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जब अंग्रेज़ों ने औरंगज़ेब को ललकारा था

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, बुधवार, 19 सितम्बर 2018 (12:56 IST)
- ज़फ़र सैय्यद (बीबीसी उर्दू, इस्लामाबाद)
 
वैसे तो ईस्ट इंडिया कंपनी 1603 में भारत में आने के बाद लगातार जीत हासिल करती चली गई और उस दौरान दुनिया के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि एक कंपनी ने एक देश पर कब्ज़ा कर लिया था। लेकिन इस सफ़र के दौरान एक मोड़ पर उन्हें ऐसी शर्मनाक हार मिली थी जिसने कंपनी का वजूद ही ख़तरे में डाल दिया था।
 
 
बाद में कंपनी ने अपने माथे से ये दाग़ धोने की पुरज़ोर कोशिश की। यही वजह है कि बहुत कम लोग जानते हैं कि सिराजुद्दौला और टीपू सुल्तान पर जीत हासिल करने से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने औरंगज़ेब आलमगीर से भी जंग लड़ने की कोशिश की थी लेकिन इसमें बुरी हार का सामना करने के बाद अंग्रेज़ों के दूतों को हाथ बांधकर और दरबार के फ़र्श पर लेटकर मुग़ल बादशाह से माफ़ी मांगने पर मजबूर होना पड़ा था।
 
 
यह क़िस्सा कुछ यूं है कि अंग्रेज़ों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के गठन के बाद भारत के विभिन्न इलाक़ों में अपने व्यावसायिक केंद्र स्थापित करके व्यवसाय शुरू कर दिए थे। इन इलाक़ों में भारत के पश्चिमी तट पर सूरत, बम्बई और पूर्व में मद्रास और कलकत्ता से 20 मील दूर गंगा नदी पर स्थित बंदरगाह हुगली और क़ासिम बाज़ार अहम थे।
 
 
अंग्रेज़ भारत से रेशम, गुड़ का शीरा, कपड़ा और खनिज ले जाते थे। ख़ासतौर पर ढाका के मलमल की ब्रिटेन में बड़ी मांग थी। अंग्रेज़ों के व्यापार पर टैक्स नहीं लगाया जाता था बल्कि उनके कुल सामान की क़ीमत का साढ़े तीन फ़ीसदी वसूल कर लिया जाता था।
 
 
मुग़लों की व्यापार नीति पर विवाद
उस ज़माने में सिर्फ़ अंग्रेज़ नहीं बल्कि पुर्तगाली और डच व्यापारियों के अलावा कई स्वतंत्र व्यापारी भी इस इलाक़े में सक्रिय थे। उन्होंने मुग़ल अधिकारियों से मिलकर अपने लिए वही व्यापार अधिकार हासिल कर लिए जो अंग्रेज़ों के पास थे। जब ये ख़बर लंदन में कंपनी के अध्यक्ष कार्यालय में पहुंची तो ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रमुख जोज़ाया चाइल्ड के क्रोध की सीमा न रही। उन्हें ये स्वीकार्य नहीं था कि उनके मुनाफ़े में कोई और भी हिस्सेदार बने।
 
 
इस मौक़े पर जोज़ाया चाइल्ड ने जो फ़ैसला किया वह अजीबोग़रीब ही नहीं बल्कि पागलपन की हदों को छूता हुआ दिखाई देता है। उन्होंने भारत में मौजूद कंपनी के अधिकारी से कहा कि वह अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में मुग़ल जहाज़ों का रास्ता काट दें और जो जहाज़ उनके हत्थे चढ़े उसे लूट लें। यही नहीं 1686 में चाइल्ड ने ब्रिटेन से सिपाहियों की दो पलटनें भी भारत भिजवा दीं और उन्हें निर्देश दिए कि भारत में मौजूद अंग्रेज़ फ़ौजियों के साथ मिलकर चटगांव पर कब्ज़ा कर लें।
 
 
जंग-ए-चाइल्ड
उनके नाम के हिसाब से इस जंग को 'जंग-ए-चाइल्ड' भी कहा जाता है। अब इसे चाइल्ड का बचकानापन कहें या फिर उसकी दिलेरी कि वह 308 सिपाहियों की मदद से दुनिया के सबसे ताक़तवर और मालदार सल्तनत के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने की हिम्मत कर रहा था। उस ज़माने में भारत पर औरंगज़ेब आलमगीर की सत्ता थी और दुनिया की कुल जीडीपी का एक चौथाई हिस्सा यहीं पैदा होता था। आर्थिक तौर पर उसे तक़रीबन वही स्तर हासिल था जो आज अमेरिका को है।
 
