषणा हुई है वो दो दिन पुरानी हिंसा की वजह से नहीं है। राकेश सूद कहते हैं कि सरकार के बीच सहमति न बनने के कारण कड़े फ़ैसले लेने में दिक्कत होती है और स्थानीय चुनावों में दोनों दलों की हार न होती तो यह घटना न होती।
 
2.1 करोड़ की जनसंख्या वाले श्रीलंका में 70 फ़ीसदी से अधिक सिंहला, 12 फ़ीसदी तमिल हिंदू और तकरीबन 10 फ़ीसदी मुस्लिम हैं।
 
मुनि कहते हैं, "मुस्लिमों को तमिलों के साथ मानकर देखा जाता है। मुस्लिमों की कुछ राजनीतिक पार्टियों ने राजपक्षे के साथ सरकार में शामिल होने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें अलग होना पड़ा। यह संबंध कभी सामान्य नहीं रहे। म्यांमार का असर भी वहां हो सकता है जिस तरह से मुस्लिमों के ख़िलाफ़ बौद्धों की हिंसा हुई है।"
 
श्रीलंका में रोहिंग्या मुसलमान
रोहिंग्या मुसलमानों की श्रीलंका में मौजूदगी भी विवादों की वजह बनता रहा है। कुछ बौद्ध राष्ट्रवादी उनको शरण देने पर अपना विरोध जताते रहे हैं। मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत का कारण रोहिंग्या है यह अभी तक साफ़ नहीं है। हालांकि, प्रोफ़ेसर मुनि कहते हैं कि रोहिंग्या की मौजूदगी का फ़ायदा राजपक्षे के दल ने ज़रूर उठाया है।
 
वह कहते हैं, "रोहिंग्या का समर्थन करने से बौद्धों में एक ग़ुस्सा ज़रूर है। इसके कारण सिंहली वोट एक साथ आए हैं लेकिन इसका बदला वह हिंसा करके लेंगे ऐसा कहना बहुत कठिन है।"
 
भारत क्या करेगा?
भारत में रोहिंग्या मुसलमानों का मुद्दा हो या बांग्लादेश में उनको बसाने का हर मामले में भारत ने चुप्पी ही साधी है। केंद्र सरकार तो रोहिंग्याओं को देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा बता चुकी है।
 
श्रीलंका के मामले में भारत क्या कर सकता है? इस पर एस।डी। मुनि कहते हैं, "भारत इस मामले में दख़ल नहीं देगा लेकिन उसका इसमें बड़ा हित है। वह चाहता है कि वहां ध्रुवीकरण बढ़े नहीं क्योंकि अगर यह बढ़ा तो इसका असर मुसलमानों तक सीमित नहीं होगा। तमिलों का मुद्दा आज भी श्रीलंका में जीवित है और तमिलों को संविधान में पूरी तरह जगह नहीं दी गई है।"
 
एलटीटीई के समय से भारत श्रीलंका में शांति की कोशिशें करता रहा है। राकेश सूद कहते हैं कि वर्तमान सरकार के साथ भारत के बहुत अच्छे संबंध हैं और उसे चाहिए की वह इसका सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होने से रोके।

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