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अयोध्या पर फैसला: 'आमजन' की राय

24 तारीख का निर्णय सबके लिए हो

हमें फॉलो करें अयोध्या पर फैसला: 'आमजन' की राय

स्मृति आदित्य

, सोमवार, 20 सितम्बर 2010 (16:29 IST)
पिछले नासूर अब तक भरे नहीं है। अयोध्या का मंदिर-मस्जिद मुद्दा और उसकी वजह से हुए 1992 के साम्प्रदायिक दंगे हम सबके मस्तिष्क में एक कड़वी याद के रूप में दर्ज है। राजनेताओं की कवायदें एक बार फिर ज्वार-भाटे की तरह ऊपर-नीचे हो रही है।

मगर इन सबके बीच सबसे ज्यादा चिंतित अगर कोई है तो वह है आम आदमी। आम आदमी, जो ना तो मुसलमान है, ना ही हिन्दू, ना सिक्ख, ना ईसाई। आम आदम‍ी, जिसकी रोज की चिंता में रोटी, नौकरी, मकान, कपड़े और भी कई बेशुमार जरूरते हैं। देश का वह आम आदमी, जो कभी अयोध्या नहीं गया और अब वहाँ जाने से भी डरता है।

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दूसरी तरफ, अयोध्या जो एक शहर का नाम हुआ करता था आज या तो एक हिन्दू नाम है या फिर एक विवादित नाम। हमने अपने शहर के कुछ हिन्दू और मुस्लिम जनता से बात की। एक स्वर में, एक ही राय थी कि जमीन दोनों को ना दी जाए बल्कि देशहित में किसी तीसरे को दे दी जाए। यह हमारी राय नहीं है यह देश की उस पढ़ी-लिखी जनता की राय है जो अब बिना बात के दंगे और उसके बाद उपजे भयावह मंजर को देखने के पक्ष में नहीं है।

वह जनता जो देश की प्रगति की हिमायती है, वह जनता जो अपने जीवन में शांति और सौहार्द्र चाहती है। वह जनता, जो रोज अपने पड़ोसी के साथ जीना और रहना चाहती है यह सोचे बगैर कि उसका या पड़ोसी का धर्म क्या है? वह ईद में सेंवईया और दीपावली में गुझिया मिलकर खाना चाहती है।

क्या हमारे नेता, आम जनता की आवाज को सुनने और उसकी तकलीफों को समझने के लिए भाईचारे और शां‍ति को वरीयता देंगे? चाहे फैसला किसी के भी पक्ष या विपक्ष में हो क्या इसके समाधान के लिए न्यायिक प्रक्रिया को सम्मान देंगे? आइए चलते हैं उस अवाम के पास जो अमन के सिवा कुछ नहीं चाहती :

अय्यूब मगर (उम्र 60 वर्ष, कपड़ा व्यवसायी) :
मैं एक साधारण व्यापारी हूँ। 92 के दंगे के जख्म याद है। इन नेताओं से मेरी एक ही गुजारिश है कि हमको शांति से जीने दें। मंदिर-मस्जिद सियासी मुद्दे नहीं है ये आपसी समझ के मुद्दे हैं। इनको तिजारत(व्यापार) नहीं बनाना चाहिए। जमाना जानता है कि जर(धन), जोरू(औरत) और जमीन की वजह से जब भी झगड़े हुए है वे सुलझने के बजाय बस उलझते चले गए हैं। जमीनी विवाद को इन नेताओं ने राजनीति का हथियार बना लिया और देखिए, कितना नुकसान हुआ।

मेरे जैसा आदमी बस अपने धंधे को अपना धर्म मानता है। मेरा ग्राहक मेरा खुदा है। मैं अपने कपड़े सिर्फ मुस्लिमों को तो नहीं बेचता हूँ ना। मेरे ज्यादा ग्राहक तो ‍हिन्दू है और अभी ईद पर मेरे सारे पड़ोसी सेंवईया पर तशरीफ लाए थे। अब अगर फैसला कुछ भी हो तो क्या हम आपस में बात करना छोड़ देंगे। नहीं साहब, सवाल ही नहीं उठता।