 
औरंगज़ेब के काल में सल्तनत की सीमाएं काबुल से ढाका तक और कश्मीर से पॉन्डिचेरी तक 40 लाख वर्ग किलोमीटर के रक़बे में फ़ैली हुई थीं। यही नहीं, औरंगज़ेब की फ़ौजें दक्कन के सुल्तानों, अफ़ग़ानों और मराठाओं से लड़-लड़कर इस क़दर अनुभवी हो चुकी थीं कि वह उस वक़्त दुनिया की किसी भी फ़ौज से टकरा सकती थीं।
 
 
दिल्ली की फ़ौज तो एक तरफ़ रही, सिर्फ़ बंगाल के सूबेदार शाइस्ता ख़ान के फ़ौजियों की तादाद 40 हज़ार से अधिक थी। एक अंदाज़े के मुताबिक़, मुग़ल फ़ौज की कुल तादाद नौ लाख से भी अधिक थी और उसमें भारतीय, अरबी, अफ़ग़ानी, ईरानी और यूरोपीय लोग तक शामिल थे। जब लंदन से मुग़लों के ख़िलाफ़ जंग की घोषणा हुई तो बम्बई में तैनात कंपनी के सिपाहियों ने मुग़लों के चंद जहाज़ लूट लिए। इसके जवाब में मुग़लों के एक काले मंत्री अलबहर सीदी याक़ूत ने एक ताक़तवर समुद्री जहाज़ से बम्बई तट की घेराबंदी कर ली।
 
 
आंखों देखा हाल
उस मौक़े पर एलेक्ज़ेंडर हेमिल्टन नाम के एक अंग्रेज़ बम्बई में मौजूद थे जिन्होंने बाद में अपनी एक किताब में इसका आंखों देखा हाल लिखा। वह लिखते हैं, "सीदी 20 हज़ार सिपाही लेकर पहुंच गया और आते ही आधी रात को एक बड़ी तोप से गोले दाग़कर सलामी दी। अंग्रेज़ों ने भागकर क़िले में पनाह ली। अफ़रातफ़री के हाल में गोरी और काली औरतें आधे कपड़े पहने हुए अपने बच्चों को गोद में उठाए हुए भागी चली जा रही थीं।"
 
 
"हेमिल्टन के मुताबिक़, सीदी याक़ूत ने क़िले से बाहर कंपनी के इलाक़े लूटकर वहां मुग़लिया झंडे गाड़ दिये और जो सिपाही मुक़ाबले के लिए गए उन्हें काट डाला। बाक़ियों के गले में ज़ंजीरें पहनाकर उन्हें बम्बई की गलियों से गुज़ारा गया।" बम्बई का ख़ास इलाक़ा पुर्तगालियों के क़ब्ज़े में था। जब अंग्रेज़ों के बादशाह ने पुर्तगाली राजकुमारी से शादी की तो ये बंदरगाह दहेज में अंग्रज़ों को मिल गई और उन्होंने वहां एक मज़बूत क़िला बनाकर व्यापार शुरू कर दिया।
 
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14 महीने तक घेराबंदी
धीरे-धीरे न सिर्फ़ समुद्र पार से अंग्रेज़ व्यापारी, सिपाही, पादरी, वास्तुकार और दूसरे हुनरमंद यहां आकर आबाद होने लगे बल्कि बहुत से भारतीय यहां रहने लगे और शहर की आबादी तेज़ी से फैलने लगी।
 
 
यही आबादी भागकर क़िले में पनाह लिए हुए थी और क़िला सीदी याक़ूत की घेराबंदी में था। जल्द ही ख़ाने-पीने का सामान ख़त्म होने लगा। दूसरी तरफ़ बीमारियों ने हल्ला बोल दिया और क़िले में मौजूद अंग्रेज़ बम्बई के मौसम का शिकार होकर एक के बाद एक मरने लगे। ऐसे में कंपनी के कुछ कर्मचारी चुपके से भाग निकलते और सीधे जाकर सीदी याक़ूत से जा मिलते थे। हेमिल्टन के मुताबिक़, उनमें से कई धर्म बदलकर मुसलमान हो गए।
 
 
सीदी अगर चाहते तो हमला करके क़िले पर क़ब्ज़ा कर सकते थे लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि जल्द ही क़िला पके हुए आम की तरह ख़ुद ही उनकी झोली में आ गिरेगा इसलिए उन्होंने दूर से ही गोलाबारी करना जारी रखा। ऐसी ही स्थिति देश के पूर्व में भी हुई। जहां बंगाल के सूबेदार शाइस्ता ख़ान के दस्तों ने हुगली में ईस्ट इंडिया कंपनी के क़िले को घेर लिया और आवाजाही के सभी रास्ते बंद कर दिए।
 
