Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

नजरिया : अमित शाह का संपर्क अभियान समर्थन की गारंटी दिला पाएगा?

हमें फॉलो करें नजरिया : अमित शाह का संपर्क अभियान समर्थन की गारंटी दिला पाएगा?
- प्रदीप सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
 
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह चौबीस घंटे में छब्बीस घंटे राजनीति और चुनाव के बारे में सोचते हैं। पन्ना प्रमुख की जितनी चर्चा इन चार सालों में हुई है उतनी पिछले छह दशकों में नहीं हुई होगी। अमित शाह अब पन्ना प्रमुख से आगे निकल गए हैं।

एक समय था जब भाजपा में प्रमोद महाजन के बारे में कहा जाता था कि प्रमोद और पेप्सी अपना फार्मूला कभी नहीं बताते। चुनावी रणनीति बनाने में शाह ने महाजन को पीछे छोड़ दिया है। लोकसभा चुनाव में अभी ग्यारह महीने बाकी हैं, लेकिन शाह ने चुनाव अभियान शुरू कर दिया है।

उन्होंने एक नया अभियान शुरू किया है, संपर्क-समर्थन अभियान। इसके तहत पार्टी अध्यक्ष सहित सारे पदाधिकारी देशभर में समाज के प्रमुख और प्रबुद्ध लोगों से मिलेंगे। उन्हें सरकार की चार साल की उपलब्धियां बताएंगे और समर्थन मांगेंगे।

निजी संपर्क का असर : दरअसल, समाज के इस वर्ग में भाजपा की पैठ कम है। ऐसा नहीं है कि अमित शाह या दूसरे भाजपा नेताओं के जाने से लोगों की सोच या मन बदल जाएगा, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि निजी संपर्क का व्यक्ति पर प्रभाव तो पड़ता ही है। ये हो सकता है कि समर्थक न बने, लेकिन विरोध करना छोड़ दे या कम कर दे तो भी यह भाजपा के हित में है।

हालांकि अभी तक के अभियान को देखकर लगता है कि इसके लिए जिन लोगों का चयन किया गया है वे भाजपा समर्थक भले न हों लेकिन पार्टी के प्रति सहानुभूति रखते हैं। इसमें ऐसे लोग भी हैं जो किसी कारण से नाराज या असंतुष्ट हैं। इस अभियान का एक और फायदा भाजपा को मिल रहा है। इसके कारण वह और कुछ हासिल करे, न करे, मीडिया स्पेस तो ले ही रही है।

शाह से इन लोगों की मुलाकात रोज खबर बन रही है। इसके अलावा कई लोगों से मिलने के बाद कुछ के बारे में इस बात की चर्चा भी हो रही है कि वह पार्टी में शामिल हो सकते हैं। यह भी संभव है कि ऐसी चर्चा भाजपा की ओर से ही चलाई जा रही हो। चुनाव प्रचार का यह नया तरीका है। या यों कहें कि घर-घर प्रचार का यह नया रूप है। इसका नयापन भी इस पर चर्चा का अवसर देता है।

ऐसे समय जब सारा विपक्ष भाजपा के खिलाफ एकजुट होने की चर्चा में मशगूल है। भाजपा के दो शीर्ष नेताओं ने 2019 के लोकसभा चुनाव का प्रचार शुरू कर दिया है। दोनों ने ही प्रचार के नए तरीके और माध्यम का इस्तेमाल किया है।

मोबाइल पर चुनाव : अमित शाह के संपर्क-समर्थन अभियान के साथ ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 'नमो ऐप' के जरिए सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों से सीधे संवाद कर रहे हैं। सरकारी योजनाओं के प्रचार के लिए संगठन की मशीनरी और सरकारी मशीनरी के अलावा प्रधानमंत्री की यह सीधी पहल एक अलग प्रभाव छोड़ रही है।

प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं से कहा था कि अगला चुनाव मोबाइल पर लड़ा जाएगा। उन्होंने इसकी शुरुआत कर दी है। इस मोबाइल ऐप के जरिए लोग अपने घर में बैठकर सीधे प्रधानमंत्री से बात कर रहे हैं। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। सो इस अभियान का भी दूसरा पक्ष है। भाजपा के आलोचक और कई सहयोगी दल इसे भाजपा की कमजोरी के रूप में देख रहे हैं।

कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि चुनाव नजदीक देखकर कटोरा लेकर घूम रहे हैं। एनडीए में चल रहे मतभेद और उपचुनावों में भाजपा की हार के बाद ऐसे स्वर तेज हो गए हैं। पर अमित शाह इससे विचलित नहीं हुए। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल शिवसेना तंज कस रही है कि चार साल बाद हमारी याद कैसे आ गई। बुधवार को अमित शाह मुंबई में उद्धव ठाकरे के आवास मातोश्री में उनसे मिले।

दोनों नेताओं की करीब एक घंटे बात हुई। संपर्क तो हुआ पर समर्थन नहीं मिला। मुलाक़ात के बाद शिवसेना का बयान आया कि वह अकेले चुनाव लड़ने के अपने फैसले पर कायम है। चंद्रबाबू नायडू की तेलुगूदेशम पार्टी पहले ही एनडीए से बाहर जा चुकी है। गुरुवार को चंडीगढ़ में अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल से मुलाक़ात अमित शाह के लिए आश्वस्त करने वाली थी।

रतन टाटा से मिलने पहुंचे अमित शाह : बिहार में संपर्क और समर्थन तो बना हुआ है, लेकिन भविष्य में इसके बने रहने की बजाय टूटने की आशंका बढ़ती जा रही है। जनता दल यूनाइटेड के नेताओं के बयान साथ रहने का कम और अलग होने का संकेत ज्यादा दे रहे हैं। यह भी संभव है कि यह सब ज्यादा सीटें हासिल करने के लिए दबाव बनाने की रणनीति के तहत हो रहा हो।

भाजपा जिस समस्या का चार साल से महाराष्ट्र में सामना कर रही है, वो स्थिति अब बिहार में भी उत्पन्न हो गई है। महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना का गठबंधन बनने के बाद से 2014 तक शिवसेना बड़ी पार्टी और भाजपा छोटी पार्टी थी। 2014 के लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव ने इस समीकरण को बदल दिया। मतदाता ने शिवसेना को बड़े भाई से छोटा भाई बना दिया। इस वास्तविकता को उद्धव ठाकरे अभी तक स्वीकार नहीं कर पाए हैं।

बिहार में पेंच : नीतीश कुमार जब से एनडीए में लौटे हैं उन्हें उनके साथियों को यह चिंता खाए जा रही है कि लोकसभा चुनाव के टिकट बंटवारे में उनकी हैसियत बड़े भाई की रहेगी या नहीं। इसके लिए कभी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग उठती है तो कभी बिहार में नीतीश कुमार का नेतृत्व स्वीकार करने की।

बिहार से लोकसभा की कुल चालीस सीटों में से 22 भाजपा, सात लोक जनशक्ति पार्टी और दो राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के पास है। नीतीश की पार्टी के पास दो ही लोकसभा सदस्य हैं। ऐसे में पहले की तरह जनता दल यूनाइटेड को पच्चीस सीटें तो मिलने से रहीं। यह बात नीतीश कुमार को भी पता है।

पर सवाल है कि पच्चीस नहीं तो कितनी? इसका कोई जवाब उन्हें भाजपा से नहीं मिल रहा है। उनके कुछ साथियों को अब भी महागठबंधन की याद सता रही है। ऐसे में अमित शाह के अभियान की कामयाबी इस बात से तय होगी कि वे जितने लोगों से संपर्क करेंगे, उनमें से समर्थन कितनों का मिलता है।

हमारे साथ WhatsApp पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें
Share this Story:

वेबदुनिया पर पढ़ें

समाचार बॉलीवुड ज्योतिष लाइफ स्‍टाइल धर्म-संसार महाभारत के किस्से रामायण की कहानियां रोचक और रोमांचक

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

मेरे लिए एक चमत्कार की तरह 'स्टार्टअप इंडिया' में प्रधानमंत्री के साथ संवाद