महेशचन्द्र तिवारी (उम्र 49 वर्ष, शिक्षक) :
फैसला चाहे जो हो यह अब जनता के सब्र और ताकत की परीक्षा है कि वह शांति भंग ना होने दें। इन नेताओं के मन्सुबे धाराशायी हो तो ही असली भारतीयता जीतेगी। हमको एक साथ, एक मन बनाकर खड़े रहना है कि शहर की फिजाँ नहीं बिगड़ने देंगे। वैसे मुझे नहीं लगता कि इस बार वैसा कुछ होगा और कायदे से होना भी नहीं चाहिए। हमें आने वाली पीढ़ी के सामने प्यार और प्रगतिशीलता के उदाहरण पेश करने चाहिए ना कि वैमनस्यता और हिंसा के।

देश के सामने चुनौतियाँ बढ़ रही है, दूसरे कई संकट मुँह खोले खड़े हैं ऐसे में फिर सांप्रदायिकता का जहर हमको भारी पड़ सकता है। मैं तो कहता हूँ वह जमीन किसी ऐसे नेक काम के लिए दान कर देनी चाहिए जहाँ हर मजहब का बंदा आकर इबादत करें। या हर धर्म का बच्चा देशप्रेम की शिक्षा प्राप्त करें।

असलम कुरैशी (उम्र 24 वर्ष, ऑटोचालक) :
आम जनता को उसकी रोजी-रोटी मिलती रहे उससे ज्यादा कोई मतलब नहीं होता। इतनी दूर दिल्ली या अयोध्या के फैसले से मेरे शहर में दंगे नहीं होने चाहिए। एक-दूसरे को मारने से किसी को क्या मिलेगा? होगा तो वही जो अदालत फैसला देगी फिर आपस में लड़ने से क्या फायदा? मुझे नहीं लगता कि माहौल खराब होगा। क्योंकि कोई नहीं चाहता कि अपनी समस्याओं को भूलकर इन सब बातों में समय बर्बाद करें। मं‍दिर-मस्जिद की समस्या वास्तव में है क्या, मुझे अभी तक नहीं पता। बस इतना मालूम है कि उसके कारण झगड़े हुए थे और मैं चाहता हूँ वैसा फिर से ना हो। देश के बड़े लोगों को समझदारी से मामला निपटाना चाहिए।‍

अनुष्का सक्सेना (उम्र 22 वर्ष, छात्रा) :
24 तारीख को जो भी हो लेकिन बस वह नहीं होना चाहिए जिसका हमें डर है। इस बार हमको किसी भी कीमत पर शांति का वा‍तावरण बनाना होगा। सांप्रदायिकता जैसी चीजें दिमाग खराब करती है। मेरी मुस्लिम सहेलियाँ भी डरी हुई है। मुझे लगता है देश की पहली जरूरत मोहब्बत है। हम सब एक दूसरे का सुख-दुख में साथ निभाए यह भावना ज्यादा महत्व रखती है । देश तभी तो आगे बढ़ेगा जब हम नफरत की बातों से दूर रहकर अच्छी बातें सोचेंगे।

इस मामले को राजनेताओं के हाथ से लेकर देश के बुद्धिजीवी और समझदार लोगों को सौंप देना चाहिए। युवाओं को इस मामले से दूर रहना चाहिए या फिर पूरी जानकारी हासिल करना चाहिए। क्योंकि नेताओं से मिली आधी-अधूरी जानकारी से गलतफहमियाँ हो सकती है।