 
बंगाल की घेराबंदी तो जल्द ख़त्म हो गई और दोनों पक्षों ने सुलह कर ली लेकिन बम्बई में ये सिलसिला 15 महीनों तक चलता रहा। आख़िरकार अंग्रेज़ों की हिम्मत जवाब दे गई और उन्होंने अपने दो दूत औरंगज़ेब के दरबार में भिजवा दिए ताकि वह हार की शर्तें तय कर सकें।
 
 
मुग़ल दरबार में हाज़िरी
उन दूतों के नाम जॉर्ज वेल्डन और अबराम नॉआर थे। ये कई महीनों की कोशिशों के बाद आख़िर सितंबर 1690 को आख़िरी ताक़तवर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब आलमगीर के दरबार तक पहुंचने में कामयाब हो गए। दोनों इस हाल में पेश हुए कि दोनों के हाथ मुजरिमों की तरह बंधे थे, सिर सीने पर झुके और हुलिया ऐसा कि किसी देश के राजनयिक प्रतिनिधियों की जगह वह फ़कीर लग रहे थे। दोनों दूत मुग़ल शहंशाह के तख़्त के क़रीब पहुंचे तो उन्हें फ़र्श पर लेटने का हुक्म दिया गया।
 
 
सख़्त बादशाह ने उन्हें सख़्ती से डांटा और फिर पूछा कि वह क्या चाहते हैं। दोनों ने पहले गिड़गिड़ाकर ईस्ट इंडिया कंपनी के अपराध को स्वीकार किया और माफ़ी मांगी, फिर कहा कि उनका ज़ब्त किया गया व्यापारिक लाइसेंस फिर से बहाल कर दिया जाए और सीदी याक़ूत को बम्बई के क़िले की घेराबंदी ख़त्म करने का हुक्म दिया जाए।
 
 
उनकी अर्ज़ी इस शर्त पर मंज़ूर की गई कि अंग्रेज़ मुग़लों से जंग लड़ने का डेढ़ लाख रुपये हर्जाना अदा करें, आगे से आज्ञाकारी होने का वादा करें और बम्बई में ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रमुख जोज़ाया चाइल्ड भारत छोड़ दे और दोबारा कभी यहां का रुख़ न करें।
 
 
अंग्रेज़ों के पास ये तमाम शर्त सिर झुकाकर क़ुबूल करने के अलावा कोई चारा नहीं था, सो उन्होंने स्वीकार कर लिया और वापस बम्बई जाकर सीदी याक़ूत को औरंगज़ेब का ख़त दिया, तब जाकर उसने घेरेबंदी ख़त्म की और क़िले में बंद अंग्रेज़ों को 14 महीनों के बाद छुटकारा मिला। हेमिल्टन ने लिखा है कि जंग से पहले बम्बई की कुल आबादी 700 से 800 के बीच थी, लेकिन जंग के बाद 60 से अधिक लोग नहीं बचे थे। बाक़ी तलवार और महामारी का शिकार हो गए थे।
 
 
दाग़ मिटाने की कोशिश
आने वाले सालों में ईस्ट इंडिया कंपनी ने हर मुमकिन कोशिश की कि उस शर्मनाक युद्ध के क़िस्से को ब्रिटेन की जनता तक न पहुंचने दिया जाए। जॉन आउंगटिन ने छह साल बाद जब इस जंग के बारे में लिखा तो हार का कारण मुग़लों की धोखेबाज़ी बताया। इस पर कंपनी ने उसे 25 पाउंड का इनाम भी दिया जो उस ज़माने में बहुत बड़ी रक़म थी।
 
 
आउंगटिन अपनी किताब में जगह-जगह अंग्रेज़ों के साहस के क़िस्से बताते हैं जिन्होंने दस गुना बड़ी दुश्मन की फ़ौज का डटकर सामना किया। यही नहीं, वह दावा करते हैं कि इस जंग में अंग्रेज़ों की नहीं बल्कि सीदी याक़ूत की हार हुई थी। यही नहीं उन्होंने मुग़ल दरबार में अंग्रेज़ दूतों के साथ किए गए बर्ताव को ग़ायब ही कर दिया।
 
 
हेमिल्टन ने किताब तो लिखी लेकिन इसके छपने में 40 साल लग गए। इस घटना को इतना समय बीत चुका था कि इस किताब को ज़्यादा तवज्जो नहीं मिल सकी। यहां एक दिलचस्प सवाल यह उठता है कि औरंगज़ेब अगर अंग्रेज़ों को माफ़ी न देते और उन्हें भारत से निकालकर बाहर कर देते तो आज इतिहास क्या होता?
 

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