सबा शबनम पठान (उम्र 29 वर्ष, शोध छात्रा)
मैं तो एक ही भाषा जानती हूँ और वही मेरा मजहब भी है। वह है प्यार की भाषा और प्यार का मजहब। इस सारे मामले को धर्मों से अलग रखकर उदारता से सुलझाना होगा। दोनों पक्षों को अपना दिल थोड़ा-थोड़ा बड़ा करना चाहिए। राजनेता अगर अपनी रोटी सेंकना बंद कर दें तो समाधान अपने आप आ जाएगा।

मैं ज्यादा कुछ नहीं कह सकती क्योंकि मैं मामले को गहराई से नहीं जानती और इस मुद्दे की गंभीरता का मुझे अहसास है। एक भी गलत शब्द से परेशानी हो सकती है लेकिन जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत राय है मैंने शुरू में ही कहा कि मैं इंसानियत और प्रेम को अपना धर्म मानती हूँ।

पं. सुखदेव शास्त्री ( उम्र 58 वर्ष, पंडिताई)
सारे भगवान एक है। हर धर्म एक ही संदेश देता है सबको साथ लेकर चलने क। फिर यह मारकाट, दंगे, फसाद वह भी भगवान के नाम पर यह हमें शोभा नहीं देता। इस देश की संस्कृति को शोभा नहीं देता। क्यों ना उस जमीन पर ऐसा ऐतिहासिक-धार्मिक स्थल बनवाया जाए जहाँ हर धर्म के लिए आराधना की सुविधा हो।

निसंदेह राम लला का वह जन्मस्थल है इससे तो किसी मुस्लिम को भी इंकार नहीं होगा। श्रीराम हिन्दूओं के लिए कितने पूजनीय है इसमें भी कोई संदेह नहीं है। हमारी संस्कृति सबको लेकर चलने का संदेश देती है तो उसी को आत्मसात करते हुए हम अपने मुस्लिम भाईयों को भी जगह देकर एक नया कीर्तिमान रचें। न्यायालय का फैसला मान्य हो मगर भाई-भाई इस तरह कोर्ट कचहरी करें क्या यह अच्छा लगता है?

डॉ. असगर अली( उम्र 46 वर्ष, सर्जन)
मेरे पास हर धर्म के लोग आते हैं उस वक्त मेरा पेशा ही मेरा धर्म है। मरीज को बचाने के अलावा मेरे दिमाग में कुछ नहीं रहता। जिस क्षण ऑपरेशन सफल होता है लगता है खुदा की इबादत कर ली। मंदिर-मस्जिद सब देश की जनता को बेवकूफ बनाने वाले राजनीतिक हथकंडे हैं। अगर यह कोई मुद्दा है भी तो क्या जरूरी है कि पूरे देश में इसकी आग फैले? मरता कौन है इन फसादों में? आम आदमी।

सब जानते हैं कि आम आदमी जब कत्ल होता है तो उनमें हिन्दू और मुस्लिम की संख्या नहीं होती बस एक लाश गिनी जाती है। यानी जो शख्स जब दंगा कर रहा था तब उसका धर्म कुछ भी हो मगर मरते ही वह महज एक लाश होता है। उसे एक संख्या दी जाती है बस और कुछ नहीं। जीवन का बस इतना सा सच हम पढ़े-लिखे लोग समझ लें तो सत्ताधारियों द्वारा हमारा फायदा उठाना बंद हो जाएगा।

महिमा कस्बेकर (उम्र 26 वर्ष, मेडिकल छात्रा)
इस बार 1992 जैसा कुछ नहीं होगा मेरा मन कहता है। कारण कि देश अब मानसिक रूप से पहले से अधिक मजबूत हुआ है। आज का युवा इन सब बातों को नहीं मानता। अगर फैसला मस्जिद के पक्ष में हुआ तो मंदिर वाले यानी हिन्दुओं के पास सुप्रीम कोर्ट का रास्ता खुला है और अगर ऐसा नहीं होता है दूसरे पक्ष को भी लड़ने-मरने और शहर की शांति नष्ट करने के बजाय समझौते की राह चुननी चाहिए।

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